जिग्नेश मेवानी: दलित राजनीति का नया सितारा, मार्क्स-अंबेडकर की साझा विरासत के पैरोकार
By रंगनाथ | Updated: December 19, 2017 12:31 IST2017-12-18T12:57:07+5:302017-12-19T12:31:32+5:30
पहला विधानसभा चुनाव लड़ रहे जिग्नेश मेवानी ने अपने निकटतम बीजेपी प्रतिद्वंद्वी को करीब 20 हजार वोटों से हराया।

जिग्नेश मेवानी: दलित राजनीति का नया सितारा, मार्क्स-अंबेडकर की साझा विरासत के पैरोकार
31 जुलाई 2016 को एक 35 वर्षीय दलित युवक ने अहमदाबाद में जनसभा बुलाई। उस समय वकील, पत्रकार और आरटीआई एक्टिविस्ट जिग्नेश मेवानी का नाम गुजरात समेत पूरे देश के लिए अनजान था। जिग्नेश ने चार दलितों को बांधकर पिटाई करने के विरोध में उना तक पदयात्रा का आह्वान किया। जिग्नेश ने जब करीब 30 गांवों से होते हुए लगभग 250 किलोमीटर की यात्रा पूरी की तो देश को एक नया युवा नेता मिल चुका था। सोमवार (18 दिसंबर) को जब गुजरात चुनाव के नतीजे आए तो निर्दलीय उम्मीदवार जिग्नेश मेवानी वडगाम विधानसभा से करीब 20 हजार से ज्यादा वोटों से बीजेपी उम्मीदवार चक्रवर्ती विजयकुमार हरखबभाई को हराकर पहली बार विधायक बने।
अगस्त 2016 में जिग्नेश ने आम आदमी पार्टी से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि वो उना प्रकरण के बाद उभरे दलित आंदोलन को राजनीतिक आधार पर बंटने नहीं देना चाहते। तब जिग्नेश ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे। करीब डेढ़ साल बाद जिग्नेश गुजरात विधानसभा में प्रवेश के लिए तैयार हैं। इस बार भी उन्होंने कांग्रेस का समर्थन करने के बावजूद निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और जीते। कांग्रेस ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया था। गुजरात समेत पूरे देश के दलित उनमें एक नए नेता को देख रहे हैं। ऐसा नेता जो बाबासाहब अंबेडकर और कार्ल मार्क्स दोनों की साझा विरासत को आगे बढ़ाना चाहता है। ऐसा नेता जो दलित और मुस्लिम एकता के आधार पर राजनीति का नया स्थायी समीकरण गढ़ना चाहता है। फॉरवर्ड प्रेस को दिए इंटरव्यू में जिग्नेश ने कहा था, "इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के अंबेडकर का मुझ पर सबसे ज्याद प्रभाव रहा है। स्टेट एंड माइनरिटीज, रेडिकल अंबेडकर मुझे प्रेरित करते हैं। जहां तक मार्क्सवाद की बात है, इसका भी मेरे ऊपर प्रभाव है। इसमें कोई दो राय नहीं है। अगर मेरा मकसद केवल दलितों की मुक्ति होता तो मैं जय भीम का नारा लगाता। मैं पूरी दुनिया के कामगार तबके की मुक्ति चाहता हूं इसलिए मैं लाल सलाम भी कहता हूं।"
दिसंबर 1982 में अहमदाबाद में जन्मे मेवानी ने अपना करियर एक स्थानीय पत्रिका के पत्रकार के तौर पर शुरू किया था। साल 2008 में जन संघर्ष मंच नामक एनजीओ की स्थापना की। एनजीओ का काम करने के साथ ही उन्होंने वकालत की पढ़ाई की। वकालत करने के साथ उन्होंने आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर वो दलितों को मिलने वाले भूमि आवंटन और भूमि वितरण पर विशेष ध्यान दिया। इस दौरान दलितों और किसानों के हित वाले मुद्दे जिग्नेश के सामाजिक जीवन के केंद्र में रहे।
उना प्रकरण जिग्नेश को सामाजिक बदलाव की नई धारा में खींच लाया। 15 अगस्त 2016 को जब जिग्नेश मेवानी एवं अन्य नेताओं का जत्था उना पहुंचा तो वो एक बड़े जनसभा में तब्दील हो चुका था। जिग्नेश की इस पदयात्रा और जनसभा को दलितों के अलावा मुसलमानों और पिछड़ों का भी समर्थन मिल रहा था। धर्म और जाति के समीकरण से संचालित होने वाली भारतीय राजनीति में जिग्नेश के पास अपना समीकरण है। जिग्नेश दलितों और मुसलमानों को एक-एक कर ओबीसी की मदद से बीजेपी की विकल्प पेश करना चाहते हैं। फॉरवर्ड प्रेस को दिसंबर 2016 में दिए इंटरव्यू में जिग्नेश ने कहा था, "ऐसा नहीं है कि हम दलित और आदिवासी एकता की बात नहीं करते या ऐसा नहीं है कि हम नहीं चाहते कि सभी वंचितों और शोषितों को एक मंच पर आना चाहिए। दलित और मुस्लिम एकता इसलिए जरूरी है क्योंकि संघ और बीजेपी ने साल 2002 के दंगों में की जगहों पर दलितों को अपने पैदल सैनिकों की तरह इस्तेमाल किया था। इसकी खिलाफत के लिए दलित-मुस्लिम एकता का नारा जरूरी है और ये एकता सामाजिक और राजनीतिक दोनों हो सकती है। "
दलित-मुस्लिम सामाजिक एकता से जिग्नेश का क्या आशय है? जिग्नेश दलितों और मुसलमानों के बीच रोटी-बेटी के संबंध को बढ़ावा देने की तरफ संकेत देते दिखे। जिग्नेश ने इस मसले से जुड़े एक सवाल का कुछ यूं जवाब दिया, "जहां तक मेरा सवाल अभी मेरी शादी की योजना नहीं है। लेकिन अगर कल वाल्मीकि या मुस्लिम महिला से मुझे प्रेम हो जाता है तो देखेंगे। बहरहाल, पहली बार जिस लड़की से मुझे प्यार हुआ था वो मुस्लिम थी।"
जिग्नेश भले ही धर्म और जाति दोनों के समीकरण को बैठाकर राजनीति करना चाहते हों वो राजनीति में धर्म के इस्तेमाल को लेकर उनकी राय साफ है। जिग्नेश ने अपने इंटरव्यू में साफ किया, "मेरा मानना है कि धर्म को किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं होना चाहिए। धर्म को घर की चारदिवारी में महदूद रहना चाहिए।" इस मसले पर जिग्नेश बाबासाहब बीआर अंबेडकर से भी इत्तेफाक नहीं रखते। बाबासाहब की राह पर चलकर दलितों के बौद्ध बनने के मुद्दे पर उन्होंने कहा, "...बाबासाहब ने जो किया वो उनके समय और विशेष संदर्भ की बात थी। उन्होंने पूरे हिन्दू समुदाय निशाने पर रखा। लेकिन हमें देखना होगा कि पिछले 50 साल में बौद्ध धर्म कहां तक पहुंचा है, जो लोग बौद्ध हुए क्या वो जाति और उपजाति के बंधन से आजाद हो सके।" जिग्नेश मानते हैं कि अगर कुछ जागरूक लोग बौद्ध बनते हैं तो ये कोई मुद्दा नहीं हैं। वो कहते हैं, "...लेकिन मैं राजनीतिक आंदोलन के तौर पर सामूहिक रूप से बौद्ध बनने के खिलाफ हूं।"
जिग्नेश एक साथ ही जाति और वर्ग दोनों के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं। वो अंबेडकर, मार्क्स और भगत सिंह के आदर्शों और विचारों की साझा जमीन पर भविष्य की नींव रखना चाहते हैं। लेकिन गुजरात विधान सभा चुनाव में वो और उनके साथी बीजेपी को सत्ता से बाहर करने में विफल रहे तो क्या उनके पहले राजनीतिक प्रयास को असफल माना जाए? जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल की राजनीतिक मुहीम सियासी बदलाव लाने में विफल रही। इस सवाल का जवाब जिग्नेस गुजरात विधान सभा चुनाव का नतीजा आने से पहले ही दे चुके हैं। सितंबर 2017 में द हिन्दू को दिए एक इंटरव्यू में गुजरात की नई राजनीतिक करवट पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "सबसे बड़ा बदलाव ये है कि अब कोई गुजरात मॉडल की बात नहीं कर रहा...विकास का गुब्बारा फूट चुका है, अब बीजेपी सबका विकास का नारा इस्तेमाल नहीं कर पाएगी।" अपना विधायक का चुनाव जीतने के बाद जिग्नेश ने ट्वीटर पर जो तस्वीर शेयर की है उसमें आने वाले भविष्य का संदेश छिपा है, जो विपक्षियों को चैन से नहीं बैठने देगा।
— Jignesh Mevani (@jigneshmevani80) December 18, 2017