उप्र में समूची स्वास्थ्य प्रणाली को ‘राम भरोसे’ बताने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक
By भाषा | Published: May 21, 2021 09:46 PM2021-05-21T21:46:46+5:302021-05-21T21:46:46+5:30
नयी दिल्ली, 21 मई उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश पर रोक लगा दी जिसमें कहा गया था कि कोविड-19 महामारी के बीच उत्तर प्रदेश के गांवों और छोटे शहरों में समूची स्वास्थ्य प्रणाली ‘राम भरोसे’ है। इसने कहा कि उच्च न्यायालयों को ऐसे निर्देश जारी करने से बचना चाहिए जिन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति बी आर गवई की अवकाशकालीन पीठ ने अपने फैसले में कहा कि उच्च न्यायालय के 17 मई के निर्देशों को निर्देशों के रूप में नहीं माना जाएगा और इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार को सलाह के रूप में माना जाएगा।
पीठ ने कहा कि आदेश में ऐसी कुछ टिप्पणियां हैं जो अदालत ने आम जनता को राहत उपलब्ध कराने की नीयत से कही हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालयों को ऐसे निर्देश जारी करने से बचना चाहिए जिन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा सकता।
इसने कहा, ‘‘इस तरह के निर्देश क्रियान्वित नहीं किए जा सकते और इन्हें सलाह के रूप में माना जाएगा, निर्देश के रूप में नहीं। लोगों को सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सलाह को ध्यान में रखेगी।’’
मामले में मदद के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता निदेश गुप्ता को अदालत मित्र नियुक्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘‘हम आदेश पर रोक लगा रहे हैं, लेकिन उच्च न्यायालय में चल रही कार्यवाही पर रोक नहीं लगा रहे। मामला 14 जुलाई को सूचीबद्ध किया जाएगा।’’
शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों में से एक का उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश के प्रत्येक गांव में कम से कम दो एंबुलेंस उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिनमें गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) की सुविधाएं हों।
पीठ ने कहा कि राज्य सरकार ने सूचित किया है कि उत्तर प्रदेश में 97,000 गांव हैं और एक महीने में इस तरह की एंबुलेंस उपलब्ध कराना ‘‘मानवीय रूप से संभव’’ नहीं है।
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के उस निर्देश का भी उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि राज्य के पांच मेडिकल कॉलेजों को चार महीने के भीतर स्नातकोत्तर चिकित्सा संस्थानों के रूप में उन्नत किया जाए।
पीठ ने कहा कि राज्य सरकार ने कहा है कि इतनी कम अवधि में ऐसा करना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि उच्च न्यायालय की विभिन्न पीठ कोविड प्रबंधन पर भिन्न-भिन्न आदेश पारित कर रही हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘यह उचित होगा यदि यह अदालत निर्देश दे कि कोविड प्रबंधन से जुड़े मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पीठ सुनवाई करे जिससे कि निर्देशों में एकरूपता हो।’’
इसपर पीठ ने कहा कि वह कोई सामान्य निर्देश या व्यापक आदेश जारी नहीं करेगी क्योंकि वह उच्च न्यायालयों या राज्य को हतोत्साहित नहीं करना चाहती।
शीर्ष अदालत ने ऐसा कोई आदेश पारित करने से इनकार करते हुए कहा, ‘‘हम वतर्मान में केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहे हैं।’’
अपील उत्तर प्रदेश सरकार ने दायर की थी।
उच्च न्यायालय ने मेरठ के एक अस्पताल में पृथक-वार्ड में भर्ती 64 वर्षीय संतोष कुमार की मौत पर संज्ञान लेते हुए राज्य में कोरोना वायरस के प्रसार और पृथक-वास केंद्रों की स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर 17 मई को कुछ निर्देश जारी किए थे।
जांच की रिपोर्ट के अनुसार संबंधित अस्पताल के डॉक्टर संतोष की पहचान करने में विफल रहे थे और उसके शव को अज्ञात के रूप में निपटा दिया था।
संतोष अस्पताल के बाथरूम में 22 अप्रैल को बेहोश हो गया था। उसे बचाने के प्रयास किए गए लेकिन उसकी मौत हो गई थी।
अस्पताल के कर्मचारी उसकी पहचान नहीं कर पाए थे और उसकी फाइल खोजने में भी विफल रहे। इस तरह, इसे अज्ञात शव का मामला बताया गया था।
मुद्दे पर उच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि मेरठ जैसे शहर में मेडिकल कॉलेज का यह हाल है तो फिर कहना पड़ेगा कि राज्य के गांवों और छोटे शहरों में समूची चिकित्सा प्रणाली ‘‘राम भरोसे’’ है।
अदालत ने कोविड रोधी टीकाकरण के मुद्दे पर कहा था कि विभिन्न धार्मिक संगठनों को दान के माध्यम से कर राहत कानूनों के तहत लाभ उठाने वाले बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से टीकों के लिए धनराशि देने को कहा जा सकता है।
उच्च न्यायालय ने सुनवाई की अगली तारीख 22 मई को निर्धारित करते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश के हर दो एवं तीन टियर शहर को कम से कम 20 एंबुलेंस और हर गांव को कम से कम दो एंबुलेंस उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिनमें आईसीयू सुविधाएं हों।
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