इंदौर: सतपुड़ा की हरी-भरी पहाड़ियों में आज भी गूंजती है उस वीर योद्धा की गाथा, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी। यह कहानी है राजा भभूत सिंह की - एक ऐसे गोंड शासक की जिन्हें नर्मदांचल का शिवाजी कहा जाता है और जिनके नाम से अंग्रेज थर्राते थे। राजा भभूत सिंह की वीरता की कहानी उनके जन्म से भी पहले शुरू हो गई थी। पचमढ़ी जागीर के स्वामी ठाकुर अजीत सिंह के वंश में हर्राकोट राईखेड़ी शाखा के जागीरदार परिवार में जन्मे भभूत सिंह के दादा ठाकुर मोहन सिंह ने 1819-20 में सीताबर्डी के युद्ध में नागपुर के पराक्रमी पेशवा अप्पा साहेब भोंसले का साथ दिया था।
जब अंग्रेजों ने अप्पा साहेब को अपमानजनक संधि के लिए विवश किया, तो वे भेस बदलकर नर्मदांचल में शक्ति संचय के लिए निकल पड़े और महादेव की पहाड़ियों में रहकर गुप्त रूप से आदिवासी समुदाय को संगठित किया। इसी वीरता की परंपरा से प्रेरित होकर युवा भभूत सिंह ने 1857 की सशस्त्र क्रांति का सूत्रपात सतपुड़ा की गोद में किया।
अक्टूबर 1858 के अंतिम सप्ताह में एक ऐसी घटना घटी जिसने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदल दी। महान क्रांतिकारी तात्या टोपे ने अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकते हुए ऋषि शांडिल्य की पौराणिक तपोभूमि साँडिया के पास नर्मदा नदी पार की। महुआखेड़ा फतेहपुर के राजगौंड राजा ठाकुर किशोर सिंह ने अंग्रेजों की चिंता न करते हुए तात्या टोपे का भव्य स्वागत किया।
इसके बाद पचमढ़ी की सुरम्य वादियों में भभूत सिंह और तात्या टोपे की ऐतिहासिक मुलाकात हुई। सतपुड़ा की गोद में दोनों महान योद्धाओं ने आठ दिनों तक डेरा डालकर नर्मदांचल में आजादी के आंदोलन की विस्तृत योजना बनाई। हर्राकोट के जागीरदार भभूत सिंह का आदिवासी समाज पर अत्यधिक प्रभाव था। उन्होंने जनजातीय समुदाय को एकजुट करके गुरिल्ला युद्ध पद्धति से अंग्रेजों का मुकाबला किया।
राजा भभूत सिंह को सतपुड़ा के घने जंगलों और पहाड़ियों के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी, जबकि अंग्रेज फौज पहाड़ी रास्तों से अनजान थी। उनकी सेना अचानक हमला करती और गायब हो जाती, जिससे अंग्रेज अत्यधिक परेशान हो गए थे। इतिहासकारों के अनुसार राजा भभूत सिंह का रणकौशल छत्रपति शिवाजी महाराज के समान था।
शिवाजी की तरह वे सतपुड़ा पर्वतों के हर पहाड़ी मार्ग से वाकिफ थे, जबकि अंग्रेज इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों से परिचित नहीं थे। इसी कारण उन्हें नर्मदांचल का शिवाजी कहा जाता है। एक दिलचस्प घटना ने भभूत सिंह के विद्रोह को और तेज कर दिया। सोहागपुर से आए एक थानेदार ने हर्राकोट आकर जागीरदार से मुर्गियों की मांग की।
भभूत सिंह ने इसे अपमानजनक माना और अंग्रेजों के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया। इसके बाद इस क्षेत्र में उन्होंने अंग्रेजों को चैन से बैठने नहीं दिया। राजा भभूत सिंह का सबसे प्रसिद्ध युद्ध देनवा घाटी में हुआ, जहां अंग्रेजी मिलिट्री और मद्रास इन्फेंट्री की टुकड़ी से उनका सामना हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजी सेना बुरी तरह पराजित हुई।
अंग्रेज अधिकारी एलियट ने अपनी 1865 की सेटलमेंट रिपोर्ट में लिखा कि भभूत सिंह को पकड़ने के लिए ही मद्रास इन्फेंट्री को विशेष रूप से बुलाना पड़ा था। राजा भभूत सिंह ने अपनी सेना के साथ 1860 तक लगातार अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया। दो साल के अथक प्रयासों के बाद अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 1860 में जबलपुर में मौत की सजा सुनाकर उन्हें शहीद कर दिया।
कुछ संदर्भों के अनुसार उन्हें फांसी दी गई, जबकि अन्य के अनुसार गोलियों से छलनी कर दिया गया। राजा भभूत सिंह की वीरता के किस्से आज भी लोक मानस की चेतना में जीवंत हैं। कहा जाता है कि वे युद्ध में सतपुड़ा के घने जंगलों में पाए जाने वाले मधुमक्खियों के छत्तों का भी उपयोग करते थे। पिपरिया से पचमढ़ी रोड पर स्थित ग्राम सिमारा में उनकी ड्योढ़ी मानी जाती थी।
आज का बोरी क्षेत्र उनकी जागीर में आता था। आज पचमढ़ी, जो भगवान भोलेनाथ की नगरी के नाम से भी जानी जाती है, में धूपगढ़ चोटी समुद्र तल से लगभग 1,350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान गोंड साम्राज्य की ताकत और प्रकृति संरक्षण के दृष्टिकोण को दर्शाता है।
राजा भभूत सिंह की गाथा केवल एक योद्धा की कहानी नहीं, बल्कि जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले एक महान नेता की अमर गाथा है, जिन्होंने अपने जनजातीय समुदाय को एकजुट करके स्वतंत्रता संग्राम में अमूल्य योगदान दिया।