जब एक मुसलमान खुशनवीस से कुरान शरीफ खरीदने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने लुटा दी थी धन-दौलत
By कोमल बड़ोदेकर | Published: June 27, 2018 07:46 AM2018-06-27T07:46:44+5:302018-06-27T07:46:44+5:30
एक मुसलमान खुशनवीस ने कई सालों की मेहनत के बाद सोने और चांदी से बनी कुरान शरीफ को तैयार किया। इसे लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबो से मिला लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। इसके बाद खुशनवीस की मुलाकात लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह के साथ हुई।
नई दिल्ली, 27 जून। महाराजा रणजीत का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला, भारत (अब पाकिस्तान) में सुकरचक्या मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ था। महज 12 साल की आयु में महाराजा रणजीत सिंह के पिता का निधन हो गया। इस दौरान सन 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक प्रतिशासक परिषद् (council of Regency) ने की। इस परिषद् में इनकी माता- सास और दीवान लखपतराय शामिल थे।
1797 में संभाली बागडोर
साल 1797 में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी जागीर की बागडोर अपने हाथ में ली। सन 1801 में उन्होंने बैसाखी के दिन लाहौर में बाबा साहब बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतंत्र भारतीय शासक के रूप में प्रतिष्ठत किया। 40 साल के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतंत्र राज्य की सीमाओं को और विस्तृत किया। इसके साथ ही साथ उसमे ऐसी शक्ति भरी की किसी भी आक्रमणकारी की इस ओर आने की हिम्मत नहीं हुई।
ऐसे बने शेर-ऐ-पंजाब
इतिहासकारों की माने तो बतौर महाराजा रणजीत सिंह का राजतिलक हुआ लेकिन वे राज सिंहासन पर कभी नहीं बैठे। अपने दरबारियों के साथ मनसद के सहारे जमीन पर बैठना उन्हें ज्यादा पसंद था। 21 साल की उम्र में ही रणजीत सिंह ‘महाराजा’ की उपाधि से विभूषित हुए। जाबांजी, हिम्मत, दरियादिली और प्रजा से उदार प्रेम के चलते एक समय के बाद उनकी पहचान ‘शेर–ऐ –पंजाब’ के रूप में होने लगी।
कुरान शरीफ के लिए लुटाई दौलत
एक मुसलमान खुशनवीस ने कई सालों की मेहनत के बाद सोने और चांदी से बनी कुरान शरीफ को तैयार किया। इसे लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबो से मिला लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। इसके बाद खुशनवीस की मुलाकात लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह के साथ हुई। उन्होंने बड़े सम्मान से कुरान शरीफ को उठाकर अपने मस्तक में लगाया और अपने सेनापति को आदेश दिया कि खुशनवीस जितना चाहता है उसे उतना धन दिया जाए।
किसी को नहीं दिया मृत्यु दंड
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में किसी को मृत्युदंड नहीं दिया गया, यह तथ्य अपने आप में कम आश्चर्यजनक नहीं है। रणजीत सिंह ने सदैव अपने विरोधियो के प्रति उदारता और दया का भाव रखा। जिस किसी राज्य या नवाब का राज्य जीत कर उन्होंने अपने राज्य में मिलाया उसे जीवनयापन के लिए कोई न कोई जागीर निश्चित रूप से दे दी।
लोगों के लिए बने आदर्श
27 जून 1839 में लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह ने अंतिम सांस ली। उनके शासन काल में 40 सालों तक लगातार युद्ध और संघर्ष चला इसके साथ-साथ पंजाब के आर्थिक और सामाजिक विकास में भी तेजी आई। बतौर महाराजा और उनका जीवन अपने आप में एक मिसाल और लोगों के लिए आदर्श है।