सियासी सागर को पार करने के लिए बड़े जहाज की जरूरत है और इसीलिए क्षेत्रीय कश्तियों को छोड़कर, बीजेपी का हाथ थामा है आरएलपी प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने, हालांकि इससे पहले उनकी बात कांग्रेस से भी चल रही थी, किन्तु बात बनी नहीं.
राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी में सीधी टक्कर होती रही है. क्षेत्रीय दलों का कोई बड़ा आधार रहा नहीं है. बीजेपी के ही बड़े नेता रहे- किरोड़ी लाल मीणा, घनश्याम तिवाड़ी, हनुमान बेनीवाल आदि ने अपने-अपने दलों को खड़ा करने की कोशिशें जरूर की, परन्तु आंशिक कामयाबी ही मिल पाई. किरोड़ी लाल मीणा तो विस चुनाव 2018 से पहले ही बीजेपी में चले गए, तो घनश्याम तिवाड़ी ने विस चुनाव लड़ा, लेकिन निराशा हाथ लगी, अंततः उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया.
हनुमान बेनीवाल ने विस चुनाव में ताकत दिखाई जरूर, ढाई प्रतिशत से कुछ कम वोटों के साथ 3 सीटें भी हांसिल की, परन्तु यह साफ हो गया कि अकेले दम पर कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल सकती है.
कुछ समय पहले हनुमान बेनीवाल ने कहा था कि- राज्य की 25 सीटों पर आरएलपी गठबंधन के माध्यम से अपने प्रत्याशी उतारेगी. इसके लिए बीएसपी, कम्युनिस्ट पार्टी, बीटीपी सहित अन्य दलों से महत्वपूर्ण दौर की बातचीत चल रही है.
राज्य में 25 में से 10 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां चार पार्टियों- बसपा, बीटीपी, आरएलपी और माकपा ने अपना असर दिखाया था. भरतपुर, करौली-धौलपुर, नागौर, गंगानगर, बाड़मेर, जयपुर ग्रामीण, जोधपुर, सीकर, बांसवाड़ा-डूंगरपुर, टोंक-सवाई माधोपुर सीटों पर इनका ज्यादा असर रहा और इस वक्त इनके 13 विधायक भी हैं. इन चार पार्टियों ने विस चुनाव में आठ प्रतिशत से ज्यादा, लेकिन कुल 30 लाख से कम वोट हांसिल किए थे.
बहुत जल्दी यह साफ हो गया कि क्षेत्रीय दलों के आठ-दस प्रतिशत वोटों के दम पर कोई करिश्मा नहीं दिखाया जा सकता है. लिहाजा, समय रहते हनुमान बेनीवाल ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया.
इस गठबंधन से सबसे ज्यादा फायदा हनुमान बेनीवाल को हो सकता है, एक तो उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव दिखाने का अवसर मिल सकता है, दूसरा- यदि केन्द्र में बीजेपी सरकार बनती है, तो उन्हें मंत्री पद भी मिल सकता है. इसके बाद, बीजेपी को उन क्षेत्रों में फायदा हो सकता है जहां आरएलपी का असर है. इस गठबंधन से कांग्रेस को थोड़ा नुकसान हो सकता है, लेकिन बड़ा नुकसान तीसरे मोर्चे को होगा, खासकर बीएसपी की बड़ी कामयाबी पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा.
बहरहाल, नए सियासी समीकरण ने स्पष्ट कर दिया है कि राजस्थान में क्षेत्रीय दलों के लिए संभावनाएं बेहद कमजोर हैं. वैसे भी विस चुनाव 2018 में जहां कांग्रेस ने 39 प्रतिशत से ज्यादा वोट हांसिल किए थे, बीजेपी ने 38 प्रतिशत से ज्यादा, तो निर्दलीयों ने 9 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाए थे, अर्थात- शेष दलों के पास करीब दस प्रतिशत वोट ही थे. बड़ा सवाल यह है कि- भले ही सारे क्षेत्रीय दल एक मंच पर भी क्यों न आ जाएं, आठ-दस प्रतिशत वोटों के दम पर कितनी कामयाबी मिल सकती है?