लोकसभा चुनाव 2019: नारों का जोश ठंडा पड़ा, मुद्दों की उम्र कम हो गई!
By प्रदीप द्विवेदी | Updated: April 10, 2019 05:58 IST2019-04-10T05:57:44+5:302019-04-10T05:58:20+5:30
पिछले विधानसभा चुनाव में सोशल और इमोशनल, दोनों ही तरह के मुद्दों का फायदा भाजपा को मिला था, लेकिन इस बार जहां इमोशनल मुद्दे भाजपा के साथ हैं, तो सोशल मुद्दे कांग्रेस के पास हैं.

लोकसभा चुनाव 2019: नारों का जोश ठंडा पड़ा, मुद्दों की उम्र कम हो गई!
इस बार चुनाव में न तो नए नारों में जोश है और न ही नए मुद्दों की लंबी उम्र नजर आ रही है. यही वजह है कि 2019 का लोकसभा चुनाव 2014 से थोड़ा-सा अलग नजर आ रहा है. ‘मोदी है तो मुमिकन है’ से लेकर ‘मैं भी चौकीदार’ तक के नारे-2014 के अच्छे दिन आएंगे और सबका साथ, सबका विकास जैसा असर नहीं दिखा पा रहे हैं.
विभिन्न चुनावों में नारों का असर शुरू से ही रहा है. ‘गरीबी हटाओ, इंदिरा गांधी आई है, नई रोशनी लाई है, इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं, अटल बिहारी बोल रहा है, इंदिरा शासन डोल रहा है, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ’ पर जैसे अनेक नारे हैं, जो सालोंसाल चुनावों में गुंजते रहे, परंतु इस बार ऐसे नारों का अभाव है जो चुनावी सभाओं में, चुनाव प्रचार में जोश जगा दें.
अलबत्ता, कांग्रेस का नारा-चौकीदार...., जरूर थोड़ा-बहुत असर दिखा रहा है. यही हाल मुद्दों का है. किसी घटना विशेष पर आधारित इमोशनल मुद्दे उछले जरूर हैं, लेकिन गुजरते समय के साथ ठंडे भी पड़ गए हैं, जबकि बेरोजगारी, गरीबी, किसानों की समस्याएं जैसे वास्तविक मुद्दे लंबे समय से बने हुए हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव में सोशल और इमोशनल, दोनों ही तरह के मुद्दों का फायदा भाजपा को मिला था, लेकिन इस बार जहां इमोशनल मुद्दे भाजपा के साथ हैं, तो सोशल मुद्दे कांग्रेस के पास हैं. अब चुनावी नतीजों में ही यह नजर आएगा कि जनता की नजरों में इमोशनल मुद्दे या सोशल मुद्दे, कौन से मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं?