महावीर चक्र विजेता कुलदीप सिंह चांदपुरी का मीडिया को दिया गया आखिरी इंटरव्यू, 125 जवानों से चटाई थी पाकिस्तान को धूल

By बलवंत तक्षक | Updated: November 17, 2018 16:34 IST2018-11-17T16:34:22+5:302018-11-17T16:34:22+5:30

1971 की लोंगेवाला की ऐतिहासिक लड़ाई के नायक रहे और महावीरचक्र विजेता ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी का मोहाली के एक निजी अस्पताल में शनिवार को निधन हो गया। हाल ही में लोकमत मीडिया से उनकी बातचीत हुई थी।

Kuldip Singh Chandpuri, 1971 war hero, passes away, view his last interview with media | महावीर चक्र विजेता कुलदीप सिंह चांदपुरी का मीडिया को दिया गया आखिरी इंटरव्यू, 125 जवानों से चटाई थी पाकिस्तान को धूल

महावीर चक्र विजेता कुलदीप सिंह चांदपुरी का मीडिया को दिया गया आखिरी इंटरव्यू, 125 जवानों से चटाई थी पाकिस्तान को धूल

जिन लोगों को 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध की याद है, वे 3 दिसंबर की रात को जिंदगी भर नहीं भूल सकते। ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी की आंखों के सामने तो उस रात का एक-एक लम्हा आज भी चमकता है। उन्हें लोंगोवाल पोस्ट पर कब्जे के लिए बॉर्डर पार से तेजी से बढ़ती गाड़ियों के काफिले की याद है और उस काफिले की वजह से उड़ रही धूल के गुबार की भी। साथ ही उन्हें याद है सिर्फ 125 जवानों के साथ अदम्य साहस के बल पर पाकिस्तानी सेना की रीढ़ तोड़, उसे धूल चटा देने की भी। लेकिन यह उनका बड़प्पन है कि इतना बड़ा कारनामा कर दिखाने के बावजूद जीत का श्रेय खुद को देने के लिए आज भी वे तैयार नहीं हैं।

ब्रिगेडियर चांदपुरी मानते हैं कि यह चमत्कार ऊपर वाले की दयादृष्टि और जवानों की बहादुरी की बदौलत ही संभव हो पाया। करीब 47 साल पहले लड़ी गई इस लड़ाई को फिर से याद करने के लिए जब उनसे आग्रह किया गया तो जैसे सारे दृश्य किसी फिल्म की तरह उनकी आंखों के सामने दौड़ने लगे।

यह ठीक है कि फिल्मी पर्दे पर ‘बॉर्डर’ फिल्म के हीरो सनी देओल थे, लेकिन असल जिंदगी में युद्ध के असली हीरो ब्रिगेडियर चांदपुरी ही थे, जिनकी दिलेरी, बहादुरी और दृढ़ता के दम पर उनके 125 जवानों ने पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। चांदपुरी मानते हैं कि असली हीरो वे नहीं, बल्कि फौज के वे सभी जवान हैं, जो लड़ाई के मैदान में उनके साथ थे। चांदपुरी आज भी खुद को उन जवानों के देनदार मानते हैं, जिन्होंने अपनी परवाह नहीं करते हुए, पूरे जी-जान से देश की हिफाजत की।

सीमापार से बड़ी संख्या में पाकिस्तान से आई सेना के घेरा डाल लेने के बावजूद चांदपुरी ने लोंगोवाल में अपने सैनिकों को न केवल प्रेरित किया, बल्किहौसला बढ़ाते हुए उन्हें इस तरह से एकजुट रखा कि दुश्मन को नाकों चने चबाने को मजबूर होना पड़ा। चांदपुरी कहते हैं कि मौत के सामने खड़े होने के बाद भी मुङो अपने सैनिकों पर भरोसा था और जवानों को भी मुझ पर। मैंने अपना फर्ज निभाया और जवानों ने नजदीक आती मौत को पहचान कर भी बिना भयभीत हुए सचमुच एक इतिहास रच दिया।

भारत के यह होनहार सपूत पाक सेना के लिए फौलादी दीवार साबित हुए। इतिहास के पन्नों में दर्ज लोंगोवाल पोस्ट की लड़ाई में पाक सेना को तितर-बितर कर देना, हमारे जवानों के अटल हौसले की अद्भुत कहानी है। पाकिस्तान को इस लड़ाई में जान-माल का कितना नुकसान उठाना पड़ा, इसका सही-सही अंदाज लगाना आज भी मुश्किल है।  
  ब्रिगेडियर चांदपुरी ने अपने जीवन के 32 साल फौज को दिए। इस दौरान करीब 17 साल वे जम्मू-कश्मीर में रहे। उन्हें वहां 12 हजार फुट की सुपर हाइट पर भी कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आई।

कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे से वे अच्छे से वाकिफ हैं। चांदपुरी का मानना है कि कुछ शरारती तत्व हैं, जो लोगों को भड़काते हैं, अमन भंग करते हैं, पर्दे के पीछे रहते हैं, पर सामने नहीं आते। चांदपुरी 1995 में 54 साल की उम्र में रिटायर हुए थे। उन्हें रिटायर हुए 23 साल हो गए हैं, लेकिन युद्ध के नाम पर आज भी उनकी भुजाएं उसी तरह से फड़कने लगती हैं, जैसे लोंगोवाल पोस्ट पर लड़ाई के दौरान फड़फड़ाती थीं।         

यहां प्रस्तुत है ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी से हुई बातचीत :    

सवाल: पाकिस्तानी सेना का 20 किलोमीटर का लंबा काफिला था और आपके पास सिर्फ 125 जवानों की टीम। ऐसे में 3 दिसंबर 1971 की रात को आप कैसे याद करते हैं?

जवाब: 3 दिसंबर 1971 की रात पूरे देश को याद है क्योंकि उसी दिन लड़ाई शुरू हुई थी। पाकिस्तान की तरफ से बड़ी तादाद में हथियारों से लैस सेना के जवान, जिसमें बख्तरबंद गाड़ियां और टैंक थे, हिंदुस्तान की तरफ आ रहे थे। मैं बताना चाहता हूं कि यह जो लोंगोवाल पोस्ट है, वह पाकिस्तान बॉर्डर से, हिंदुस्तान में करीब 17-18 किलोमीटर की दूरी पर है। जब 3 दिसंबर को लड़ाई शुरू हुई तो हमारी सेना की भी कुछ ऐसी ही प्लानिंग थी, जिसे हमें अभी लागू करना था।

इसे लागू करने से पहले ही 4 और 5 दिसंबर को, जब हमें पाकिस्तान जाना था, खबर मिली कि पाकिस्तान की तरफ से गाड़ियों की काफी आवाजें आ रही हैं और बहुत धूल-मिट्टी भी उड़ रही है। इसे देखकर लगा था कि गाड़ियों का बहुत बड़ा काफिला हमारी तरफ आ रहा है। लड़ाई के मैदान और लड़ाई के दिनों में यह पता नहीं चलता कि कौन किधर जा रहा है और उसका क्या प्लान है? फिर भी, हमने अनुमान लगा लिया कि पाकिस्तानी फौज हरकत में है तो क्यों और किस तरफ आ रही है।

सवाल: अचानक पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों को देख कर आप किस नतीजे पर पहुंचे?

जवाब: लोंगोवाल जो पोस्ट थी, वहां पंजाब रेजिमेंट के 125 जवान थे। मैंने 30 जवान कैप्टन धर्मवीर के साथ ऊपर बॉर्डर पर भेज दिए। मुङो मिनट टू मिनट की जानकारी चाहिए थी। इसी सिलसिले में वे बता भी रहे थे कि बॉर्डर के पार क्या हो रहा है। जब उन्होंने मुङो यह बताया कि बॉर्डर की तरफ से काफी गाड़ियां आ रही हैं तो हमने अपने लेवल पर अंदाजा लगाया कि ये जो गाड़ियां आ रही हैं, वे जाएंगी कहां। बाद में इसकी पुष्टि हो गई कि 4 बटालियन थीं, जिसमें तकरीबन 4 हजार जवान थे। उनके पास टैंकों की एक रेजिमेंट थी (एक रेजिमेंट में 45 टैंक होते हैं), उनके पास लगभग 60 टैंक थे। इसके अलावा बख्तरबंद गाड़ियों और ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में सामान लेकर, वे हिंदुस्तान में घुसने के लिए आ रहे थे। 4 दिसंबर की रात 10 बजे वे बॉर्डर के पास आ चुके थे। हमें अंदाजा हो चुका था कि ये कभी भी अंदर घुस सकते हैं और कुछ ही देर में उन्होंने बॉर्डर क्र ॉस कर लिया। उन्होंने लोंगोवाल में आ कर घेरा तो डाल लिया, लेकिन इधर हमारी भी पूरी तैयारी थी।

सवाल: लोंगोवाल पोस्ट के करीब पाकिस्तानी सेना के घेरा डाल लेने पर आपने क्या फैसला किया?

जवाब: पाक सेना ने यह घेरा रात 11-12 बजे के करीब डाल दिया था। हमारे पास पंजाब रेजिमेंट के बहादुर जवान थे, जो देश की रक्षा के लिए मर-मिटने के लिए तैयार थे। स्वतंत्र पोस्ट होने के नाते हमारे पास हर चीज उपलब्ध थी। हमारे पास हथियार, राशन-पानी और जरूरत का सारा सामान मौजूद था। हम मुकाबले के लिए तैयार थे। हमने डटकर दुश्मन का सामना किया और किसी भी हालत में हमने अपनी पोस्ट दुश्मन के हाथ नहीं लगने दी। 

सवाल: तो आपने करीब 60 टैंक नष्ट किए, 100 आम्र्ड वाहन नष्ट किए और 100 जवान मार गिराए। पाकिस्तान सेना पीठ दिखाकर भाग खड़ी हुई। दो दिन में ही युद्ध का क्लाइमेक्स! कैसे आपने यह चमत्कार कर दिखाया?

जवाब: देखिए, चमत्कार तो मैंने नहीं किया। चमत्कार जो किया, वह ऊपर वाले की दया दृष्टि या जवानों की बहादुरी से ही हो पाया। हां, मैं नहीं कहना चाहता कि मैंने या मेरी कंपनी ने पाकिस्तानी फौजियों को मार गिराया। इस लड़ाई में वायुसेना ने हमारी बहुत मदद की। मैं आपको सही बताना चाहता हूं कि जो हमारी आरसीएल गन होती हैं, इनकी लिमिटेड रेंज होती है, जो तकरीबन दो किलोमीटर तक के टारगेट को आसानी से हासिल कर सकती हैं।

दो किलोमीटर से दूर या फिर जो हमारी रेंज से बाहर होते हैं, उनकी लोकेशन जान कर हम उन पर मोर्टार दाग सकते हैं। लेकिन दूसरे दिन, सुबह 5 तारीख को जब हमारी एयरफोर्स आई तो उन्होंने दुश्मनों को भारी नुकसान पहुंचाया। इस लड़ाई में आर्मी और एयरफोर्स, दोनों ने बढ़-चढ़ भाग लिया। कंपनी कमांडर होने के नाते मैं इस जीत का सेहरा एयरफोर्स के पायलट के सिर पर बांधना चाहूंगा,  जिन्होंने टारगेट को लोकेट कर उसे खत्म किया। 

सवाल: लोंगोवाल पोस्ट की आपकी नजर में क्या अहमियत थी?

जवाब: पाकिस्तानी फौज लोंगोवाल पोस्ट पार करते हुए रामगढ़ के जरिये राजस्थान से दिल्ली पहुंचने की कोशिश में थी। अगर पूरी रात लड़ाई नहीं होती और सुबह हमें एयरफोर्स की मदद नहीं मिलती तो आगे जैसलमेर और जोधपुर तक हमारी फौज नहीं थी। ऐसे में पाक के फौजियों के लिए आगे बढ़ने में कहीं कोई रु कावट नहीं होती और राजस्थान का बहुत-सा इलाका उनके कब्जे में आ जाता।

सवाल: लड़ाई के दौरान आपके जवानों के मन में क्या चल रहा था?

जवाब: फौज में पहले ही दिन से हमें सिखाया जाता है कि दुश्मन का मुकाबला करना है। उससे लड़ना है। अपने एरिया को हर हाल में सुरक्षित रखना है। दुश्मन को मारना ही हमारा धर्म है। अगर लड़ना नहीं है तो फिर फौज की जरूरत ही क्या है?

सवाल: क्या लड़ाई के दौरान सेना के जवानों की संवेदनशीलता बची रहती है?

जवाब: मैं आपको बताता हूं, लड़ाई के दौरान पाक सेना के दो जवान बुरी तरह जख्मी हो गए थे। वे बोल भी नहीं सकते थे। हमने उनकी सेवा की। हम चाहते थे कि वे बच जाएं। हमने उन्हें पानी भी पिलाया और चाय भी। लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। आखिर वे फौजी थे। हम अपना जॉब कर रहे थे और वे अपना। 

सवाल: युद्ध में आपकी भूमिका के लिए आपको महावीर चक्र  मिला। आपकी कंपनी को 6 वीरता पुरस्कार मिले, आप अपने सैन्य जीवन पर कितना गर्व करते हैं? 

जवाब: मुङो महावीर चक्र  या मेरी टीम को जो पुरस्कार मिले हैं, इसके लिए हम सब भारत सरकार और पूरे हिंदुस्तान के बहुत आभारी हैं। उन्होंने हमारा सम्मान किया है। जब लड़ाई होती है या फिर कोई जवान लड़ाई के मैदान में जाता है तो हमारे दिमाग में ये बात नहीं होती कि हमें कोई पुरस्कार मिले। कई दफा अच्छा काम होता है, कई दफा अच्छा काम नहीं होता है। अच्छा काम होने पर सरकार जरूर इनाम देती है, जैसे कि हमें मिला है। हमें जरूर इस पर गर्व महसूस होता है। मुझे या मेरे जवानों को जो टास्क मिला, हमने उसे पूरा किया। और हर एक फौजी, जो आर्मी, एयरफोर्स या नेवी का जवान होता है, वो इस पर फा महसूस करता है कि उसकी बहादुरी को सरकार ने सम्मान दिया है। तो मैं भारत सरकार और देशवासियों का तहेदिल से इस सम्मान के लिए सत्कार करता हूं।

सवाल: निश्चित तौर पर युद्ध जीतने में आपकी निर्णायक भूमिका थी। जब आपके परिवार के पास ये खबर पहुंची कि आपकी अगुवाई में युद्ध जीत लिया गया है तो उनकी पहली प्रतिक्रि या क्या थी?

जवाब: मैं अपने परिवार में आर्मी ज्वाइन करने वाला पहला शख्स नहीं हूं। मेरा पूरा परिवार 1971 की लड़ाई में शामिल रहा है। मुङो इस बात का फा जरूर महसूस होता है कि मैं अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी का ऐसा शख्स हूं, जिसने सेना में बतौर अफसर काम किया। मेरे दादा सरदार बहादुर संत सिंह, फौज में रह चुके हैं। मेरे दो चाचा भी एयरफोर्स में फाइटर पायलट थे। 1971 की लड़ाई में दोनों को ही वीरता चक्र पुरस्कार मिला। मेरे ससुर पुलिस में थे, उनको भी बहादुरी का सम्मान मिला। मेरे साले थे, जो दुर्भाग्यवश ईस्टर्न सेक्टर में बतौर मेजर शहीद हुए थे। उनको भी मरणोपरांत वीरचक्र  मिला था। शायद ही देश में कोई दूसरा ऐसा परिवार हो, जिसे इतने बड़े पुरस्कार मिले हों और वह भी एक ही लड़ाई में।

सवाल:  युद्ध के दौरान आपके परिवार के लोगों को फिक्र तो रही होगी?

जवाब: जवानों के परिवारों को फिक्र तो होती है। वे घबराते भी हैं। लेकिन मेरे परिवार को ऐसी कोई फिक्र  नहीं रही। मैं भले ही अपने परिवार में इकलौता बेटा हूं, लेकिन मैं ऐसी तीसरी पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं, जो फौज में रही है।  

सवाल: तो फौज में शामिल होने की प्ररेणा आपको अपने परिवार से ही मिली?

जवाब:  छोटी उम्र से ही मुङो फौज में जाने का बहुत शौक था। मेरे को हथियार अच्छे लगते थे। हथियार से फायर करना बहुत अच्छा लगता था। फौजी जब ट्रेनिंग करने आते थे, मैं उनको देखता रहता था। यह भी देखता रहता था कि जवान कैसे मोर्चे खोद रहे हैं। मैंने उसी समय ठान लिया था कि मैं फौज में ही जाऊंगा।

दूसरा, हमारे परिवार में यह परंपरा भी चली आ रही थी। मेरे अंकल एयरफोर्स में अफसर थे। जब वे छुट्टी पर घर आते थे तो उनसे मुङो बहुत प्ररेणा मिलती थी। उन दिनों, आज और अगर मरने के बाद भी, मुङो मौका मिले तो मैं फौज में ही जाना पसंद करूंगा।

सवाल:लोंगोवाल युद्ध की प्रामाणिकता और अपने सम्मान की रक्षा के लिए बाद में आपको अदालत में भी जंग लड़नी पड़ी। कुछ लोगों ने सवाल उठाए थे। मैदानी जंग के बाद अदालती जंग? आपने क्या महसूस किया?

जवाब: किसी को सवाल उठाने के लिए न मैं रोक सकता हूं, न कोई दूसरा रोक सकता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें दूसरों को देख कर अच्छा नहीं लगता। जहां तक हमारे पुरस्कार या जंग का सवाल है, हमारे सीनियर अफसर वहां मौजूद थे, जो उन्हें अच्छा लगा, वही उन्होंने लिखा और उनकी ही सिफारिश पर अवॉर्ड मिले हैं।

सवाल: तो यह बेवजह खड़ा किया गया विवाद था?

जवाब: कोई भी किसी पर गलत आरोप लगा सकता है। मेरे सीनियर जो उस समय के मेरे कमांडर थे, अगर वो कोई सवाल उठाएं तो मैं मानने को तैयार हूं। लेकिन जो लोग उस रात लोंगोवाल में थे ही नहीं, उस इलाके में भी नहीं थे, जो लोग करीब 100-150 किलोमीटर दूर पीछे बैठे थे, अगर वे सवाल उठाएं तो इसका कोई मतलब नहीं है। और न ही मैंने कभी इसकी कोई ज्यादा फिक्र  की।

सवाल: सीमा पार से आतंकी गतिविधियां जारी हैं, घुसपैठ की कोशिशें भी लगातार जारी रहती हैं। इस पर रोक के लिए आप क्या सुझाव देंगे?

जवाब: मैंने 32 साल फौज की नौकरी की है। तकरीबन 16-17 साल कश्मीर बॉर्डर पर गुजारे हैं। सच यही है कि घुसपैठ पर काबू तो पाया जा सकता है, लेकिन इसे 100 फीसदी रोकना नामुमकिन-सा है। हमारी बदकिस्मती यह है कि हमारे बॉर्डर पूरी तरफ से मार्क नहीं हैं। मुश्किलात में भी हमारी फौज घुसपैठ को रोक रही है। फिर भी उस तरफ से कुछ न कुछ होता ही रहता है। सरकार और फौज, अपने स्तर पर कारगर कदम उठा रही है, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि उस तरफ से घुसपैठ बिल्कुल ही नहीं होगी।

 

सवाल: फौज के सामने आप क्या-क्या चुनौतियां देखते हैं?

जवाब: फौज के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि बॉर्डर पर न तो अमन है और न ही लड़ाई है। फौज जरूरत पड़ने पर देश का हमेशा साथ देती रही है और देती रहेगी। फौज का जो पहला रोल है,  वह देश की रक्षा करना ही है। चाहे मामला घुसपैठ का हो, आतंकवाद का हो, चाहे भूकंप आए, चाहे बाढ़ आए या फिर मामला प्राकृतिक आपदा का हो, फौज हमेशा सहायता के लिए तैयार रही है।

आपको याद होगा, जब कश्मीर में बाढ़ आई थी तो सेना ने बहुत अच्छा काम किया था। ये सब चुनौतियां ही हैं, जिनका सामना करने के लिए हमारे जवान हमेशा तैयार रहते हैं। उन्हें ट्रेनिंग ही इस तरह से दी जाती है कि वे हर तरह का काम कर सकें। वे आम नागरिकों को बचाने के लिए जहां कश्ती चलाते हैं, वहीं राइफल और टैंक भी चलाते हैं।

सवाल: सेना के लिए साजो-सामान की खरीद में अक्सर जो देरी होती है, उस मुकाबले में हम अपने आपको कहां पाते हैं?

जवाब: देखिए, सेना हमेशा अपनी जरूरत बताती है कि उसे यह साजो- सामान चाहिए। सामान खरीदने और उसके लिए पैसे मुहैया करवाना सरकार का काम है। अचानक से जरूरत पड़ने पर, जब हमें वह सामान उपलब्ध नहीं होगा, तो थोड़ा-बहुत उसका प्रभाव जरूर पड़ेगा। जब हम हथियारों का चयन करते हैं तो देखते हैं कि हमारे दुश्मनों के पास कौन-सी बख्तरबंद गाड़ियां हैं, उनके पास कैसे जहाज हैं, कैसी शिप हैं? हमारी कोशिश रहती है कि हमारे पास उनसे बेहतर सामान उपलब्ध हो, ताकि हम उनका मुकाबला कर सकें, हमारे चीफ को इस बात का पूरा इल्म रहता है कि हमें कौन-सी चीज कब चाहिए। हथियारों की जो वल्र्ड मार्केट है, वह बहुत महंगी है। ऑर्डर करने, सामान बनवाने में और सप्लाई में खासा वक्त लग जाता है। फिर भी हमारी फौज हर परिस्थिति में मुकाबले के लिए पूरी तरह से तैयार है।

सवाल: इससे पहले ऐसी कोई लड़ाई आपको याद है?

जवाब: इससे पहले ऐसी ही सारागढ़ी की लड़ाई के बारे में मैं आपको बताना चाहता हूं। सिख रेजिमेंट में 22 जवान थे, जिन्होंने कई हजार कबाइलियों का बड़ी बहादुरी से जम कर मुकाबला किया था। इस लड़ाई में यह सभी 22 जवान शहीद होने तक मैदान में डटे रहे।

सवाल: आपने  बॉर्डर फिल्म देखी है? फिल्म देखने के बाद आपके परिवार की क्या प्रतिक्रि या थी?

जवाब: रिलीज होने के 10 दिन बाद मैंने बॉर्डर फिल्म देखी थी। मेरे परिवार के सभी सदस्यों ने फिल्म रिलीज होने के पहले ही दिन पहला शो देखा था। परिवार के लोगों ने ही मुझ पर दबाव बनाया कि बॉर्डर फिल्म लगी है, जरूर देखकर आओ। मैंने उनसे कहा कि मैंने तो यह लड़ाई वास्तव में लड़ी है। फिर क्या फिल्म देखूं? लेकिन परिवार के लोगों की जिद पर बॉर्डर देखी। हां, अब भी जब टीवी पर कभी बॉर्डर  फिल्म आती है तो मेरे घर में परिवार के सभी सदस्य और रिश्तेदार, इस फिल्म को बड़े चाव से देखते हैं।

सवाल: फिल्म के बारे में ऐसी कोई बात बताइए, जिसके बारे में लोगों को अभी तक जानकारी नहीं हो?

जवाब: बॉर्डर फिल्म बनाने से क्या फायदा हुआ और क्या नुकसान, यह तो निर्माता-निर्देशक ही बता सकते हैं, लेकिन लोगों को शायद यह पता नहीं होगा कि बॉर्डर फिल्म के निर्माता जे।पी। दत्ता के भाई दीपक दत्ता एयर फोर्स में फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे। लड़ाई में हमारी मदद के लिए 5 तारीख को एयरफोर्स के जो जहाज आए थे, उनमें से एक में दीपक दत्ता भी थे। इसमें कोई शक नहीं कि इस लड़ाई में हमें विजय दिलाने में उनका बड़ा अहम योगदान था। 

सवाल: युद्ध की पृष्ठभूमि पर क्या और भी फिल्में बनाई जानी चाहिए?

जवाब:  मैं चाहूंगा कि ऐसी फिल्में जरूर बननी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों को फौज के बारे में, अपने जवानों के बारे में और अपने देश के बारे में सही जानकारी मिल सके। ऐसी फिल्मों से युवाओं को फौज में आने की प्रेरणा मिल सकेगी।

सवाल: गांवों में, शहरों में सेना के प्रति युवाओं में काफी दिलचस्पी है। जब कभी फौज की भर्ती निकलती है, युवकों की लंबी-लंबी लाइनें लग जाती हैं। देश के नौजवानों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

जवाब: मैं खुद पंजाब रेजिमेंट का कमांडेंट रहा हूं, वहां अगर हमें 100 भर्तियां करनी होती थीं तो 10 हजार युवा पहुंच जाते थे। आज के युवाओं को मैं यही संदेश देना चाहूंगा कि आर्मी एक बहुत बड़ा संगठन है, ईमानदार है। सेना के जवानों को पहले के मुकाबले अब ज्यादा सुविधाएं दी जा रही हैं। मेरे हिसाब से युवाओं को अपना करियर चुनने के लिए यह एक बहुत बढ़िया प्रोफेशन है। मैं यह कहना चाहता हूं कि युवाओं को अफसर बनना चाहिए, चाहे नेवी हो, एयरफोर्स हो या आर्मी हो। जिनकी क्वालिफिकेशन ज्यादा नहीं होती वे जवान भर्ती हो सकते हैं,  अब तो पहले की तुलना में फौज में वेतन-भत्ते भी ज्यादा हैं।

सवाल: आपके सैन्य जीवन पर ‘बॉर्डर’ फिल्म बनी है। क्या आप मानते हैं कि इस फिल्म ने भी नौजवानों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित    किया है?

जवाब: बॉर्डर फिल्म अपने किस्म की पहली हिंदुस्तानी फिल्म है जो एक सच्ची लड़ाई पर आधारित है। जहां तक नौजवानों का सवाल है, मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि इस फिल्म ने आम जनता को दिखा दिया कि हिंदुस्तानी फौज की लड़ने की क्षमता क्या है। कोई भी इनसान यह मानने को तैयार नहीं हो सकता कि हमारे पास सिर्फ 125 जवान थे और उधर से हजारों सैनिकों के साथ 60 टैंक आए थे। फिर भी हमारे जवानों ने अपने हिम्मत और हौसले से पाक सेना को शिकस्त दी। सच पर आधारित इस फिल्म ने नौजवानों को सचमुच फौज में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। मुङो बहुत-सी चिट्ठियां मिलती रही हैं और बहुत-सी टेलीफोन कॉल्स भी आती रही हैं।

सवाल: आप पंजाब से हैं। पंजाब में इस समय नशे का बड़ा बोलबाला है। इस बारे में क्या कहना है?

जवाब: बच्चों के लिए मां-बाप से बड़ा कोई गाइड नहीं हो सकता। उन्हें ही बताना चाहिए कि बच्चों के लिए नशा बड़ा नुकसानदायक है। बच्चे इनोसेंट होते हैं,  बच्चे गलत रास्ते पर जाएं, इससे पहले ही उनका ध्यान पढ़ाई के साथ-साथ धर्म और खेलों की तरफ मोड़ देना चाहिए। बच्चों को उनके करियर के बारे में भी लगातार सचेत करते रहना चाहिए

सवाल: आपके पास कोई ऐसा अनुभव है, जब नशे की गिरफ्त में आए किसी युवक से आपका वास्ता पड़ा हो?

जवाब: कई बार भर्ती के दौरान मैं खुद मौके पर मौजूद रहता था। बड़ी संख्या में नौजवान आते थे। कद-काठी और शक्ल-सूरत से अच्छे होते थे। लेकिन उनमें कई युवक 18 साल की उम्र में ही ट्रैक के चार चक्कर लगा पाने में भी नाकाम रहते थे। उनके मां-बाप से पूछते कि क्या हुआ बच्चे को तो उनका जवाब होता था, पता नहीं क्या खाता है?शायद, नशे में पड़ गया है। क्या ऐसे युवक फौज में भर्ती के लिए फिट हो सकते हैं? 

सवाल: फौज से रिटायर होने के बाद क्या आपको कभी राजनीति में आने का ख्याल नहीं आया?

जवाब: मैं फौजी हूं। अगर कोई मुझ से मेरी पसंद पूछे तो मैं नेता के बजाय फौजी बनना ही पसंद करूंगा। हालांकि चंडीगढ़ प्रशासन की तरफ से मुङो एक बार नगर निगम में पार्षद के तौर पर मनोनीत किया गया था। इस दौरान मैंने काफी-कुछ सीखा और खूब एन्जॉय भी किया। लेकिन आज भी फौज ही मेरी पहली पसंद है।   

Web Title: Kuldip Singh Chandpuri, 1971 war hero, passes away, view his last interview with media

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