पाकिस्तानी शायर जिसकी नज्म भारतीय प्रोटेस्ट की लोकप्रिय आवाज बन चुकी है, पढ़ें पूरा गीत

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 21, 2019 17:18 IST2019-12-21T17:03:35+5:302019-12-21T17:18:34+5:30

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय हो या जामिया मिल्लिया इस्लामिया हुकूमत के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन में एक नज्म बार-बार गूँजती है - ऐसे दस्तूर को, सुबह-ए-बेनूर को मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता। यह नज्म इंकलाबी शायर हबीब जालिब ने लिखी है जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान की अवाम को पसंदीदा बगावती तराना बन चुकी है। पढ़िए हबीब जालिब की यह पूरी नज्म।

habib jalib dastoor full poem has become popular voice of Indian protest | पाकिस्तानी शायर जिसकी नज्म भारतीय प्रोटेस्ट की लोकप्रिय आवाज बन चुकी है, पढ़ें पूरा गीत

हबीब जालिब का जन्म 24 मार्च 1928 को पंजाब के होशियारपुर में हुआ था।

हबीब जालिब का जन्म 24 मार्च 1928 के पंजाब को होशियारपुर में हुआ। 1964 में पहली बार वो पाकिस्तान स्थित कॉपी हाउस में गिरफ्तार किये गये। 12 मार्च 1964 को 64 साल की उम्र में गुजरने से पहले तक हबीब जालिब के बारे में यह मशहूर हो चुका था कि जितनी जिंदगी उन्होंने जेल के बार गुजारी है उतनी ही जेल के अंदर गुजारी है। 

हबीब जालिब को पहली बार पाकिस्तानी तानाशाह अयूब खान का विरोध करने के कारण गिरफ्तार किया गया था।  हबीब जालिब ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि 'कुछ बात है कि हुकूमत हमेशा मुझे हास्यास्पद कारणों से गिरफ्तार करती रही है।' हबीब जालिब ने पाकिस्तानी तानाशाह ज़िया-उल-हक़ के खिलाफ जो नज्म लिखी वह भी काफी मशहूर हुई। ज़िया हुकूमत ने हबीब जालिब को जेल में डाल दिया।

हबीब जालिब ने ज़िया-उल-हक़ के खिलाफ जो नज्म लिखी थी उसके कुछ पंक्तियां यूँ थीं- 

हक़ बात पर कोड़े और जिंदां (जेल)
बातिल के शिकंजे में है ये जाँ
इंसान हैं कि सहमे बैठे हैं
खूंखार दरिंदे हैं रक्शां
इस जुल्मो सितम को लुत्फो करम 
इस दुख को दवा क्या लिखना, क्या लिखना

जब पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की सरकार आई तो जालिब को रिहा किया गया। लेकिन तबीयत से बागी जालिब ने बेनजीर भुट्टो के खिलाफ भी बगावती नज्म लिखी। बहरहाल, आप हबीब जालिब की वो नज्म पढ़ें जो भारत में सबसे ज्यादा मकबूल है।

नीचे पढ़ें हबीब जालिब की नज्म दस्तूर (संविधान)

दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर हर मसलहत के पले
 
ऐसे दस्तूर को सुबह-ए-बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार[3] से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ डराते हो जिन्दाँ की दीवार से
 
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
 
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
 
तूमने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
 
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

नीचे सुनें हबीब जालिब की आवाज में उनकी नज्म, 'दस्तूर'

Web Title: habib jalib dastoor full poem has become popular voice of Indian protest

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