दिलीप कुमार : श्वेत-श्याम फिल्मों से लेकर रंगीन सिनेमा तक भारत के विकास के साथ आगे बढ़ा सफर

By भाषा | Updated: July 7, 2021 14:31 IST2021-07-07T14:31:14+5:302021-07-07T14:31:14+5:30

Dilip Kumar: From black and white films to color cinema, the journey progressed with the development of India | दिलीप कुमार : श्वेत-श्याम फिल्मों से लेकर रंगीन सिनेमा तक भारत के विकास के साथ आगे बढ़ा सफर

दिलीप कुमार : श्वेत-श्याम फिल्मों से लेकर रंगीन सिनेमा तक भारत के विकास के साथ आगे बढ़ा सफर

मुंबई, सात जुलाई बुधवार की सुबह केवल हिंदुस्तानी फिल्म जगत के लिए नहीं बल्कि उन लाखों, करोड़ों फिल्म प्रेमियों के लिए दिल तोड़ देने वाली खबर लाई जब पता चला कि उनके चहेते अदाकार दिलीप कुमार ने 98 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। श्वेत-श्याम फिल्मों से सिनेकला के रंगीन होने तक के सफर को अपनी अलग-अलग भूमिकाओं में जीने वाले विचारशील और भावुक नायक के जीवन का सफर और कॅरियर भी देश के विकास के साथ-साथ नये मुकाम हासिल करता हुआ आगे बढ़ा था।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज कुछ महान हस्तियों में शुमार दिलीप कुमार की “देवदास”, “अंदाज” और हिंदुस्तान में मोहब्बत की कहानी कहने वाली सबसे बड़ी फिल्मों में शामिल “मुगल-ए-आजम” की सोच में डूबे रहने वाले प्रेमी की भूमिकाओं के साथ ही ट्रेजेडी या त्रासदी उनके नाम के साथ जुड़ गई थी। लेकिन “ट्रेजेडी किंग” के नाम से मशहूर हुए कुमार ने अपनी पहचान इससे कहीं बड़ी बनाई।

आजादी से तीन साल पहले अपनी पहली फिल्म “ज्वार भाटा” (1944) से सिनेमा की दुनिया में कदम रखने वाले और 1998 में आखिरी बार “लाल किला” में बड़े पर्दे पर नजर आने वाले दिलीप साहब के किरदार समय के साथ ढलते रहे। 1940 और 1950 के दशक में उन्होंने उस समय नौजवान भारत के सामने मौजूं समस्याओं को दर्शाने वाली ‘शहीद’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों में काम किया और नेहरुवादी नायक के रूप में उभरे, तो 1960 के दशक में “गंगा जमना” जैसी फिल्मों के साथ उन्होंने आदर्शवाद की दीवारों को तोड़ा और फिल्म में उनकी गु्स्से से भरे नायक की भूमिका 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन की ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि में नजर आई। इस वक्त तक कुमार चरित्र भूमिकाएं करने लगे थे। उन्होंने ‘राम और श्याम’ तथा ‘गोपी’ जैसी फिल्मों से यह भी साबित किया कि दर्शकों को हंसा-हंसाकर लोटपोट करने का जादू भी उन्हें आता है।

राज कपूर और देव आनंद के साथ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति के रूप में दिलीप कुमार ने बहुत कम फिल्मों में ही अपने कालजयी अभिनय से अपना सिक्का जमाया था और हिंदी सिनेमा के कई अदाकार उन्हें अपना आदर्श मानते रहे हैं। राज कपूर और देव आनंद के उलट, वह कभी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में नहीं उतरे और अभिनय तक ही सिमटे रहे जो उनका पहला और आखिरी जुनून था।

कुमार बहुत सी भाषाओं के जानकार थे। उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, मराठी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री रहीं सायरा ने दिलीप साहब की आत्मकथा ‘वजूद और परछाई’ (‘द सब्स्टांस एंड द शैडो’) की प्रस्तावना में लिखा है, “उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों तथा वर्गों के प्रति उनके सम्मान से निकलती हैं।’’

1990 के दशक की शुरुआत में, जब मुंबई सांप्रदायिक हिंसा की गिरफ्त में था, तब कुमार शांति के प्रतीक के रूप में उभरे थे। शहर में 1993 के दंगों के दौरान, किस तरह उन्होंने अपने घर के दरवाजे खोल दिए थे और राहत के कामों का केंद्र बना दिया था, इसके बहुत से किस्से हैं।

उनके नाम कई पुरस्कार रहे, जिनमें 1991 में उन्हें पद्म भूषण और 2015 में पद्म विभूषण से सम्मानित किये जाने के साथ ही 1994 में प्रदत्त दादासाहेब फाल्के सम्मान शामिल है। वह राज्यसभा में भी एक कार्यकाल के लिए रहे थे और 1980 में उन्होंने बॉम्बे के शेरिफ के तौर पर भी सेवा दी थी।

1998 में उन्हें पाकिस्तान सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से सम्मानित किया गया था जिसे लेकर कुछ विवाद भी हुआ था। उसके बाद वाले साल में, दोनों देशों के बीच करगिल की लड़ाई छिड़ गयी थी और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने मांग की कि दिलीप कुमार अपना पाकिस्तानी पुरस्कार वापस कर दें। लेकिन कुमार ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इस मसले पर मुलाकात भी की थी।

नसीरुद्दीन शाह, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान जैसे अनेक दिग्गज अभिनेताओं को प्रेरित करने वाले कुमार अपनी समकालीन पीढ़ी के लोगों के साथ ही नयी पीढ़ी के सिनेमा प्रेमियों की मोहब्बत पाते रहे।

दिलीप कुमार का काम महज तकरीबन 60 फिल्मों तक सीमित रहा लेकिन उनमें से अधिकतर कालजयी फिल्मों के रूप में जानी जाती हैं। इनमें ‘देवदास’, ‘मधुमति’, ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘नया दौर’ जैसे नाम शामिल हैं। अपन कॅरियर की दूसरी पारी में उन्होंने ‘‘क्रांति”, ‘‘कर्मा” और “शक्ति” जैसी फिल्मों में यादगार चरित्र भूमिकाएं निभाईं। समकालीन हिंदी सिनेमा में शाहरुख, सलमान और आमिर जैसे खान अभिनेताओं की चर्चा में अक्सर यह भी कहा जाता है कि खानों में सबसे पहले अभिनेता दिलीप कुमार यानी यूसुफ खान थे।

पेशावर में 11 दिसंबर, 1922 को पठान फल कारोबारी गुलाम सरवर के यहां जन्मे मोहम्मद यूसुफ खान को दिलीप कुमार के रूप में नयी पहचान देविका रानी ने दी थी जो उस वक्त बॉम्बे टॉकीज की प्रमुख होती थीं और उनका मानना था कि रुपहले पर्दे पर अलग नाम होने से दर्शकों का ज्यादा प्यार मिलेगा। और ऐसा हुआ भी। कुमार की पहली फिल्म बॉम्बे टॉकीज की “ज्वार भाटा’’ की सफलता पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया लेकिन 1947 में आई “जुगनू” के साथ दिलीप साहब भारतीय सिनेमा जगत में अपने पांव अंगद की तरह जमा चुके थे।

‘‘जुगनू” के रिलीज होने तक, उनके अभिनय की बात से उनके परिवार से छिपी रही। एक बार पृथ्वीराज कपूर के पिता और राज कपूर के दादा, बशेश्वरनाथ जी ने दिलीप कुमार के पिता का ध्यान “जुगनू’’ के पोस्टर की तरफ खींचा था।

दोनों परिवार पेशावर में पड़ोसी थे और वर्षों तक उनके दोस्ताना संबंध रहे थे। और जब यूसुफ से निराश हुए उनके पिता ने उनसे बात करनी बंद कर दी तो वह राज कपूर के पास आए। राज ने अपने पिता पृथ्वीराज से हस्तक्षेप करने के लिए कहा और आखिर में सब ठीक हुआ।

बहरहाल कुमार को शोहरत बहुत आसानी से नहीं मिली थी। उनकी कई कहानियों में दु:ख और त्रासदी भी शामिल मिलते हैं। एक वक्त पर, उनकी फिल्मी जिंदगी ने उनकी असल जिंदगी को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। वह 1950 के दशक में अवसाद के वक्त से गुजरे और उन्होंने ‘‘राम और श्याम” और “गोपी’’ जैसी फिल्मों में कम गंभीर किरदार निभाने का फैसला किया। इस बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है।

अपना जीवन नितांत निजी रखने के पक्षधर रहे कुमार का नाम कुछेक बार मधुबाला समेत उनकी फिल्म की नायिकाओं के साथ जोड़ा जाता रहा। कई साल बाद, उनकी मुलाकात एक पार्टी में सायरा बानो के साथ हुई। तब वह 45 के और सायरा महज 22 साल की थीं। उसके बाद दोनों ने शादी कर ली और 50 वर्ष से ज्यादा वक्त से वैवाहिक जीवन में साथ थे। 1981 में जब कुमार ने हैदराबाद की अस्मा साहिबा से शादी की थी तो कोहराम मच गया था। यह शादी दो साल तक चली थी।

इस एक अध्याय को छोड़ दें तो सायरा बानो, कुमार के जीवन का अभिन्न हिस्सा बनी रहीं जिन्होंने हमेशा उनका साथ निभाया और जब वह बातचीत करने में असमर्थ हो गए तो उनकी तरफ से बयान भी देती रहीं। वह आखिरी वक्त तक हमेशा दिलीप साहब के साथ दिखती रहीं।

कुमार के निधन के साथ ही हिंदी फिल्म सिनेमा के एक युग का अवसान हो गया। लेकिन महान कलाकार दिलीप कुमार हमेशा जिंदा रहेंगे - न सिर्फ फिल्मों के अभिलेखों, इतिहास में बल्कि उनके चाहने वाले करोड़ों दिलों में भी।

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