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दिल्ली: बंदरों की आबादी रोकने के लिए करोड़ों खर्च, जिम्मेदारी को लेकर नगर निगम और वन्य विभाग में कन्फ्यूजन

By भाषा | Published: July 11, 2019 2:49 PM

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रिहायशी इलाकों में बंदरों को पकड़ने पर करोंड़ों रुपये खर्च करने और उन्हें असोला वन्यजीव अभयारण्य भेजने के बावजूद राष्ट्रीय राजधानी में पिछले साल बंदरों के काटने के 950 मामले और दो लोगों के मरने का मामला दर्ज किया गया, जो दिखाते हैं कि बंदरों के खतरे को रोकने के प्रयास नाकाफी रहे। कई लोगों के मुताबिक बंदरों की समस्या इसलिए बनी हुई है क्योंकि इन्हें पकड़ने और इनके बंध्याकरण के लिये नगर निगम या वन्य विभाग कौन जिम्मेदार है, इसे लेकर अब भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से बंदरों को पकड़ने के लिये पिंजरा मुहैया कराने तथा नगर निगमों को इसे अलग-अलग स्थानों पर रखने का निर्देश दिया था। अदालत ने अधिकारियों को पकड़े गये इन बंदरों को असोला अभयारण्य में छोड़ने तथा वन विभाग को उन्हें भोजन उपलब्ध कराने का निर्देश दिया था ताकि ये बंदर वहां से कहीं और नहीं जायें। मानव बस्तियों में बंदरों के प्रवेश को रोकने के लिये अदालत ने अधिकारियों को वैसी जगहों के बाहरी क्षेत्र में 15 फुट ऊंची दीवार बनाने का भी निर्देश दिया था जहां बंदरों को भेजा गया है।

अधिकारियों ने बताया कि 20,000 से अधिक बंदरों को अभयारण्य भेजा गया लेकिन मानव बस्तियों में कितने बंदर इधर-उधर भटक रहे हैं, इसका कोई वास्तविक आंकड़ा नहीं है। इसके अलावा असोला अभयारण्य में भेजे गये बंदर भी मानव बस्तियों में वापस आ जाते हैं क्योंकि दीवारों में लोहे का ढांचा बना है जिससे ये बंदर आसानी से दीवार से निकल आते हैं। 2018 में नगर निगमों ने कुल 878 बंदरों को पकड़ा था जिसमें पूर्वी दिल्ली नगर निगम (ईडीएमसी) ने सिर्फ 20 बंदर पकड़े थे।

दक्षिण दिल्ली नगर निगम के एक अधिकारी ने बताया कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के तहत ‘रिसस मकाक’ एक संरक्षित पशु है, इसका मतलब है कि बंदरों को पकड़ने और उन्हें अभयारण्य भेजने की जिम्मेदारी वन विभाग की है। अधिकारी ने बताया कि इसलिए उच्च न्यायालय के निर्देश के कई अर्थ हैं। इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि बंदरों को पकड़ने और उनके बंध्याकरण के लिये कौन जिम्मेदार है।

वहीं वन विभाग की दलील है कि मानव बस्तियों में पाये जाने वाले बंदर घरेलू हो जाते हैं, ऐसे में वे वन्य जीव नहीं रह जाते हैं। दिल्ली के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ईश्वर सिंह ने 2018 में बंदरों की आबादी रोकने के लिये उनके लैप्रोस्कोपिक बंध्याकरण का सुझाव दिया था। इसके बाद उच्च न्यायालय के निर्देश पर इस संबंध में एक समिति भी गठित की गयी जिसमें निगम संस्थाओं और डीडीए के अधिकारी, दिल्ली के मुख्य वन संरक्षक और गैर सरकारी संगठन एसओएस की सदस्य सोनिया घोष शामिल थीं। एसओएस ने आगरा में आगरा विकास प्राधिकरण के साथ मिलकर बंदरों के बंध्याकरण परियोजना का सर्वेक्षण किया था।

एक अधिकारी ने बताया कि बंदरों के बंध्याकरण के संबंध में वन विभाग द्वारा टेंडर निकाले जाने के बाद पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध की वजह से कोई आगे नहीं आया। पशु अधिकार कार्यकर्ता कुत्तों के बंध्याकरण का तो प्रस्ताव दे रहे हैं लेकिन वे बंदरों की सर्जरी का विरोध करते हैं। पशु अधिकार कार्यकर्ता गौरी मौलेखी की दलील है कि बंध्याकरण से बंदर ज्यादा आक्रामक हो सकते हैं। इसके बजाय वह बंदरों की आबादी को रोकने के लिये उनके गर्भनिरोधक टीकाकरण का समर्थन करती हैं। सरकार ने इस संबंध में राष्ट्रीय प्रतिरक्षाविज्ञान संस्थान और भारतीय वन्यजीव संस्थान को कोष जारी किया है जो इस टीके को विकसित कर रहे हैं। 

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