अदालती फैसले हिंदी में हों: वेदप्रताप वैदिक
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 1, 2018 06:34 AM2018-07-01T06:34:13+5:302018-07-01T06:34:13+5:30
किसी भी शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्र की अदालतें विदेशी भाषा में काम नहीं करतीं लेकिन भारत की तरह जो पूर्व गुलाम देश हैं, उनके कानून विदेशी भाषाओं में बनते हैं और मुकदमों की बहस और फैसले भी विदेशी भाषा में होते हैं जैसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मॉरिशस आदि!
आजादी के 70 साल बाद भी हमारा देश अंग्रेजी भाषा का गुलाम है। किसी भी शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्र की अदालतें विदेशी भाषा में काम नहीं करतीं लेकिन भारत की तरह जो पूर्व गुलाम देश हैं, उनके कानून विदेशी भाषाओं में बनते हैं और मुकदमों की बहस और फैसले भी विदेशी भाषा में होते हैं जैसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मॉरिशस आदि! भारत की अदालतें यदि अपना सारा कामकाज हिंदी में करें तो उन पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है, लेकिन भारत की संसद ही अपने कानून अंग्रेजी में बनाती है।
हालांकि कुछ अपवाद भी हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के कुछ जजों ने अपने फैसले हिंदी में दिए हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रेमशंकर गुप्ता का नाम इस बारे में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। लेकिन अब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक साहसिक और सराहनीय फैसला दिया है। मनीष वशिष्ठ नामक एक वकील की याचिका पर उसने तय किया है कि उस अदालत के सभी फैसलों का हिंदी अनुवाद उपलब्ध करवाया जाएगा। यह फैसला न्यायमूर्ति एम।एम।एस। बेदी और न्यायमूर्ति हरिपाल वर्मा ने दिया है।
मैं इन दोनों न्यायाधीशों और मनीष वशिष्ठ का अभिनंदन करता हूं, लेकिन इनसे यह भी पूछता हूं कि आप अपने फैसले और बहस भी मूल हिंदी में क्यों नहीं करते? अनुवाद क्यों करते हैं? कई बार अनुवाद तो मूल से भी ज्यादा मुश्किल होता है। हमारा मकसद तो यह है कि बहस और फैसले वादी और प्रतिवादी को भी समझ में आएं। वे उसके लिए जादूटोना नहीं बने रहें। यदि जज अपने फैसले मूल हिंदी में लिखेंगे तो कानून भी हिंदी में बनाए जाने के लिए प्रेरणा मिलेगी। मुङो आशा है कि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का बाकी सब भी अनुसरण करेंगे।