'वे 47 दिन' में उत्साह है, खीझ है, एक बाप होने की कुलबुलाहट है

By मेघना वर्मा | Published: July 23, 2019 04:43 PM2019-07-23T16:43:53+5:302019-07-23T16:43:53+5:30

'वे 47 दिन' के राइटर ने इस बात को शुरुआत में ही बता दिया है कि किताब में कुछ काल्पनिक बातें भी हैं। मगर इतनी काल्पनिक की उन पर यकीन भी ना हो सके।

Book Review of Ve 47 Din written by VYALOK | 'वे 47 दिन' में उत्साह है, खीझ है, एक बाप होने की कुलबुलाहट है

'वे 47 दिन' में उत्साह है, खीझ है, एक बाप होने की कुलबुलाहट है

किताबें अक्सर ही आपको जिंदगी के असल मायने सिखा जाती हैं। किताब में लिखी चंद बातें या चंद लाइनें आपके दिलों के इतने करीब हो जाती हैं कि शायद ही आप उसे कभी भूल पाएं। एक किताब को लिखते हुए लेखक हमेशा अपना बेस्ट देना चाहता है। मगर लिखते-लिखते वह ऐसा खो जाता है कि शायद उसे भी सुध नहीं रहती कि किस जगह विराम चिह्न लगाना जरूरी हो गया है। आज जिस किताब की हम बात करने जा रहे हैं, वो कुछ ऐसी ही किताबों में शुमार है। चलिए हम भी चलते हैं व्यालोक के 'वे 47 दिन' के सफर पर।

इस सफर में रोमांच है, उत्साह है, खीझ है, एक बाप होने की कुलबुलाहट है, एक नागरिक होने की बेचैनी है और सरकारी तंत्र की विफलता का आख्यान है और यही इस किताब की कमजोरी भी है। किताब के जो हिस्से तड़कुल से जुड़े नहीं हैं, वह बोझिल और कहीं-कहीं बिल्कुल गैर-जरूरी लगने लगते हैं।

ये है कहानी

वे 47 दिन की कहानी है एक बाप और बेटे की, जो बिहार में रहते हैं। बेटा जिसका नाम तड़कुल और बाप जिसका नाम स्वामी। तड़कुल के जन्म के बाद से ही उसे निमोनिया हो जाता है। हालत यहां तक खराब है कि बेटे को एक से दूसरे अस्पताल रेफर कर दिया जाता है, जहां उसे डॉक्टर भर्ती करने से मना कर देता है। इसके बाद कहानी शुरू होती है स्वामी की जो अपने बेटे को किस तरह बचाता है। 

बिहार में बारिश के समय के हालात हो या बिहार की मेडिकल सुविधाओं की धांधली। व्यालोक ने इस पूरी कहानी में सरकार और उनकी दी हुई कुछ सुविधाओं की जमीनी हकीकत को दिखाया है। 

एक किताब में पद्य के साथ गद्य भी

व्यालोक अपनी ही किताब में इतने रम गए कि सिर्फ लेख के साथ उन्होंने बीच-बीच में काव्य भी लिख दिया। किताब पढ़ते हुए कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे फिल्म के पीछे बैकग्राउंड म्यूजिक चल रहा हो। शुरू के कुछ काव्य तो आप पढ़ेंगे मगर आगे चलकर ये थोड़ा पकाऊ सा लगने लगता है। 

हिंग्लिश से चिढ़ मगर इस्तेमाल भी उसी का

लेखक की भूमिका 'सत्य कहौं' को पढ़िएगा तो आपको मालूम चलेगा कि उन्हें आज के साहित्य से कुछ खासा प्यार नहीं दिखता। लेखक को चिढ़ है कि आज-कल साहित्य हिंग्लिश माने इंग्लिश और हिंदी दोनों भाषा को मिला कर लिखा जाता है। मगर इतनी खीझ के बाद भी व्यालोक ने अपनी किताब में हिंग्लिश शब्दों के प्रयोग से पूरी तरह बच नहीं सके हैं। 

जरूरत से 'अतिरिक्त'

वे 47 दिन को पढ़ते हुए एक समय ऐसा भी आएगा कि आपको कुछ बातें जबरदस्ती घुसाई हुईं सी लगेंगी। ऐसा लगेगा जैसे अगर इस बात का जिक्र नहीं किया जाता तो भी किताब का मतलब पूरा हो जाता। जैसे किताब में कई जगह गीता और श्रीकृष्ण का जिक्र है। जैसे स्वामी की फेसबुक पोस्ट कई जगह आपको उबाऊ सा लगने लगता है। 

अब पूरे 47 दिनों बाद तड़कुल बचता है या नहीं यह जानने के लिए आपको पढ़नी पड़ेगी ये किताब। ब्लू रोज पब्लिकेशन की इस किताब का कवर पेज पल्लवी पोरवाल ने किया है। किताब की कीमत 200 रुपये है।

Web Title: Book Review of Ve 47 Din written by VYALOK

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