Ayodhya Verdict: जानिए किसने दिया रामलला को पक्षकार बनाने का प्रस्ताव, जिससे दूर हुईं कई कानूनी अड़चने
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 10, 2019 08:16 AM2019-11-10T08:16:04+5:302019-11-10T08:16:04+5:30
Ayodhya Verdict: हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल पहली बार बतौर भगवान श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर 1 जुलाई 1989 को भगवान का दावा करने की कोशिश की.
भले ही अयोध्या मामले में फैसला रामलला के पक्ष में आया हो, लेकिन हकीकत यह है कि हिंदू पक्ष को भगवान श्रीराम यानी आज के रामलला विराजमान की कानूनी खासियत समझने में 104 साल लग गए. अयोध्या जमीन पर मालिकाना हक को लेकर औपचारिक कानूनी लड़ाई 1885 में शुरू हुई थी, लेकिन हिंदू पक्ष ने इसके 104 साल बाद 1989 में रामलला विराजमान को भी एक पक्ष बनाने का निर्णय किया था. हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल पहली बार बतौर भगवान श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर 1 जुलाई 1989 को भगवान का दावा करने की कोशिश की.
इससे पहले 1885 में अयोध्या निवासी रघुबर दास ने मस्जिद के ठीक बाहर स्थित चबूतरे पर एक मंदिर बनाने की इजाजत मांगी थी. अयोध्या निवासी इस जगह को राम चबूतरा कहते थे, लेकिन एक हिंदू सब जज ने इसकी इजाजत नहीं दी. वैसे, रामलला विराजमान को भी पक्षकार बनाने की जरूरत प्रसिद्ध वकील और भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल लाल नारायण सिन्हा ने बताई थी. उन्होंने हिंदू पक्षकारों को समझाया कि अगर वे केस में भगवान को भी पार्टी बनाते हैं, तो इससे कानूनी अड़चनें दूर होंगी.
यह समझा जा रहा था कि मुस्लिम परिसीमन कानून के हवाले से मंदिर के पक्षकारों के दावे का विरोध करेंगे. 1963 का यह कानून विवाद में पीडि़त पक्ष की ओर से दावा जताने की सीमा निर्धारित करता है. इसी कानून का हवाला देकर मुस्लिम पक्ष दलील दे रहे थे कि यह जगह सदियों से उनके कब्जे में है. इतना लंबा वक्त गुजरने के बाद हिंदू पक्षकार इस पर दावा नहीं कर सकते हैं. हिंदू महासभा पक्ष की वकील रंजना अग्निहोत्री का कहना है कि भगवान श्रीराम भी देवकी नंदन अग्रवाल के जरिये एक इंसान की तरह इस मामले में एक पक्षकार हो गए. इसका फायदा यह हुआ कि इस केस को परिसीमन कानून से छुटकारा मिल गया. खास बात यह है कि जब रामलला विराजमान को भी एक पक्ष के तौर पर शामिल करने का आवेदन दिया गया, तो इसका किसी ने विरोध नहीं किया था.
चार मामले पहले से चल रहे थे
वकील रंजना अग्नहोत्री ने बताया कि जब 1 जुलाई 1989 को फैजाबाद कोर्ट में रामलला विराजमान की ओर से दावा पेश किया गया, उससे पहले से सिविल कोर्ट में इससे जुड़े चार मामले चल रहे थे. इसके बाद 11 जुलाई 1989 को इन सभी पांच मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में ट्रांसफर कर दिया गया. वहीं, हाईकोर्ट के सामने 1987 से ही उत्तर प्रदेश सरकार की वह अर्जी विचाराधीन थी, जिसमें फैजाबाद के सिविल कोर्ट में चल रहे अयोध्या मामले से संबंधित सभी मामले हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने का आग्रह किया गया था. हाईकोर्ट ने सितंबर 2010 में जमीन को तीन पक्षों निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बोर्ड में बांटने का फैसला दिया था. हालांकि यह फैसला किसी पक्ष को मंजूर नहीं था.
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