Assembly Election 2022: देश में पार्टी प्रमुखों की बढ़ रही है निरंकुशता- बोले IIAM अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: March 16, 2022 11:23 IST2022-03-16T10:55:39+5:302022-03-16T11:23:26+5:30

सुप्रीम कोर्ट ने पार्टियों से ऐसे लोगों के नाम जिन पर अपराधिक मामले है, अपनी वेबसाइट पर डालने और अखबारों में विज्ञापन देने जैसे कदम उठाने को कहा था।

Assembly Election 2022 Autocracy of party chief is increasing in the country | Assembly Election 2022: देश में पार्टी प्रमुखों की बढ़ रही है निरंकुशता- बोले IIAM अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर

Assembly Election 2022: देश में पार्टी प्रमुखों की बढ़ रही है निरंकुशता- बोले IIAM अहमदाबाद के पूर्व प्रोफेसर

Highlights1998 में चुनावी राजनीति में अपराधियों के प्रवेश ने हमें आईआईएम-ए में आंदोलित कर दिया।2004 में 24.9 प्रतिशत लोकसभा सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले थे जो 2009 में बढ़कर 30 हो गए है। जहां तीन या अधिक दावेदारों का आपराधिक रिकॉर्ड है उसे रेड अलर्ट निर्वाचन क्षेत्र कहा जा रहा है।

पांच राज्यों के चुनावों के परिणामों के साथ, अब ध्यान भारत के चुनावी परिदृश्य को देखते हुए धन और अपराधियों पर केंद्रित है. भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद (आईआईएम-ए) के पूर्व शिक्षक, प्रोफेसर जगदीप चोकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापकों में से एक हैं, जो लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं. 

उनसे लोकमत मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर (बिजनेस एवं पॉलिटिक्स) शरद गुप्ता ने बात की. पढ़िए साक्षात्कार के प्रमुख अंश -

ल्ल एडीआर के पीछे क्या विचार था?

1998 में चुनावी राजनीति में अपराधियों के प्रवेश ने हमें आईआईएम-ए में आंदोलित कर दिया. हम में से एक प्रो. त्रिलोचन शास्त्री इसके बारे में कुछ करना चाहते थे. हमने पाया कि चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक जानकारी में केवल उम्मीदवार का नाम, पिता का नाम, मतदाता पंजीकरण संख्या और पता चाहिए होता है. जबकि आपको पासपोर्ट या नौकरी के लिए कम से कम 50 तरह की जानकारी देनी होती है.

ल्ल पहला कदम क्या था?

दो साल से अधिक की सजा पाने वाला कोई दोषी व्यक्ति छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकता. लेकिन एक मौजूदा सांसद/विधायक को अगर दोषी ठहराया जाता है तो उसे फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए 90 दिनों का समय मिलता है. अगर उसकी अपील को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया जाता है तो अदालत द्वारा उस पर फैसला सुनाने तक वह चुनाव लड़ सकता है. 

इस प्रकार एक दोषी व्यक्ति अपने लगभग पूरे राजनीतिक जीवन में चुनाव लड़ना जारी रख सकता है. इसलिए हमने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की, जिसमें उम्मीदवारों से उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की संख्या का खुलासा करने की मांग की गई. और इस तरह एडीआर 11 संस्थापक सदस्यों, जिसमें सभी शिक्षाविद थे, के साथ अस्तित्व में आया.

ल्ल क्या कोई बड़ी हलचल हुई?

2 नवंबर 2000 को हाईकोर्ट का फैसला हमारे पक्ष में आने के बाद खलबली मची. फैसले का सभी पक्षों ने विरोध किया. इसके खिलाफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. अटॉर्नी जनरल ने सरकार की ओर से पैरवी की जबकि राजनीतिक दलों ने शीर्ष वकीलों को मैदान में उतारा. 

फली नरीमन ने हमारे मामले में नि:शुल्क कानूनी मदद दी. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2 मई, 2002 में हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. फिर एक सर्वदलीय बैठक में 22 दलों ने एक अध्यादेश के माध्यम से हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करने का फैसला किया. तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अध्यादेश वापस कर दिया क्योंकि यह संविधान के मूल ताने-बाने के खिलाफ था. 

लेकिन वाजपेयी सरकार ने अगले दिन उन्हें वापस भेज दिया और उन्हें मंजूरी देनी पड़ी.

ल्ल तो, आपके लिए यह मामला जहां का तहां रह गया?

हां, लेकिन उस समय तक हम लड़ने के लिए मजबूत बन चुके थे. अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में तीन याचिकाएं दायर की गईं- एडीआर, पीयूसीएल और हैदराबाद के एनजीओ लोक सत्ता द्वारा. 13 मार्च 2003 को सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश को खारिज कर दिया और 2 मई, 2002 के अपने फैसले को बरकरार रखा. 

लेकिन हमें चुनाव आयोग को इन हलफनामों को सार्वजनिक करने के लिए मनाने में और 2-3 साल लग गए.

ल्ल क्या एडीआर रिपोर्ट के कारण अपराधियों का राजनीति में प्रवेश कम हुआ है?

2004 में 24.9 प्रतिशत लोकसभा सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले थे, वे 2009 में बढ़कर 30 और 2014 में 34 हो गए. 2019 में वे 43 प्रतिशत पहुंच गए. हमने अपना काम किया लेकिन इसका वांछित प्रभाव नहीं दिखता है. 

ल्ल पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने पार्टियों से ऐसे लोगों के नाम अपनी वेबसाइट पर डालने और अखबारों में विज्ञापन देने जैसे कदम उठाने को कहा था. क्या इसने काम नहीं किया? हाईकोर्ट ने इसके लिए आठ पार्टियों पर जुर्माना भी लगाया था. लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा है.

ल्ल तो, आगे का रास्ता क्या है?

अब हम रेड अलर्ट निर्वाचन क्षेत्रों की पहचान कर रहे हैं. ये वे सीटें हैं जहां तीन या अधिक दावेदारों का आपराधिक रिकॉर्ड है. और अगर यही एकमात्र उम्मीदवार हैं जिनके पास निर्वाचित होने की वास्तविक संभावना है, तो मतदाताओं के पास कोई विकल्प नहीं है. 

देश में करीब 45 फीसदी ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं. राजनीतिक दलों को अपने अस्तबल साफ करने होंगे.

ल्ल परंतु कैसे?

दागी उम्मीदवारों को खारिज करके जनता दबाव बना सकती है.

ल्ल एडीआर के अधूरे लक्ष्य क्या हैं?

पार्टियों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करना और उनके वित्त पोषण में पारदर्शिता लाना. अभी किसी दल का मुखिया किसी प्रत्याशी को टिकट ही नहीं देता बल्कि उसके चुने जाने के बाद पार्टी व्हिप के जरिए चुनावी प्रतिनिधियों की आवाज को नियंत्रित भी करता है. 

इसलिए हमारे यहां एक व्यक्ति की निरंकुशता है, न कि एक जीवंत लोकतंत्र, जिसके कि हम भारत में होने का दावा करते हैं. राजनीतिक दलों ने उनको सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में लाने के प्रयासों को भी विफल किया है.

ल्ल क्या सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता?

हमारी याचिका पिछले सात साल से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. हमने एक-दो बार नहीं बल्कि छह बार विशेष उल्लेखों के माध्यम से सुनवाई के लिए इसे लाने की कोशिश की है. अब इसे चुनावी बांड के मुद्दे से जोड़ दिया गया है. वह भी लंबित है. लोकतंत्र में सुधार के लिए न्यायालयों को सक्रिय होना होगा.

Web Title: Assembly Election 2022 Autocracy of party chief is increasing in the country

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