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वायु प्रदूषण से दिल्ली बेहाल, कृत्रिम बारिश का परीक्षण, जानें तकनीक, फायदे और आशंकाएं

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 28, 2025 19:29 IST

रिपोर्ट के मुताबिक ठंडे बादलों में जहां तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है, ‘सिल्वर आयोडाइड’ के कण डाले जाते हैं, जिससे पानी और बर्फ संघनित हो जाती है।

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ठळक मुद्देभारी होने के कारण, ये जल कण नीचे गिरते हैं और ज़मीन के पास तापमान बढ़ने के साथ-साथ बर्फ पिघलते भी हैं। रिपोर्ट का उद्देश्य जनता, प्रशासकों और नीति-निर्माताओं के आम सवालों का जवाब देना है। वर्षा निर्माण की दक्षता में सुधार करने के लिए ‘सीडिंग एजेंट’ के रूप में किया जाता है।

नई दिल्लीः दिल्ली को वायु प्रदूषण से राहत दिलाने की कोशिश के तहत मंगलवार को कृत्रिम बारिश का परीक्षण किया गया। कृत्रिम बारिश एक ऐसी तकनीक है जिसमें सामान्य बादलों को हवा में मौजूद नमी को रसायनों की मदद से बरसने वाले बादलों में परिवर्तित किया जाता है और इससे अधिक बारिश होती है। पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) के अनुसंधानकर्ताओं ने 2023 की अपनी रिपोर्ट में बताया है कि बादल में वातावरण की नमी को संघनित करने के लिए आमतौर पर विमान के जरिये आधार कण जोड़े जाते हैं जिन्हें ‘‘बीज’’ कहा जाता है इनके चारों ओर जल वाष्प संघनित होता है। रिपोर्ट के मुताबिक ठंडे बादलों में जहां तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है, ‘सिल्वर आयोडाइड’ के कण डाले जाते हैं, जिससे पानी और बर्फ संघनित हो जाती है।

भारी होने के कारण, ये जल कण नीचे गिरते हैं और ज़मीन के पास तापमान बढ़ने के साथ-साथ बर्फ पिघलते भी हैं। इस रिपोर्ट का उद्देश्य जनता, प्रशासकों और नीति-निर्माताओं के आम सवालों का जवाब देना है। अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि गर्म बादलों में, जहां तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से ऊपर होता है, सोडियम क्लोराइड (एनएसीएल) या पोटेशियम क्लोराइड (केसीएल)जैसे रासायनिक घोल का उपयोग पानी की बूंदों के संलयन को बढ़ावा देने और वर्षा निर्माण की दक्षता में सुधार करने के लिए ‘सीडिंग एजेंट’ के रूप में किया जाता है।

अनुसंधानकर्ताओं ने बताया कि बादल प्राकृतिक रूप से तब बनते हैं जब हवा जलवाष्प से संतृप्त हो जाती है। वाष्प अवस्था में पानी को धारण न कर पाने के कारण, कण आपस में मिलने लगते हैं और पानी की दृश्यमान बूंदों या बर्फ के क्रिस्टल में संघनित हो जाते हैं, जिससे बादल बनते हैं। वर्षा या बर्फबारी तब होती है जब ये बूंदें या क्रिस्टल इतने बड़े और भारी हो जाते हैं कि धरती पर गिरते हैं।

कहा जाता है कि कृत्रिम वर्षा या बर्फबारी की पहली कोशिश 1946 में की गई थी। उस समय अमेरिकी रसायनज्ञ और मौसम विज्ञानी विन्सेंट शेफ़र ने वर्षा के भौतिकी को समझने के लिए प्रयोग किए थे। शेफ़र ने एक ठंडे कक्ष में ‘ड्राई आइस’(कार्बन डाइ ऑक्साइड का ठोस स्वरूप) डाली और देखा कि उसके के कणों के चारों ओर तुरंत एक बादल बन गया।

यह प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से बनाए गए बादलों का पहला दस्तावेजीकरण है। वायुमंडल मामलों के वैज्ञानिक बर्नार्ड वोनगुट ने 1947 में कृत्रिम वर्षा कराने के प्रयासों को आगे बढ़ाया। उन्होंने कृत्रिम वर्षा के प्रयोग में सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल का उपयोग किया जिसने ‘ड्राइ आइस’से बेहतर परिणाम दिए।

आईआईटीएम की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में किए गए अध्ययनों से संकेत मिलता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में शीत बादल बीजारोपण (जहां हवा में प्राकृतिक उत्थापन प्रक्रियाएं बादलों के निर्माण में मदद करती हैं) से बर्फबारी बढ़ सकती है। हालांकि, अमेरिकी सरकार जवाबदेही कार्यालय की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर कृत्रिम बारिश की प्रभाव क्षमा पर सीमित साक्ष्य उपलब्ध हैं।

जिससे इसके प्रभावों के लिए तकनीक का मूल्यांकन करना एक चुनौती बन गया है। अनुसंधानकर्ताओं ने ‘एडवांस इन एग्रीकल्चरल टेक्नोलॉजी एंड प्लांट साइंसेज’ नामक पत्रिका में जनवरी 2025 में प्रकाशित एक शोधपत्र में लिखा, ‘‘कृत्रिम वर्षा या हिमपात कराने के लिए इस्तेमाल किये गए रसायन भी जमीन पर गिरते हैं जिनसे पर्यावरणीय खतरा पैदा हो सकता है।

क्योंकि ‘‘कृत्रिम बारिश परियोजनाओं के निकट स्थानों में पाए जाने वाले अवशिष्ट चांदी (सिल्वर आयोडाइड से) को विषाक्त माना जाता है।’’ अनुसंधानकर्ताओं ने कहा, ‘‘ ड्राई आइस भी ग्रीनहाउस गैस का स्रोत हो सकती है जो वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि में योगदान देती है, क्योंकि यह मूलतः (ठोस) कार्बन डाइऑक्साइड है।’’

आईआईटीएम की रिपोर्ट में संस्थान द्वारा 1970 के दशक में किए गए कृत्रिम बारिश प्रयोगों का उल्लेख किया गया है, जिसमें वर्षा में 17 प्रतिशत वृद्धि का संकेत दिया गया। हालांकि इस तकनीक की प्रभावकारिता के बारे में कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका। हाल के दशकों में, कृत्रिम बारिश के लिए उपयुक्त स्थान की पहचान करने हेतु भारत भर में स्थानों पर ‘एरोसोल’ और बादल की बूंदों के व्यवहार का सर्वेक्षण करने के लिए प्रयोग और अवलोकन किए गए हैं।

आईआईटीएम के अनुसंधानकर्ताओं ने कृत्रिम बारिश प्रयोगों को उचित तरीके से संचालित करने के लिए सावधानियों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया, जिसमें मौसम की स्थिति और आसन्न गंभीर मौसम के बारे में जानकारी होना भी शामिल है। उन्होंने कहा कि सुरक्षा के लिए उड़ान संबंधी प्रतिबंध और अनुमति पहले से लेनी होगी। 

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