आज के फिल्‍मेकर न क्लासिक दे पा रहे हैं न ही अच्छी फिल्में, जानिए कहां व्यस्त रहते हैं

By असीम चक्रवर्ती | Published: July 8, 2018 02:51 PM2018-07-08T14:51:36+5:302018-07-08T14:51:36+5:30

विडंबना देखिए कि इतनी सारी तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद हमारे ज्यादातर फिल्मकार सृजनशीलता की कमी के चलते क्लासिक की छोड़िए, न के बराबर अच्छी फिल्म तक दे नहीं पा रहे हैं।

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आज के फिल्‍मेकर न क्लासिक दे पा रहे हैं न ही अच्छी फिल्में, जानिए कहां व्यस्त रहते हैं

हमारा जरा भी यह उद्देश्य नहीं है कि पुराने दौर के फिल्मकारों का गुणगान करें। लेकिन सच तो यह है कि पुराने दिग्गजों ने जो श्रेष्ठ काम किया उसकी तुलना में आज के मेकर न तो उतनी क्लासिक दे पा रहे हैं, न ही अच्छी फिल्में। हाल फिलहाल की कुछ क्लासिक पर नजर डालें तो बाहुबली एक और दो, पद्मावत, चक दे, रंग दे बसंती, मुन्नाभाई एमबीबीएस, दंगल, वेडनेस डे, बजरंगी भाईजान जैसी कुछ फिल्में इस उदाहरण में सामने आती हैं। यह हालत तब है, जब आज के मेकर्स ओरिजिनल लोकेशन की बजाए वीएफएक्स से अपना काम आसानी से कर लेते हैं। एक झटके में लोकेशन को खूबसूरत बना लेते हैं। भीड़ और जानवर भी इसकी सहायता से आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। यही नहीं आधुनिक कैमरा से लिए जाते हैं अनगिनत टेक। डीआई तकनीक से दूर होता है दिन-रात का फासला। आधी फिल्म बनती है पोस्ट प्रोडक्शन में। और किन-किन सुविधाओं का उल्लेख करें। कुल मिलाकर हर सुविधा मौजूद, फिर भी बिना स्क्रिप्ट के बन रही हैं बकवास फिल्में। पुराने दौर में सीमित साधन के बावजूद कमाल की फिल्में बनती थीं। आइए इस दर्द का और विस्तार से आंकलन करें- 

भंसाली ही लाते हैं क्लासिक

भंसाली की दूसरी फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ के बाद से ही ज्यादातर क्रिटिक को इस बात का यकीन हो गया था कि भंसाली वह निर्देशक हैं, जिनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह निकट भविष्य में कोई क्लासिक दे सकते हैं। और ऐसा हुआ भी। गुजारिश के ठीक बाद साधन का बहुत कम उपयोग कर उन्होंने ब्लैक जैसी क्लासिक बनाकर सबको चौंका दिया। ‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ में कमजोर स्क्रिप्ट ने उनका साथ नहीं दिया। लेकिन ‘बाजीराव मस्तानी’ में वह इस चूक से बचे, तो उनकी एक और क्लासिक दर्शकों के सामने आ पाई। ‘पद्मावत’ में उन्होंने इसे और विस्तार दिया। इसके बाद से ही उनकी तुलना के़  आसिफ जैसे फिल्मकारों से की जाने लगी है। यह दीगर बात है कि वह इस तुलना से अब भी मीलों पीछे हैं। पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपनी फिल्मों में वह नई-नई फिल्म तकनीक का इस्तेमाल करना बखूबी जानते हैं। भंसाली कहते हैं, ‘मैं अपनी फिल्मों में वीएफएक्स,  क्रोमा, एनिमेशन आदि सारी तकनीक का उपयोग प्रयोजन के मुताबिक करता रहता हूं। पर इसका यह मतलब नहीं है कि महान आसिफ साहब या कमाल साहब के साथ कोई तुलना करूं। उनका काम बेजोड़ था और हमेशा रहेगा।’ 

तकनीक के मुरीद आमिर

तकनीक के साथ कदम मिलाकर चलना आमिर को भी बहुत पसंद है। मगर इससे पहले वह स्क्रिप्ट की ओवरहालिंग बहुत अच्छी तरह से कर लेते हैं। इसके लिए उनकी पिछली एक सुपरहिट फिल्म ‘दंगल’ का उदाहरण देना काफी होगा। उनकी इस क्लासिक में तकनीक की बजाए स्क्रिप्ट ने जोरदार खेल खेला है। अब वह अपनी नई फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ भी इसी अंदाज में बना रहे हैं। आमिर कहते हैं, ‘जब आपक पास ढेर सारी नई फिल्म तकनीक उपलब्ध है, तो उसका इस्तेमाल तो होना ही चाहिए। पर कितना और कहां, इस बात का ध्यान आपको रखना पड़ेगा। ध्यान रहे तकनीक भी सब्जेक्ट की मोहताज होती है। एक बेकार से सब्जेक्ट में आप तकनीक ठूंस दें, तार्किक स्तर पर यह बात बहुत अटपटी लगती है।’

रेस-3 का झटका

विश्व की 78वीं खराब फिल्म की श्रेणी में आकर ‘रेस-3’ वाले इन दिनों झूम रहे हैं। यह वह फिल्म है जिसमें आमिर की बात बिल्कुट फिट बैठती है। यह वह फिल्म है, जिसमें तकनीक को ठूंस-ठूंस कर भरा गया है। अयनिका बोस के उत्कृष्ट छायांकन ने इसको खूबसूरत बनाने में कोई कमी नहीं बरती है। पर हुआ क्या। एक निहायत कमजोर स्क्रिप्ट ने सब कुछ गुड़-गोबर कर दिया। इससे ज्यादा इस फिल्म के बारे में बताना ठीक नहीं होगा। 

‘वेडनेस डे’ को मत भूल जाइए

इस संदर्भ में नीरज पांडे की 2008 की क्लासिक ‘वेडनेस डे’ को नजरअंदाज करना बिल्कुल मुमकिन नहीं है। यह वह फिल्म है, जिसकी बेहतरीन तकनीक इसकी स्क्रिप्ट है। लेकिन जरूरत के मुताबिक नीरज ने इसमें साधारण तकनीक का इस्तमोल किया था, पर इसे क्लासिक बनाने में इसकी स्क्रिप्ट का सबसे अहम योगदान था। 

लाजवाब ‘बाहुबली’

पिछले साल की कुछ क्लासिक में से ‘बाहुबली’ की तकनीक को सर्वोत्तम कहा जा सकता है। लेकिन इसके पीछे भी लेखक के।वी। विजयन प्रसाद का बड़ा योगदान था। लेकिन यहां एक साधारण-सी कहानी को क्लासिक बनाने में इसके अचंभित तकनीक का बड़ा योगदान था। बेहद आश्चर्यजनक ढंग से ‘बाहुबली’ के दोनों भाग में यह करिश्मा साफ नजर आता है और यह सारी योजना इसके निर्देशक एस।एस। राजामौली के मार्गदर्शन में सफल हुई थी।

इनकी चर्चा भी जरूरी

चक दे, रंग दे बसंती, मुन्नाभाई एमबीबीएस ये तीनों भी हाल के वर्षों की ऐसी फिल्में रहीं, जिनमें तकनीक और स्क्रिप्ट का अच्छा तालमेल देखने को मिला था। जहां ‘मुन्नाभाई’ में अच्छी स्क्रिप्ट सारा खेल खेलती है, वहीं तकनीक पीछे रहती है। मगर ‘चक दे’ में स्क्रिप्ट और तकनीक एक-दूसरे पर हावी नजर आती है। वहीं ‘रंग दे बसंती’ में निर्देशक राकेश मेहरा ने वीएफएक्स और डीआई तकनीक से अपनी स्क्रिप्ट को बहुत अच्छी तरह से सजाया-संवारा था। यहां यह बताना जरूरी है कि डीआई कलर कनेक्शन का एक तरीका है।

2.0 के बहाने बात उस निर्देशक की, आज तक जिसकी एक फिल्म फ्लॉप नहीं हुई 

‘बजरंगी भाईजान’ का जलवा

सलमान जैसे एक्टर के नाम भी एक क्लासिक हो सकती है। ‘बाहुबली’ के चर्चित लेखक विजयन प्रसाद ने उन्हें यह सौगात दिया था। ‘बजरंगी’ वह फिल्म है, जिसमें तकनीक का कमाल ज्यादा देखने को मिलता है। इसी वजह से यह क्लासिक भी बनी। वैसे इसमें अपनी अन्य फिल्मों की तुलना में सलमान का अभिनय बहुत ज्यादा सराहनीय था।  

सब्जेक्ट के बिना अधूरी

एक बात तो साफ है कि सब्जेक्ट के बिना तकनीक बिल्कुल अधूरी है। इसके लिए हॉलीवुड फिल्मों का अच्छा उदाहरण दिया जा सकता है। वहां ज्यादातर फिल्में ही ऐसी बनती हैं जिसमें टेक्नोलॉजी के उपयोग की पूरी संभावना रहती है। और जहां सब्जेक्ट इस बात की डिमांड नहीं करता है, वहां के फिल्मकार इस बात से साफ बचते हैं। इसके लिए ‘टाइटैनिक’ का एक उदाहरण देना ही काफी होगा। इस तीन घंटे से ज्यादा लंबी रोमांटिक फिल्म के सब्जेक्ट में रोमांस इस कदर भरा हुआ है कि इसमें फिल्म टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सिर्फ इसके कैनवास को विस्तृत रंग देता है। 

भंसाली का तर्क

300 करोड़ का अलिखित बजट पार कर चुकी संजय लीला भंसाली की फिल्म  ‘पद्मावत’ में वीएफएक्स सहित दूसरी तकनीक का काफी इस्तेमाल किया गया था। वह बताते हैं, ‘फिल्म मेकिंग में टेक्नोलॉजी के बढ़ते महत्व से मैं भी इनकार नहीं करता हूं। मगर यह फिल्म के हर सीन के जरूरत के मुताबिक होना चाहिए। टेक्नोलॉजी सिर्फ फिल्म के सुंदर फिल्माकंन के लिए जरूरी है। वरना यह पूरी तरह से निर्देशक का माध्यम है।’

निरंतर विकसित हुई है तकनीक

आज ज्यादातर फिल्मों में ही तकनीक का कमाल देखने को मिल जाता है। हां, छोटे बजट की फिल्में इस तकनीक से थोड़ा बचती हैं क्योंकि वीएफएक्स और दूसरी तकनीक का इस्तेमाल इनके लिए शूटिंग से ज्यादा खर्चीला लगता है। कभी महबूब खान, के़  आसिफ, वी़  शांताराम, राज कपूर आदि दिग्गज फिल्मकारों की नजर फिल्म के तकनीक पक्ष पर भी होती थी। एक बार ‘झनक-झनक पायल बाजे’ की शूटिंग से पहले शांताराम के छायाकार जी़  बालकृष्ण ने एक खास तरह के लेंस का हवाला देते हुए उनसे कहा था, यदि यह मिल जाए तो अगली फिल्म की शूटिंग में बहुत सुविधा हो जाएगीे। बाद में शांताराम ने किसी तरह उस लेंस का जुगाड़ किया था।

पद्मावत के बाद इस विषय पर संजय लीला भंसाली बनाएंगे फिल्म

सूरज ने भी सहारा लिया

फिल्म ‘प्रेम रतन धन पायो’ के छायाकार वी मानिकनंदन पूर्व में रा-वन, ओम शांति ओम, मैं हूं ना, ये जवानी ये दीवानी जैसी कई बड़ी फिल्मों का छायांकान कर चुके हैं। मानिकनंदन के मुताबिक सूरज उन निर्देशकों से भिन्न हैं जो अपने दृश्यों को संभालने के लिए तकनीक का सहारा लेते हैं। वह कहते हैं, ‘हम भारतीय छायाकार विदेशी तकनीशियनों से किसी भी मामले में कमतर नहीं हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि ये सारा कमाल हम बहुत सीमित साधन में कर दिखाते हैं।’ कई फिल्मों में अपने छायांकन का जादू चला चुके प्रसिद्ध छायाकार सुदीप चटर्जी ने फिल्म ‘पद्मावत’ में कई अहम तकनीक का जो कमाल दिखाया है, वह अद्वितीय है। सुदीप दा कहते हैं, ‘असल में फिल्म निर्माण में जो भी नई तकनीक फिल्म की खूबसूरती पर चार चांद लगाती है, मैं ऐसी तकनीक को तुरंत एडाप्ट कर लेता हूं। तकनीक की मदद से दृश्य को चमकाना मुझे बहुत पसंद है।’ 

कैसी-कैसी तकनीक

डीआई तो सिर्फ एक तकनीक का नाम हुआ वरना आज फिल्म की शूटिंग के दौरान चिप,  वीएफएक्स,  क्रोमा, एनिमेशन, थ्रीडी, ऑनलाइन एडिटिंग या स्मोक आदि ढेरों तकनीकी शब्दों को सुनना बेहद रूटीन सा हो गया है। इन दिनों फिल्म ‘सिंबा’ की शूटिंग कर रहे निर्देशक रोहित शेट्टी कहते हैं, ‘इन तकनीक ने बतौर निर्देशक हमारी काफी मदद की है। हम अपनी कल्पना को इसकी मदद से सार्थक कर पा रहे हैं। अब जैसे कि पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान डीआई तकनीक के जरिये हम फिल्म को मनचाहा लुक दे सकते हैं। रात के दृश्यों को शूट करके उसे सुबह के दृश्यों में परिवर्तित कर सकते हैं।’

क्रोमा पर एक नजर

वीएफएक्स तकनीक के कई हिस्से हैं, जिसमें क्रोमा का भी नाम शामिल है। इसका उपयोग कर आप पृष्ठभूमि के दृश्यों को अपना मनचाहा रंग दे सकते हैं। इसके लिए निर्देशक कुछ जरूरी शॉट को हरे रंग के बैकग्राउंड के सामने फिल्माता है। बाद में क्रोमा तकनीक के जरिये फिल्म के सब्जेक्ट के मुताबिक सारी पृष्ठभूमि रखी जाती है। अब तो बड़े बजट की फिल्मों में इसका उपयोग आम हो गया है। लेकिन विडंबना देखिए कि इतनी सारी तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद हमारे ज्यादातर फिल्मकार सृजनशीलता की कमी के चलते क्लासिक की छोड़िए, न के बराबर अच्छी फिल्म तक दे नहीं पा रहे हैं।

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