मृणाल सेन : 'सिनेमा ऑफ़ आईडिया' के बेमिसाल सर्जक, आजाद भारत में डायरेक्टर की थी सबसे पहली बैन होने वाली फिल्म

By सुन्दरम आनंद | Published: May 14, 2021 04:47 PM2021-05-14T16:47:17+5:302021-05-14T16:49:12+5:30

मृणाल सेन को कोलकाता बड़ा अज़ीज़ था। यह शहर उनके लिए उत्प्रेरक भी था और उत्तेजक भी। अपनी आत्मकथा ‘ऑलवेज़ बीइंग बॉर्न: ए मेमॉयर’ में उन्होंने लिखा है- “मैं यहाँ पैदा नहीं हुआ, यह सच है, पर मैं यहीं बनाया गया हूँ…

Mrinal Sen the cinematic genius who had the courage to bring social realities on celluloid | मृणाल सेन : 'सिनेमा ऑफ़ आईडिया' के बेमिसाल सर्जक, आजाद भारत में डायरेक्टर की थी सबसे पहली बैन होने वाली फिल्म

मृणाल सेन। (फोटो सोर्स- सोशल मीडिया)

Highlightsअपने पांच दशक के सिनेमाई सफ़र में वे सत्यजित रे के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर भारत के सबसे सम्मानित फ़िल्मकार थे। वे ऐसे निर्देशक के तौर पर जाने गए जिनकी सिने-कला फ़िल्म-दर-फ़िल्म नए मोड़ लेती रही। सन 1969 में तकरीबन डेढ़ घंटे की एक फिल्म आई थी - ‘भुवन सोम’।

बाँग्ला कथाकार बनफूल (बलाई चंद मुखोपाध्याय ) की कहानी पर आधारित इस फ़िल्म को बनाते वक़्त निर्देशक मृणाल सेन ने सोचा भी नहीं था कि यह फ़िल्म सफल हो पाएगी। लेकिन ‘भुवन सोम’ की जिस कहानी को निर्माताओं द्वारा लगातार ख़ारिज किये जाने के बावजूद वो पिछले 10 वर्षों से लेकर घूम रहे थे, वह सिनेमा के परदे पर उतर कर न केवल  सफल साबित हुई, बल्कि एक इतिहास गढ़ डाला। और यह इतिहास आर्थिक कीर्तिमानों  का नहीं था गोया भारतीय सिनेमा में अलग धारा के सूत्रपात का था। 

यही वह फ़िल्म थी जहाँ से भारतीय सिनेमा ने एक नया मोड़ लिया जिसे आगे चलकर ‘इंडियन न्यू वेव’ या ‘समानांतर सिनेमा’ कहा गया।ऐसा नहीं है कि ‘भुवन सोम’ से पहले भारत में उम्दा और सफल फ़िल्में नहीं बनी थीं। लेकिन इस फ़िल्म ने भारत में सिनेमाई शिल्प और तकनीक  में नए प्रयोगों के लिए नई प्रतिभाओं को  रास्ता दिखाया।  खुद इसी सिने-आंदोलन से निकले महान मलयालम फ़िल्मकार अडूर गोपालकृष्णन।

इस बाबत उन्होंने फ्रंटलाइन को दिए गए इंटरव्यू में कहा था- “एक परिघटना की तरह यहाँ से भारतीय सिनेमा में नई प्रवृत्तियों का उभार हुआ जो थीम और ट्रीटमेंट  के ज़रिये सिनेमा की स्थापित मान्यताओं को तोड़कर अपने सच को तलाशने पर बल देता है।”ज़ाहिर है की एक नई लीक के अगुआ रहे मृणाल सेन भी अपने आप में एक ‘इंस्टीट्यूशन’ से कम नहीं थे। 

प्रयोगधर्मी फ़िल्मकार 

दरअसल मृणाल सेन सिनेमा को सामजिक बदलाव का एक ज़रिया मानते थे। ‘व्यू ऑन सिनेमा’ नाम की अपनी किताब में उन्होंने साफ़ तौर पर लिखा है - “सिनेमा अन्य कलाओं की तरह मानवीय रचना है। यह इंसानों द्वारा  इंसानों के लिए बनायी जाती है। लिहाज़ा यह एक सामाजिक गतिविधि है। इसे हर लिहाज़ से इंसान और समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।”उनकी सिनेमाई दृष्टि के विकास में देश और दुनिया के बेहतरीन साहित्य, चार्ली चैपलिन की फ़िल्मों, रुडोल्फ़ अर्नहीम की किताब ‘फिल्म एज़ आर्ट’ का प्रभाव था। 

अपनी पहली फ़िल्म ‘रात भोरे’ (1955) की असफलता के बाद उन्होंने विश्व सिनेमा को और गंभीरता से देखना समझना शुरू किया।इसी क्रम में वे रूस के महान डाक्यूमेंट्री मेकर एवं सिने-सिद्धांतकार ज़ीगा वर्तोव (Dziga Vertov) के काम से परिचित और प्रभावित हुए। वर्तोव के ‘कीनो-प्रवादा’ यानी ‘फिल्म-ट्रुथ’ के सिद्धांत ने उन पर गहरी छाप छोड़ी। ‘फिल्म-ट्रुथ’ के सिद्धांत के अनुसार सिनेमा में टुकड़ों में बिखरे यथार्थ को एक साथ समेटकर प्रस्तुत किया जाए तो उस गहरे यथार्थ को महसूस कर सकते हैं जिसे हम अपनी आँखों से अमूमन देख नहीं पाते।    

मृणाल सेन की तकरीबन सारी फ़िल्मों में इस सिद्धांत के सूत्र तलाशे जा सकते हैं  लेकिन ‘अकालेर संधाने’ (1980), खंडहर (1983 ), जेनेसिस (1986) जैसी फ़िल्मों में इसकी तस्दीक ख़ासतौर से की जा सकती है। विषयवस्तु में नए-नए प्रयोगों के अलावा उनकी सिने-दुनिया भाषाई प्रयोगों के लिहाज़ से भी काफी विविधतापूर्ण रही। 
उन्होंने बांग्ला और हिंदी के अलावा ओडिया (माटिर मानुष) और तेलुगू (ओका ओरी कथा) भाषा में भी फ़िल्में बनाईं। 

साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्म बनाते समय भी उन्होंने कहानी के मूलभाव के इर्द-गिर्द सार्थक जोड़-घटाव किये। मसलन महदेवी वर्मा की  ‘चीनी फेरीवाला’ पर आधारित ‘नील आकाशेर नीचे’(1959 ) को उन्होंने भाव और प्रस्तुति के स्तर पर एक अलग रूप में सामने लाए तो वहीं प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ को तेलुगू समाज के अनुकूल ढालकर ‘ओका ओरी कथा’ (1977 ) को सर्वथा भिन्न रूप में व्याख्यायित किया।

इन तमाम प्रयोगों के बीच मृणाल सेन की फ़िल्मों में भाव और बुद्धि के स्तर पर लगातार संवाद करने की प्रवृत्ति हमेशा मौजूद होती थी। शायद इसीलिए अपनी फ़िल्मों में अभिनय के लिए कभी वो नामचीन अदाकारों के पास नहीं गए। इस सन्दर्भ में ‘व्यू ऑन सिनेमा’ में दर्ज उनकी यह टिप्पणी उल्लेखनीय है - “अगर फ़िल्म उपयोगी है तो इस बात की चिंता क्यों की जाए कि किरदार किसी बड़े स्टार ने निभाया है या राह चलते किसी आदमी ने?”

कोलकाता से लगाव 

मृणाल सेन को कोलकाता ( उनके लिए कलकत्ता था) बड़ा अज़ीज़ था। यह शहर उनके लिए उत्प्रेरक भी था और उत्तेजक भी। अपनी आत्मकथा ‘ऑलवेज़ बीइंग बॉर्न: ए मेमॉयर’ में उन्होंने लिखा है- “मैं यहाँ पैदा नहीं हुआ, यह सच है, पर मैं यहीं बनाया गया हूँ…। कलकत्ता मेरा एल डोरेडो है।”और दीगर है कि स्पेनिश मिथक गाथाओं के ‘सोने के शहर’ एल डोरेडो की तर्ज़ पर कोलकाता ने उन्हें अनुभव, ज्ञान, संवेदना और पहचान से नवाज़ा। 

उनकी फ़िल्मी फेहरिश्त में ‘कलकत्ता ट्राइलॉजी’ के नाम से, बेहद मशहूर तीन फिल्मों- ‘इंटरव्यू’(1971), ‘कलकत्ता 71’ (1972), ‘पदातिक’(1973 ) के अलावा ‘पुनश्च’ (1961) से लेकर ‘महापृथिबी’ (1991) तक में,  बार- बार कोलकाता के लोगों, वहां मौजूद वर्ग-विभाजन, राजनीतिक गतिविधियों, स्थानों आदि का जीवंत चित्रण मिलता है। शायद इसीलिए वो यहाँ तक कहते थे कि  “इस शहर के इतिहास और वर्तमान से मैं एक किस्म का  सतत संवाद  करता रहता हूँ , जो मुझे तरोताज़ा रखता है।”
 
पारखी और ज़िंदादिल टीम लीडर 

वह इस मायने में भी अलहदा थे कि उन्होंने अपनी फिल्मों के ज़रिये एक से बढ़कर एक कलाकारों को आगे बढ़ाया। चाहे वो ‘इंटरव्यू’ के रंजीत मलिक हों, ‘भुवनसोम’ की सुहासिनी मुले हों, ‘मृगया’ के मिथुन चक्रवर्ती और ममता शंकर हों, या ‘ख़ारिज’ के अंजान दत्ता। नितांत नए कलाकरों को अपनी फिल्मों के ज़रिये मृणाल सेन ने सफलता की ऊंचाई पर पहुँचाया है। 

बकौल मिथुन, “मेरी पूरी ज़िन्दगी मृणाल सेन की कर्ज़दार है।”

प्रतिभाओं की सही परख होने के साथ-साथ वो अपने साथ काम करने वाले लोगों के अंदर उत्साह भरना भी जानते थे। ‘भुवनसोम’ से ‘एक दिन अचानक’ (1989) तक उनके कैमरामन रहे केके महाजन शुरुआत के दौर में कुछ शॉट्स लेने  में सहज नहीं हो पा रहे थे तो मृणाल दा ने उनसे मशहूर भौतिकविद नील्स बोर का एक जुमला कहा- “आत्मविश्वास केवल सही होने से ही नहीं आता बल्कि असफलता से निडर होकर भी आता है।” 

इसके बाद से केके महाजन ने एक सिनेमेटोग्राफर के रूप में कई शानदार काम किये।एक बड़े फ़िल्मकार होकर भी वह सेट पर सलाह-मशविरा और बदलाव के लिए हमेशा खुले होते थे। यही वजह है कि उनकी फ़िल्में सक्रिय, गतिशील और इम्प्रोवाइज्ड हुआ करती थीं। मृणाल सेन गंभीर और डार्क फ़िल्में ज़रूर बनाते थे लेकिन सेट से लेकर अपने निजी और सामाजिक जीवन में वे बड़े किस्सागो और ज़िंदादिल थे। 

उनके 90वें जन्मदिन के मौके पर उन्होंने अपने चित-परिचित अंदाज़ में कहा था - “अभी मैं इतना बूढ़ा नहीं हुआ की फ़िल्म बनाना छोड़ दूँ…। अगर मैनुएल डी ओलिविएरा(पुर्तगाली फ़िल्मकार जिन्होंने 106 साल की उम्र तक फ़िल्म बनायी थी) फिल्म बना सकते हैं तो मैं भी बना सकता हूँ।”

रे-बर्मन-सेन विवाद 

मृणाल सेन के उनके समकालीन दिग्गज फ़िल्मकारों सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के साथ संबधों को लेकर भी काफी चर्चाएं होती थीं। इस सन्दर्भ में हमेशा ‘द स्टेट्समैन’ अख़बार में सन 1965 में फ़िल्म ‘आकाश कुसुम’(1965) को लेकर सत्यजित रे  के साथ, पटकथा लेखक आशीष बर्मन और मृणाल सेन के बीच लेटर टू एडिटर के ज़रिये 2 महीने तक चली बहस का ज़िक्र अक्सर किया जाता है। 

इस बहस को बेनतीजा मानकर  ‘द स्टेट्समैन’ की तरफ़ से “अंततः न किसी की हार हुई, न जीत” कहते हुए बंद कर दिया गया था।
इस घटना के कुछ दिनों बाद एक समारोह में रे और सेन की मुलाकात हुई। जहाँ रे ये कहने लगे कि - “बहुत दुःखद है कि इसे (बहस) ख़त्म कर दिया गया…। मैं अभी कई और पत्र लिखता।” तो मृणाल सेन ने खिलखिलाते हुए जवाब दिया - “मैं आपके सारे पत्रों के प्रतिउत्तर देता।”

प्रसार भारती द्वारा बनाई गयी डॉक्यूमेंट्री ‘सेलिब्रेटिंग मृणाल सेन’ में इस बारे में स्वयं मृणाल सेन ने कहा है - “अक्सर सभी मुझसे मेरे, ऋत्विक (घटक) और माणिक बाबू (रे) के बारे में पूछते हैं। मैं स्पष्ट कर दूँ कि हमारे बीच मतान्तर ज़रूर रहे पर मनान्तर कभी नहीं रहा। हम हमेशा दोस्त रहे।”

स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा 

मृणाल सेन  घोषित रूप से मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे। शुरुआती दिनों में ‘इप्टा’ से जुड़ने से लेकर वह ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन’(1967) और ‘नंदीग्राम विरोध प्रदर्शन’ (2006) जैसी मुहिमों में सक्रिय भागीदारी के लिए सड़कों पर भी बेहिचक उतरते  रहे। शायद इस वजह से उनकी तमाम फ़िल्में कहीं न कहीं राजीनीतिक अर्थ-सन्दर्भों के साथ हमारे सामने आती हैं। लेकिन अपनी फिल्मों को विचारधारा के प्रसारण का प्रोपगैंडा न बनाकर मृणाल सेन ने उसे मानवीय समस्याओं को उठाने का ज़रिया बनाया था। 

जिसके लिए उनकी तारीफ़ में दिवंगत अभिनेता ओमपुरी ने कहा था - “भारत में ज़्यादातर लोग समस्याओं को चिह्नित  नहीं कर पाते, उनमें (मृणाल सेन) समस्याओं को पहचानने की क्षमता और दृष्टि दोनों है।”यही ख़ासियत ‘लवेबल रेबेल’ कहे जाने वाले इस फिल्मकार को विशिष्ट और प्रासंगिक बनाती है।          
 

Web Title: Mrinal Sen the cinematic genius who had the courage to bring social realities on celluloid

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