विजय दर्डा का ब्लॉग: उनके दिल का खिलौना हाय टूट गया..!
By विजय दर्डा | Updated: April 4, 2022 07:49 IST2022-04-04T07:49:46+5:302022-04-04T07:49:46+5:30
इमरान खान के खिलाफ माहौल बनाने में पाकिस्तान की मौजूदा आर्थिक स्थिति भी एक बड़ा कारण है. यूक्रेन युद्ध से ठीक पहले इमरान की रूस यात्र से अमेरिका भी बौखला गया और उसे लगा कि इस आदमी का अब सत्ता में रहना अमेरिका के हित में बिल्कुल ही नहीं है.

इमरान खान का जाना पाकिस्तान की जनता के उम्मीदों का भी टूटना है (फाइल फोटो)
हुआ वही, जिसका अंदेशा था. इमरान सत्ता छोड़ने पर मजबूर हो गए लेकिन जाते-जाते उन्होंने बड़ा खेल कर दिया. सदन के डिप्टी स्पीकर ने इमरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को खारिज किया और इसके साथ ही इमरान खान ने संसद भंग करने की सिफारिश की तथा राष्ट्रपति ने उसे मंजूर कर लिया. विपक्ष सोच रहा था कि गणित उसके साथ है तो इमरान इस्तीफा देंगे और शाहबाज प्रधानमंत्री हो जाएंगे. लेकिन इमरान का दांव भारी पड़ता दिख रहा है. वे खुले रूप से अमेरिका पर बरसे हैं और जनमत अपने पक्ष में करने की कोशिश की है.
इमरान का सत्ता से जाना उनके सपनों का टूटना तो है ही, उनसे देश ने जो उम्मीदें लगाई थीं, उन उम्मीदों का भी टूटना है. इमरान खान की भाषा में कहें तो क्रिकेट ने उन्हें इतनी शोहरत और दौलत दी कि वे चाहते तो लंदन में ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे होते लेकिन उनके ख्वाबों में एक बेहतर पाकिस्तान हमेशा पलता रहा. उनकी चाहत रही कि देश के युवाओं के सपनों के अनुरूप पाकिस्तान को आकार दें. जब वे राजनीति में नहीं थे तब भी स्कूल बनवा रहे थे, कॉलेज बनवा रहे थे, अस्पताल बनवा रहे थे. और ये सारी सेवाएं मुफ्त में दे रहे थे. वे कहते हैं कि देश को लूटने वाले लालची राजनेताओं के चंगुल से पाकिस्तान को बाहर लाने का सपना लेकर राजनीति में आए.
यह हकीकत भी है कि उन्हें शानदार जीत मिली और आगाज भी उन्होंने शानदार किया. पाकिस्तानी सेना भी साथ देती रही लेकिन अंतत: उन्हें जाना पड़ा. तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि हालात इस कदर क्यों परिवर्तित हो गए? इसके लिए पाकिस्तान के पूरे वजूद को समझना होगा.
हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान अमेरिका के रहमोकरम पर पलने वाला राष्ट्र रहा है. पाकिस्तान में वही होता है जो अमेरिका चाहता है. यहां तक कि अमेरिका ही तय करता है कि कौन सेना अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठेगा या आईएसआई का चीफ कौन होगा. जनरल परवेज मुशर्रफ और नवाज शरीफ भी शायद जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह फांसी पर चढ़ चुके होते यदि अमेरिका ने उनकी जान न बख्शी होती. मैं पहले भी अपने कॉलम में लिख चुका हूं कि पाकिस्तान के चप्पे-चप्पे पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की नजर रहती है.
यह लोगों ने तब भी महसूस किया था जब ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सील टीम ने मार गिराया था. ये पाकिस्तान का ड्रामा था कि हमें कुछ मालूम नहीं. वास्तव में हर नेता और सेना से लेकर आईएसआई के हर अधिकारी का कच्चा-चिट्ठा सीआईए के पास होता है इसलिए कभी कोई चूं नहीं बोलता.
पाकिस्तान की झोली में अमेरिका लाखों-करोड़ों डॉलर इसीलिए डालता रहा है ताकि पाक वही करे जो अमेरिका चाहे. एक समय ऐसा भी था जब पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पूरा एयर स्पेस उपयोग के लिए अमेरिका को दे दिया था.
अफगानिस्तान की लड़ाई में पाकिस्तान ने अमेरिका का खूब साथ भी दिया लेकिन जब वहां से अमेरिका निकला तो वह चाहता था कि ड्रोन हमलों के लिए उसे पाकिस्तान की धरती और आकाश मिल जाए. इमरान खान ने मना कर दिया तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति को अपने शिकंजे में रखने वाला पितामह आगबबूला हो गया. उसे लगा कि यह भाषा पाकिस्तान की नहीं है. यह भाषा तो रूस और चीन की है!
आपको ध्यान होगा कि बुरी तरह नाराज अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक बार भी इमरान खान को फोन तक नहीं किया.
यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि अमेरिका को आंखें दिखाने में इमरान खान अकेले नहीं थे. हुआ यह कि रूस और चीन ने बड़े खुफिया तरीके से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को अपने पाले में लिया. सेना ने इमरान खान को आगे रखा और अमेरिका को पाकिस्तान का नया तेवर दिखाया. अमेरिका को स्वाभाविक रूप से यह गवारा नहीं हुआ कि पाकिस्तान रूस या चीन के साथ जाए. चीन और रूस इस वक्त साथ हैं और अमेरिका इससे पहले से ही चिंतित है.
यूक्रेन युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले इमरान की रूस यात्र से भी अमेरिका बौखला गया और उसे लगा कि इस आदमी का अब सत्ता में रहना अमेरिका के हित में बिल्कुल ही नहीं है. इसके साथ ही सीआईए ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम फजल (जेयूआई-एफ) सहित पाकिस्तान के छोटे विपक्षी दलों को गठबंधन के लिए एकजुट कर दिया.
यह सीआईए की एक्टिविटी का ही नतीजा था कि इमरान खान के निकट सहयोगियों ने भी साथ छोड़ दिया. उनकी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के गठबंधन में शामिल मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट-पाकिस्तान (एमक्यूएम-पी) ने भी विपक्ष से हाथ मिला लिया. 342 सदस्यीय नेशनल असेंबली में इमरान खान बहुमत के 172 के आंकड़े से काफी पीछे छूट गए इसलिए इमरान की हार तय हो गई थी. विपक्ष सोच रहा था कि वे इस्तीफा देंगे लेकिन इमरान ने संसद ही भंग कर दी.
जहां तक सेना का सवाल है तो उसे पता है कि अब वो समय चला गया जब अयूब खान, जियाउल हक या परवेज मुशर्रफ की तरह कोई जनरल राज कर सके. लोकतंत्र के दायरे में अब अपना प्यादा बिठाकर ही राज कर सकते हैं. इमरान की उनसे बन भी रही थी लेकिन अमेरिका ने हालात ऐसे पैदा कर दिए कि सेना ने भी चुप्पी साध ली. विपक्ष के नेता शाहबाज शरीफ से भी उसे कोई परहेज नहीं है क्योंकि शरीफ सेना के साथ ही चलेंगे और अमेरिका से भी उनके रिश्ते अच्छे हैं.
इमरान के खिलाफ माहौल बनाने में पाकिस्तान की मौजूदा आर्थिक स्थिति भी एक बड़ा कारण है. पेट्रोल और अनाज की बात तो छोड़ दीजिए वहां आलू, प्याज और टमाटर की कीमतें आसमान छू रही हैं. क्या आप विश्वास करेंगे कि पाकिस्तान में टमाटर के भाव 300 रुपए प्रति किलो हैं? और बहुत सी चीजें के भाव हिंदुस्तान से पांच गुना ज्यादा हो चुके हैं.
पाकिस्तानी अवाम ने सपना देखा था कि इमरान के राज में उद्योग पनपेंगे, लोगों को नौकरियां मिलेंगी लेकिन लाहौर जैसी जगह में दस-दस घंटे बिजली नहीं रहती तो उद्योग पनपेंगे कैसे? लोगों ने सपना देखा था कि आतंकवाद समाप्त होगा, अमन का आगमन होगा और देश प्रगति की राह पर जाएगा लेकिन तहरीके तालिबान और दूसरे आतंकी संगठन लगातार पनप रहे हैं. तहरीके तालिबान ने तो फिर बड़े हमले की धमकी भी दी है.
जाहिर सी बात है कि इमरान खान के सत्ता से बाहर जाने के साथ ही पाकिस्तानी अवाम का भी बड़ा सपना टूट गया. उम्मीदों के आकाश में परवाज भरने का पाकिस्तानी हौसला घायल हो चुका है. मुझे तो एक गाना याद आ रहा है-
दिल का खिलौना हाय टूट गया
कोई लुटेरा आ के लूट गया..!
जब मैं अपना यह कॉलम लिख रहा हूं, उस वक्त संसद भंग होने का मामला पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत में पहुंचा हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से ही आगे की स्थिति स्पष्ट होगी. इमरान समर्थक कह रहे हैं कि संसद को बहाल करना सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता क्योंकि सारी गतिविधियां संसद के भीतर हुई हैं. विपक्ष को लग रहा है कि संसद बहाल हो जाए तो उसकी बन पड़ेगी. आगे-आगे देखिए होता है क्या..!