ब्लॉग: उथल-पुथल से अमेरिकी चौधराहट को चुनौती

By राजेश बादल | Updated: July 23, 2024 09:22 IST2024-07-23T09:22:01+5:302024-07-23T09:22:05+5:30

जब चीन के साथ भारत की डोकलाम में खूनी भिड़ंत हुई तो अमेरिका ने तीन दिन तक चुप्पी ओढ़ रखी थी। बीते दिनों मैंने इसी पन्ने पर लिखा था कि रूस-चीन तो जंग लड़ चुके हैं, पर भारत और रूस के रिश्ते इतने गहरे हैं कि उन पर कोई खतरा नहीं है।

US President Election 2024 Turmoil challenges American prosperity | ब्लॉग: उथल-पुथल से अमेरिकी चौधराहट को चुनौती

ब्लॉग: उथल-पुथल से अमेरिकी चौधराहट को चुनौती

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की दौड़ से जो बाइडेन के अलग होने से भी वहां के आभिजात्य लोकतंत्र पर मंडरा रहे घने काले बादल दूर होने के आसार नहीं हैं। निर्वाचन प्रक्रिया के जरिये राष्ट्रपति चुन लेना एक बात है और मुल्क में दूरगामी शांति, स्थिरता तथा विकास को रफ्तार देना दूसरी बात। दशकों से वैश्विक राजनीति में अमेरिका कुछ-कुछ चौधरी जैसी स्थिति में है। लेकिन अब उसकी यह चौधराहट खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है।

बराक ओबामा के बाद अमेरिकी मंच पर जो नायक अवतरित हुए, उन्होंने अपनी नीतियों से पद की गरिमा और मर्यादा को बाजार में उछाल दिया है। संसार इन दिनों जिन हालात का सामना कर रहा है, उसमें अमेरिका ने सिर्फ अपनी चिंताओं को प्राथमिकता दी है। यह अमेरिका की उस छवि से भिन्न है, जो दुनिया भर में छोटे और विकासशील देशों को भी पालता-पोसता था।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बिखरने के बाद तीसरी दुनिया के देशों का स्वर मद्धम पड़ा है. कुछ समय तक तो वैश्विक चौधरी उनकी देखभाल का अभिनय करता दिखाई दिया, बाद में शनैः शनैः उसने खुद को समेट लिया. अब वह एक अधिनायक की भूमिका में है। अन्य देशों से यह अधिनायक अपेक्षा करता है कि वे अमेरिकी स्वार्थों की रक्षा करें। लेकिन उन देशों का हित संरक्षण करने के लिए वह तैयार नहीं है।

डोनाल्ड ट्रम्प ने इस एकतरफा अपेक्षाओं पर सर्वाधिक जोर दिया था। ट्रम्प ने अपने कार्यकाल में इतने शातिर झूठ बोले थे कि शेष विश्व ने उन पर भरोसा करना ही छोड़ दिया था। अमेरिका के एक बड़े अखबार ने तो ट्रम्प के झूठे कथनों पर एक परिशिष्ट ही प्रकाशित कर दिया था। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में वे इतने अलोकप्रिय हो गए थे कि उनके मुकाबले जो बाइडेन को जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाना पड़ा। गौरतलब यह है कि बाइडेन भी कम झूठे नहीं हैं। उनके झूठ के चुटकुले प्रचलित हैं। अब जो बाइडेन अपने कामकाज से अमेरिकी अवाम को नाराज कर बैठे हैं। उनके खाते में उपलब्धियां ही नहीं हैं। इसलिए अमेरिका का भद्रलोक डोनाल्ड ट्रम्प पर ही भरोसा करता दिखाई देने लगा है। पर, जो बाइडेन के स्थान पर कमला हैरिस की उम्मीदवारी से मामला रोचक और रोमांचक हो सकता है।

दरअसल कमला हैरिस के लिए भी राष्ट्रपति पद बहुत दूर की कौड़ी है। उपराष्ट्रपति रहते हुए उनके अपने खाते में याद रखने लायक कुछ खास नहीं है। अगर पिछले चुनाव पर नजर डालें तो जो बाइडेन और कमला हैरिस की जोड़ी से अमेरिका के आम मतदाता ने बड़ी उम्मीदें लगाई थीं। मगर इस जोड़ी ने निराश किया। कमला और बाइडेन के मतभेद सार्वजनिक हो गए और कमला ने अपने को अलग-थलग कर लिया। वे अश्वेतों का भला नहीं कर पाईं, जबकि उनके नाम पर अश्वेतों ने वोट किया था। इसी बीच मुल्क की समस्याएं दिनोंदिन विकराल होती गईं, विदेश नीति ढुलमुल रही और अमेरिका सरपंच की भूमिका से अपने को उतार बैठा। यहां तक कि यूरोपीय राष्ट्रों से भी उसके संबंधों में वह गरमाहट नहीं रही।

भारत के संदर्भ में डोनाल्ड ट्रम्प और जो बाइडेन की तुलना की जाए तो दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। ट्रम्प ने ईरान से भारत के बेहतर रिश्तों में खटास डालने का काम किया। ईरान पर प्रतिबंध अमेरिका ने लगाए लेकिन उसका घाटा भारत को हुआ। इंदिरा गांधी ने जिस चाबहार बंदरगाह की नींव डाली थी,उससे भारत को मिलने वाला लाभ सिकुड़ गया। भारत को अपना तेल आयात भी कम करना पड़ गया। जब अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से बाहर निकालना था तो ट्रम्प ने पाकिस्तान को भरोसे में लिया और भारत का अरबों का पूंजी निवेश बेकार गया। जब-तब भारत के खिलाफ ट्रम्प के बड़बोले बयान भी घनघोर आपत्तिजनक थे। एक बार तो उन्होंने कहा था कि भारत जितना अफगानिस्तान में खर्च कर रहा है, उतना तो अमेरिका का सिर्फ एक दिन का खर्च है। अफगानिस्तान में भारत की ओर से पुस्तकालय बनाने की भी उन्होंने खिल्ली उड़ाई थी. एच1-बी वीजा निलंबित करने के उनके फैसले से भारतीय बहुत नाराज रहे थे।

इसी तरह जो बाइडेन का कार्यकाल रहा। जो बाइडेन और कमला हैरिस दोनों ही भारत की कश्मीर नीति के आलोचक थे। इसलिए उन्होंने चुनाव जीतने के बाद भी भारत से दूरी बनाए रखी। रूस-यूक्रेन जंग में वे भारत से अपेक्षा करते रहे कि भारत रूस से तेल आयात बंद कर दे और यूरोपीय देशों की तरह पिछलग्गू बना रहे। भारत की भौगोलिक और सामरिक प्राथमिकताओं को वे समझने को तैयार नहीं थे। चीन और पाकिस्तान से शत्रुतापूर्ण संबंधों के बाद वे चाहते थे कि रूस से भी भारत के रिश्ते बिगड़ जाएं। अमेरिका के उप सुरक्षा सलाहकार और एक फौजी कमांडर हिंदुस्तान आकर धमकाने वाली भाषा बोल कर जाते हैं। उसके बाद भारत में उसके राजदूत ने भारत को चेतावनी दे डाली थी।

भारत कैसे भूले कि 1965 और 1971 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान का ही साथ दिया था और रूस ने भारत के साथ भरोसे वाली दोस्ती निभाई थी। जब चीन के साथ भारत की डोकलाम में खूनी भिड़ंत हुई तो अमेरिका ने तीन दिन तक चुप्पी ओढ़ रखी थी। बीते दिनों मैंने इसी पन्ने पर लिखा था कि रूस-चीन तो जंग लड़ चुके हैं, पर भारत और रूस के रिश्ते इतने गहरे हैं कि उन पर कोई खतरा नहीं है। लब्बोलुआब यह कि अमेरिका का जो भी नया नियंता बने, उसे अपनी अधिनायकवादी सोच पर संयम रखना होगा और लोकतांत्रिक सिद्धांतों का साथ देना होगा। ट्रम्प पर कितना भरोसा मतदाता करेंगे - कहना मुश्किल है। दूसरी तरफ कमला हैरिस की राह भी आसान नहीं है। वे अश्वेतों के साथ भेदभाव नहीं रोक पाई हैं।

Web Title: US President Election 2024 Turmoil challenges American prosperity

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