United Nations: संस्थाएं बनती हैं, बिगड़ती हैं, सुधरती हैं...नजरिया और संचालन यदि ठीक रहा तो विभिन्न परेशानियों के बावजूद फिर से उठ खड़ी होती हैं. लेकिन सैद्धांतिक रूप से दुुनिया के सबसे बड़े संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधरने की कोई गुंजाइश नजर ही नहीं आ रही है. अब तो बड़े-बड़े विशेषज्ञ भी उसे नाकारा मान कर चल रहे हैं. उसकी हैसियत खत्म हो जाने का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि जिस अमेरिका ने उसके गठन में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी, उसी का राष्ट्रपति उसे खरी-खोटी सुना रहा है. इजराइल ने तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव के अपने देश में घुसने पर ही प्रतिबंध लगा दिया.
संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत को लेकर अभी फिर से सवाल उठने का कारण डोनाल्ड ट्रम्प का संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिया गया भाषण है. ट्रम्प ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ उनकी विदेश नीति से जुड़े किसी भी काम में मदद नहीं कर रहा है. बल्कि जो लोग भी अवैध रूप से अमेरिका आ रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ उनका समर्थन ही कर रहा है.
ट्रम्प ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि संयुक्त राष्ट्र पश्चिमी देशों और उनकी सीमाओं पर हमले के लिए धन मुहैया करा रहा है. स्वाभाविक तौर पर दुनिया यह सवाल खड़ा करेगी कि ट्रम्प के इस तरह के आरोप में क्या कोई दम है या फिर जिस तरह से ट्रम्प कुछ भी बोलते रहे हैं, उसी तरह यह आरोप भी चस्पा कर दिया! दरअसल ट्रम्प चाहते हैं कि वे जो भी नीतियां अपना रहे हैं,
संयुक्त राष्ट्र संघ उसका खुल कर समर्थन करे. निश्चित रूप से ट्रम्प की यह चाहत संयुक्त राष्ट्र की पुरानी हरकतों से ही पैदा हुई है. 24 अक्तूबर 1945 को गठन के बाद से ही इस पर अमेरिका का गहरा प्रभाव रहा. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि इसके खर्च का 70 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका दे रहा था. जब कोई देश किसी संगठन पर इतना खर्च करेगा तो उसे अपनी जेब में रखना भी चाहेगा!
हालांकि दुनिया यह मान कर चल रही थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसा संगठन होगा जो न्याय की राह पर चलेगा. यही इसके गठन का उद्देश्य भी था. मगर ऐसा हो नहीं पाया. हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुनिया के कई देशों के बीच संघर्ष दूर करने, शांति स्थापित करने या मानवीय सहायता पहुंचाने जैसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन ज्यादातर मामलों में वह अमेरिकी नीतियों पर ही चलता रहा.
अब आपके मन में सवाल उठ सकता है कि ट्रम्प इसके खिलाफ क्यों खड़े हो गए? दरअसल ट्रम्प की चाहत उससे भी ज्यादा थी. वे चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ उनके आगे बिछ जाए. ट्रम्प ने तो महासभा में सामान्य तौर पर निर्धारित समय सीमा का भी पालन नहीं किया. उनके दूसरे कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह उनका दूसरा भाषण था.
संयुक्त राष्ट्र की परंपरा के मुताबिक वक्ताओं को अपनी बात रखने के लिए पंद्रह मिनट दिए जाते हैं. मगर ट्रम्प करीब एक घंटे बोले. हालांकि यह पहली बार नहीं है जब किसी राष्ट्राध्यक्ष ने समय सीमा का उल्लंघन किया हो. मगर अमेरिका जैसे देश के राष्ट्रपति से यह उम्मीद तो की ही जा रही होगी कि वे समय सीमा का पालन करेंगे.
दूसरी बात कि ट्रम्प ने शिकायतें तो बहुत सी की ही, खुद को नोबल पुरस्कार मिलने की चाहत के लिए भी इस मंच का उपयोग किया. बहरहाल ट्रम्प चाहते हैं कि अभी इजराइल-हमास जंग में संयुक्त राष्ट्र खुल कर इजराइल के साथ आ जाए. हमास की आलोचना करे, उसे आतंकवादी संगठन करार दे और साथ ही ईरान को लेकर भी सख्त रवैया अपनाए लेकिन संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ऐसा नहीं कर रहे हैं. बल्कि उन्होंने लेबनान को लेकर एक बयान दे दिया कि उसकी संप्रभुता का सम्मान किया जाना चाहिए.
स्वाभाविक रूप से यह बयान इजराइल के खिलाफ गया. इजराइल तो इससे इतना आक्रोशित हो गया कि विदेश मंत्री कैट्ज ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस को इजराइल में अवांछित घोषित कर दिया और इजराइल में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध भी लगा दिया. इजराइल का कहना है कि उसके देश पर हमास के लोगों ने हमला किया, सैकड़ों लोगों को मार डाला, सैकड़ों लोगों का अपहरण कर लिया लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने कोई कदम नहीं उठाया. गुटेरेस पर तो यहां तक आरोप लगा दिया कि वे संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में एक दाग की तरह याद किए जाएंगे.
सच्चाई जो भी हो, लेकिन जरा सोचिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विश्वव्यापी संगठन के लिए यह कितनी शर्मनाक बात है कि दुनिया का कोई देश उसके खिलाफ इस तरह का कदम उठाए और वह कुछ न कर पाए! दरअसल संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इसकी उम्र 80 साल हो रही है और वक्त के साथ इसने खुद के भीतर कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं की.
कहने को 193 देश इसके सदस्य हैं लेकिन क्या वाकई यह सभी देशों का प्रतिनिधित्व करता है? अब आप इसी बात से अंदाजा लगाइए कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फ्रांस, चीन, अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, और रूस स्थायी सदस्य बने हुए हैं. बदलते परिदृश्य में क्या भारत को भी सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य नहीं होना चाहिए? निश्चित रूप से होना चाहिए.
इसके लिए अमेरिका, रूस, यूके और फ्रांस ने समर्थन भी दिया है लेकिन चीन विरोध कर रहा है. चीन का तो यह हाल है कि पाकिस्तान में बैठे आतंकवादियों के खिलाफ यदि सुरक्षा परिषद में कोई प्रस्ताव आता है तो चीन बड़ी बेशर्मी से वीटो कर देता है. किसी के पास वीटो का अधिकार क्यों होना चाहिए?
लेकिन हकीकत यह है कि वीटो के इस अधिकार और इसी तरह के दूसरे नियमों ने संयुक्त राष्ट्र को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है! अब ताजा उदाहरण ट्रम्प के भाषण के बाद का ही देखिए! चीन ने देखा कि ट्रम्प संयुक्त राष्ट्र के विरोधी हो गए हैं तो चीन समर्थन में उतर आया है.
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गुओ जियाकुन का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ बहुत अच्छा काम कर रहा है. स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र इस वक्त महज एक कठपुतली है...जिसके पास नचाने की ताकत हो, वो नचा ले! ऐसे संगठन की मौत तय होती है. वक्त का इंतजार कीजिए...!