मार्खेज का अद्भुत संसार और ट्रम्प का चर्चिल न हो पाना
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: October 14, 2025 07:21 IST2025-10-14T07:21:44+5:302025-10-14T07:21:46+5:30
फ्रांज काफ्का भी कभी उनके साहित्यलोक से दूर नहीं जाते, जिनके ‘द मेटामार्फोसिस’ में ग्रेगर साम्सा बेचैन सपनों से जागता है, तो खुद को तिलचट्टे में तब्दील पाता है. होर्खे लुई बोर्खेस भी मार्खेज तक काफ्का से होते हुए ही पहुंचे होंगे.

मार्खेज का अद्भुत संसार और ट्रम्प का चर्चिल न हो पाना
सुनील सोनी
घोर युद्धवादी विंस्टन चर्चिल को 1953 में जब साहित्य का नोबल मिला, तो पुरस्कार कमेटी ने चयन का आधार ‘ऐतिहासिक और जीवनी संबंधी वर्णन में उनकी निपुणता एवं उच्च मानवीय मूल्यों की रक्षा में शानदार वक्तृत्व कला’ को बताया. ‘सैनिक’ चर्चिल का साहित्य और राजनीति में एक साथ आगमन, 1897 के अफगानिस्तान में पश्तून आदिवासियों के खिलाफ युद्ध में भागीदारी के साथ हुआ था, जिसे उन्होंने भारत से लौटकर 1898 में ‘द स्टोरी ऑफ द मलकंद फील्ड फोर्स’ के रूप में लिखा.
मां लेडी रैंडोल्फ चर्चिल को किरदार बनाकर पहली और अंतिम कहानी ‘सावरोला : ए टेल ऑफ दि रेवोल्यूशन इन लावरानिया’ और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध समेत कई वृत्तांत, जीवनियां लिखीं.
यूं भी शांति का नोबल तो दुनियाभर में जारी युद्धों में प्रत्यक्ष-परोक्ष भागीदारी के बावजूद अमेरिका सत्ताधीश पाते ही रहे हैं. इनमें थियोडोर रूजवेल्ट को छोड़ शेष तीन राष्ट्रपति (वुडरो विल्सन, जिमी कार्टर, बराक ओबामा) डेमोक्रेट रहे हैं, जबकि विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर रिपब्लिकन.
ट्रम्प को शांति का नोबल मिल जाता, तो दोनों पार्टियां 3-3 से बराबरी पर होतीं. धुरंधर व्यापारी ट्रम्प शायद आत्मकथा या जीवनी लिखवाकर साहित्य के नोबल पर दावा करते, तो सफल हो जाते. तब ट्रम्पकथा ‘परीकथा’ होती, जिसका नायक असली दुनिया का खलनायक होता.
कोई शक नहीं कि ट्रम्प ने दुनिया को उतने ही विस्मयबोध से भर रखा है, जितने अचरज में इतालवी विद्वान एंतोनियो फिगाफेटा की डायरी पढ़कर सोलहवीं सदी के यूरोपीय लोग रहे होंगे. फर्डिनांड मैगलेन ने 1520 से 1522 तक चली नौ-परिक्रमा कर जब साबित कर दिया कि दुनिया गोल है, तब उनकी जीवन-मृृत्यु की कहानी कहने के लिए ही बच गए फिगाफेटा ने डायरी में सबकुछ दर्ज किया.
240 जहाजियों में से 18 बचकर लौटे, तो फिगाफेटा ही थे, जिन्होंने उस आश्चर्यलोक का वर्णन किया था, जो हकीकत से होकर गुजरता फंतासी फसाना था.
अपने नाम की तरह ही मनमोहक एनिमेशन फिल्म ‘एनकांतो’ को 2020 में दो ऑस्कर पुरस्कारों से नवाजा गया और दुनियाभर के बच्चों ने जिसे कई-कई बार देखा; उसका जादू यथार्थ में नहीं चला था. लेकिन, जादुई यथार्थ को हम आसानी से गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की दुनिया में खोज सकते हैं.
1982 में जब उन्हें साहित्य का नोबल मिला, तो अकादमी के मंच से ‘एकांत’ पर उनका भाषण भी उतना ही जादुई था, जो हकीकत के कठोर धरातल पर कल्पनालोक का सपना बुनता चला जाता था. पाब्लो नेरुदा की दुर्धष कविता से होते हुए यूरोपीय विजयहठ, तानाशाहों की सनकी करतूतों, भीषण जातीय नरसंहारों, भुखमरी और पलायनों, अनिगनत युद्धों के कारण मरे दो करोड़ बच्चों, सैनिकों की हजारों नाजायज औलादों, करोड़ों लोगों के निर्वासन और मृतकों की अधूरी इच्छाओं का जिक्र करते हुए वे जब तथाकथित सभ्य-विकसित दुनिया की हवस का शिकार बनी लैटिन धरा की कथा कह गए, तो लगा कि सच कितना भयावह है कि अतिशयोक्ति बन गया है.
उनके यहां दु:ख का सौंदर्यगान नहीं है, बल्कि साधारण चीजों को असाधारण रूप में देखना है. यह कहते हुए कि इतिहास की अथाह हिंसा और पीड़ा सदियों पुरानी असमानताओं और अकथनीय कड़वाहट का परिणाम है; मार्खेज फिर सपनाए कि इसके बावजूद कहानी के आविष्कारक जीवन का नया, बहुआयामी स्वप्नलोक बना ही लेंगे, जहां प्रेम, खुशी और सबके लिए जीना संभव हो पाएगा.
‘एकांत के सौ बरस’ उनकी इसी हकीकत का फसाना है, जिसका बुनाव उनके बचपन की हर रात नानी डोना ट्रैंक्विलीना इगुआरान कोटस से सुनी साधारण कहानियों से आया है, जिन्हें जादुई ढंग से सुनाया गया था. फ्रांज काफ्का भी कभी उनके साहित्यलोक से दूर नहीं जाते, जिनके ‘द मेटामार्फोसिस’ में ग्रेगर साम्सा बेचैन सपनों से जागता है, तो खुद को तिलचट्टे में तब्दील पाता है. होर्खे लुई बोर्खेस भी मार्खेज तक काफ्का से होते हुए ही पहुंचे होंगे.
कितने ही फिल्मकारों ने 1967 के ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ पर सिनेमा बनाने की मंजूरी मांगी, पर मार्खेज मृत्यु तक नहीं माने. कहते रहे, उपन्यास सिनेमा की विरोधी विधा में लिखी गई जटिल, कठिन और लंबी परतदार कथा है. कोई उससे न्याय नहीं कर पाएगा. आखिर पिछले साल परिजनों की सहमति से कोलंबिया सरकार ने अपनी देखरेख में दो भागों में वेबसीरीज बनवाई, तो लगा कुछ न्याय तो हुआ है, पर मार्खेज होते, तो ठीक से जांचते.