Sheikh Hasina verdict: बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को वहां के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ने आखिरकार फांसी की सजा सुना दी. यह अप्रत्याशित नहीं है. जिस तरह से अमेरिका के दबाव में बांग्लादेश की गैरकानूनी और असंवैधानिक सरकार काम कर रही है, उसमें किसी किस्म की नरमी या पूर्व प्रधानमंत्री के प्रति सहानुभूति की उम्मीद करना ही बेकार था.
मोहम्मद यूनुस की अंतरिम हुकूमत पूरी तरह निर्वाचित सरकार की तरह बर्ताव कर रही है. क्या यह अटपटा नहीं लगता कि शेख हसीना वाजेद की न तो गवाही हुई, न उन्हें बचाव का मौका दिया गया और न ही वे अपने पक्ष के गवाहों को अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के सामने प्रस्तुत कर सकीं.
दिलचस्प यह है कि इसी अलोकतांत्रिक सरकार ने इस शिखर न्यायिक संस्था का लगभग साल भर पहले अक्तूबर में पुनर्गठन किया था. बिजली की तेजी से इस अपराध न्यायाधिकरण ने गठन होते ही पूर्व प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी अवामी लीग के 45 नेताओं के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया.
जांच दल को निर्देश दिया गया कि छात्र आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के मामले की जांच महीने भर में यानी दिसंबर 2024 तक पूरी कर दें. इस साल एक जून को मुकदमा शुरू हुआ तथा अदालत में उपस्थित नहीं होने के कारण हसीना को छह महीने की सजा सुना दी गई.
दो अक्तूबर को जांच पूरी हो गई और 17 नवंबर को पूर्व प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में गृह मंत्री रहे असदुज्जमां खान कमाल को सूली पर लटकाने का फरमान जारी हो गया. संसार में शायद ही इतनी तेजी से किसी पूर्व राष्ट्राध्यक्ष को फांसी चढ़ाने का फैसला हुआ होगा. विश्व बिरादरी अब ऐसे मामलों पर चिंता भी नहीं करती.
मानवाधिकार मूल्यों के प्रति आधुनिक समाज संवेदना के किसी स्तर पर जुड़ाव महसूस नहीं करता. चूंकि इन दिनों बांग्लादेश पाकिस्तान के जरिये अमेरिका से संचालित हो रहा है इसलिए पाकिस्तान की इसमें कोई भूमिका नहीं रही होगी- यह नहीं माना जा सकता. दरअसल पाकिस्तान भी अपने एक पूर्व प्रधानमंत्री और लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित जुल्फिकार अली भुट्टो को कमोबेश इसी शैली में सूली पर लटका चुका है. मैं याद कर सकता हूं कि 4 अप्रैल 1979 को भुट्टो को रावलपिंडी जेल में जब फांसी दी गई थी,
तो संसारभर से चुनिंदा पत्रकारों को भुट्टो की फांसी का लोमहर्षक दृश्य देखने और उसका कवरेज करने बुलाया गया था. वह भी क्या ही अनोखी बात थी कि लाहौर की शादमान कॉलोनी के समीप प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी के राजनीतिक कार्यकर्ता अहमद रजा कसूरी का परिवार घर से बाहर निकला.
गाड़ी में अहमद के पिता नवाब मोहम्मद अहमद खान कसूरी और उनकी पत्नी अपनी बहन के साथ बैठी थी. अचानक कुछ नकाबपोश आए और उन पर अंधाधुंध गोली बरसानी शुरू कर दी. इसमें अहमद रजा कसूरी के पिता मारे गए. एफआईआर में अहमद रजा कसूरी ने हत्यारे का नाम प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के रूप में लिया, जो उस घटना के वक्त सैकड़ों किलोमीटर दूर थे.
इसी बीच 5 जुलाई 1977 को मार्शल लॉ लगा दिया गया. भुट्टो का तख्तापलट हो गया और फौज ने सत्ता संभाल ली. जनरल जिया उल हक पाकिस्तान के तानाशाह बन बैठे. उन्होंने इस मामले को हवा दी. भुट्टो को जेल भेज दिया गया, लेकिन उनका कोई सीधा हाथ नहीं पाया गया, लिहाजा अदालत से जमानत मिल गई. भुट्टो बाहर आ गए.
जनरल जिया इससे इतने खफा हुए कि उन्होंने जमानत देने वाले जज को हटा दिया और भुट्टो फिर जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए. अगले साल यानी 18 मार्च 1978 को अदालत ने विवादास्पद निर्णय लिया और भुट्टो को मौत की सजा सुनाई. जब भुट्टो को फांसी दी जा रही थी तो अवाम ने चूं तक नहीं किया.
अब इस फांसी के 45 साल बाद पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भुट्टो के खिलाफ चलाए गए मुकदमे की सुनवाई संविधान के अनुरूप नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो को निष्पक्ष ट्रायल नहीं दिया गया था. हिंदुस्तान के पूरब और पश्चिम में शिखर नेताओं की असामान्य मौतों की अब परंपरा सी बनती जा रही है.
पाकिस्तान में लोकप्रिय सरकार देने वाली बेनजीर भुट्टो को भी इसी तरह एक विस्फोट में मार डाला गया. संदेह की सुई फौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ पर गई, जो काफी हद तक सच भी है. बांग्लादेश के जनक और राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान को परिवार के आठ सदस्यों के साथ गोलियों से छलनी कर दिया गया. गनीमत थी कि उनकी बेटी शेख हसीना उनके साथ नहीं थी.
बताने की जरूरत नहीं कि इसके पीछे कौन था. इसके बाद अगले राष्ट्रपति जियाउर्रहमान भी फौजी बगावत में गोलियों का निशाना बन गए. शेख हसीना वाजेद जब सत्ता में आईं तो उन्होंने प्रतिपक्ष के साथ भी कोई अच्छा सुलूक नहीं किया. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की नेत्री और जियाउर्रहमान की बेगम खालिदा जिया को लंबे समय तक कारावास में रहना पड़ा.
लेकिन इस सबके बावजूद शेख हसीना की सरकार ने लगातार चुनाव जीतकर मुल्क को लोकतांत्रिक स्थिरता दी और बांग्लादेश की डगमगाती नाव को संभाला. जब सबकुछ ठीक चल रहा था तो एक नकली आंदोलन के कारण उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा. अब फौज मोहम्मद यूनुस को सामने रखकर परदे के पीछे से सरकार चला रही है.
भुट्टो और शेख हसीना को मृत्युदंड देने के पीछे लगभग एक जैसे कारण हैं. हसीना ने अमेरिका को सेंट मार्टिन द्वीप नहीं देकर बैर मोल लिया था. इसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ा. असल में वैश्विक स्तर पर जिस तरह अब सत्ता के लिए गिरोहबंदी करके हिंसा का सहारा लिया जा रहा है, वह बेहद खतरनाक चेतावनी दे रहा है.
हालांकि भारतीय लोकतंत्र की नींव बीते 78 साल में इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी हैं कि यहां ऐसे घटनाक्रम आसान नहीं हैं. बड़ा कारण है कि पाकिस्तान की नींव मोहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन यानी सीधे-सीधे मारो जैसी नृशंस क्रिया से पड़ी थी तो हिंदुस्तान के लोकतंत्र की नींव महात्मा गांधी के सपने को ध्यान में रखते हुए डाली गई थी.
एक मुल्क जिन्ना को कायदेआजम कहता है, जिसने किसी भी खूनखराबे से परहेज नहीं किया और महात्मा गांधी उसी खून-खराबे को रोकने के लिए बंगाल के नोआखाली गए और कामयाब रहे. यही दोनों राष्ट्रों की गर्भनाल में अंतर है.