Russia-Urkaine War: ट्रम्प और पुतिन की शिखर बैठक के जटिल पेंच?, रूस-यूक्रेन युद्ध विराम करने पर सहमत!
By राजेश बादल | Updated: March 18, 2025 05:14 IST2025-03-18T05:14:21+5:302025-03-18T05:14:21+5:30
Russia-Urkaine War: रूस की अपनी कुछ शर्तें हैं और यही शर्तें युद्ध विराम तक पहुंचने में बाधा बन सकती हैं. मसलन रूस कहता है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल होने की जिद छोड़ देनी चाहिए.

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Russia-Urkaine War: मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात होने जा रही है. यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ अत्यंत तनावपूर्ण बैठक के बाद ट्रम्प ने उन्हें मानसिक रूप से एक तरह से घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है. अब चर्चा के सूत्र रूस और अमेरिका के हाथ में हैं. यदि इस बैठक के बाद रूस और यूक्रेन एक महीने का युद्ध विराम करने पर सहमत हो जाते हैं तो निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण घटना होगी. पर सवाल यह है कि ऐसा हो सकेगा? सैद्धांतिक रूप से जेलेंस्की और पुतिन दोनों ने इस पर अपनी सहमति जताई है, पर रूस की अपनी कुछ शर्तें हैं और यही शर्तें युद्ध विराम तक पहुंचने में बाधा बन सकती हैं. मसलन रूस कहता है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल होने की जिद छोड़ देनी चाहिए.
पुतिन ऐसा आश्वासन नाटो देशों की तरफ से भी चाहते हैं. तर्क रखना हो तो कहा जा सकता है कि यह मुमकिन है क्योंकि यदि नाटो देश यूक्रेन को सदस्यता देना ही चाहते तो अब तक रुके क्यों रहे? पंद्रह बरस से यूक्रेन की अर्जी को वे ठंडे बस्ते में दबाए बैठे हैं और स्वीडन को रूस-यूक्रेन की जंग के दरम्यान ही मेम्बरशिप दे दी गई.
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर डोनाल्ड ट्रम्प के दोबारा उभरने से पहले तो एकबारगी यूक्रेन की सदस्यता आसान थी, क्योंकि जो बाइडेन यूरोपीय यूनियन के साथ खड़े थे और खुलकर रूस के विरोध में थे. ट्रम्प ने अपना दूसरा कार्यकाल संभालते ही रूस के पक्ष में बयानबाजी शुरू कर दी थी. अब ट्रम्प और यूरोपीय यूनियन के बीच मतभेद खुलकर सामने आ चुके हैं.
इसलिए नाटो देशों के सामने असमंजस की स्थिति बन गई है. अब वे अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए यूक्रेन को सदस्य नहीं बनाते तो प्रश्न उठता है कि तीन साल चली इस जंग का मतलब ही क्या रहा? फिर ब्रिटेन की अगुआई में नाटो देशों के कुछ सदस्य यूक्रेन में अपने सैनिक भेजते हैं तो क्या वे रूस और अमेरिका से एक साथ मोर्चा लेने की स्थिति में हैं.
हास्यास्पद स्थिति तो यह भी हो सकती है कि मंगलवार की शिखर वार्ता के बाद यूक्रेन यह वचन पत्र भर देता है कि वह अब उदासीन हो जाएगा और नाटो में अपनी सदस्यता का आवेदन वापस लेता है तो यूरोपीय राष्ट्र क्या करेंगे ? यह तो मैं पहले भी इस पन्ने पर अपने आलेखों में लिख चुका हूं कि अंततः यूक्रेन ही लुटा-पिटा देश होगा. पहले वह यूरोपीय देशों और अमेरिका का खिलौना था.
अब भी वह अमेरिका की कठपुतली बन जाएगा. कुछ-कुछ अतीत में कोरिया युद्ध की तरह, जब एक-एक हिस्सा अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने अपने प्रभाव में ले लिया था. वैसे ट्रम्प के इस रवैये पर दो तरह की राय रखी जा सकती है. एक तो यह कि गुजिश्ता साठ-सत्तर वर्षों में अमेरिका के भरोसेमंद साथी रहे अन्य गोरे देशों की नाराजगी ट्रम्प ने क्यों मोल ली?
यदि यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध विराम कराना ही था तो गोरे देश उसका विरोध तो नहीं ही करते. फिर क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि ट्रम्प अकेले ही जंग समाप्त कराने का श्रेय लेना चाहते हैं और यूक्रेन के संसाधनों को यूरोपीय देशों के साथ मिल-बांट कर खाने के बजाय अकेले अमेरिका का कब्जा करना चाहेंगे.
मरता क्या न करता वाले अंदाज में तो जेलेंस्की पहले ही अपने खनिज संसाधनों का पचास प्रतिशत अमेरिका को सौंपने पर सहमति दे चुके हैं. दूसरा पेंच रूस के कब्जे में हजारों यूक्रेनी सैनिक युद्धबंदियों का है. रूस जब तक यह सुनिश्चित नहीं कर लेता कि उसने यूक्रेन की कमर स्थायी तौर पर तोड़ दी है, तब तक वह इन सैनिकों को रिहा नहीं करेगा.
एक महीने के बाद भी वह इन कैदियों को नहीं छोड़ेगा. प्रतीकात्मक रूप से भले ही वह कुछ सैनिकों को छोड़ दे, मगर यह सैनिक उसके पास तुरुप के पत्ते की तरह हैं. ट्रम्प ने अपने एक ऐलान में कहा है कि उन्होंने पुतिन से इन सैनिकों की जान बख्श देने का अनुरोध किया है. यह छिपा हुआ नहीं है कि पुतिन विरोधी सैनिकों को किस तरह यातना देकर मारते हैं.
इसलिए शायद ट्रम्प ने दूसरे विश्व युद्ध का उदाहरण देते हुए यूक्रेन को डराया कि इन सैनिकों का मारा जाना ऐसा नरसंहार होगा, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी नहीं देखा गया. इसलिए रूस चाहेगा कि यूक्रेन के यह सैनिक लंबे समय तक उसकी हिरासत में रहें और जेलेंस्की यकीनन सैनिकों को सबसे पहले रिहा कराना चाहेंगे.
यह कठिन स्थिति होगी कि यूक्रेन के हाथ से हारा हुआ भौगोलिक क्षेत्र भी निकल जाए, नाटो की सदस्यता भी नहीं मिले और उसके सैनिक भी रूस की कैद में बने रहें और वह भविष्य में रूस के बारे में न्यूट्रल रहने का वादा भी लिखित में कर दे. इसलिए महीने भर के लिए अस्थायी युद्ध विराम यूक्रेन के लिए पराजय से कम नहीं होगा.
अलबत्ता जेलेंस्की को यूक्रेन के सियासी मंच से थोड़ा इज्जत के साथ विलुप्त होने का मौका मिल जाएगा. वे अपने देश में बेहद अलोकप्रिय हो चुके हैं. उनका कार्यकाल पूरा हो चुका है और युद्ध विराम के साथ ही यूक्रेन उनका एक ऐसा उत्तराधिकारी खोज ले, जो रूस के इशारों पर नाचे. यानी रूस और अमेरिका के बीच यूक्रेन का झूलते रहना उसकी नियति बन सकती है.
मंगलवार को यदि दोनों देश युद्ध विराम के किसी समझौते के निकट पहुंचते हैं तो ट्रम्प के लिए निश्चित रूप से दूर की कौड़ी साबित हो सकता है. रूस चूंकि यूरोप और एशिया में बंटा हुआ है इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प एशिया में कारोबारी विस्तार की नए सिरे से संभावनाएं खोज सकते हैं.
हां यह संभव है कि चीन को युद्ध विराम में अमेरिका की मध्यस्थता पसंद नहीं आए. लेकिन उसकी चिंता डोनाल्ड ट्रम्प को क्यों करनी चाहिए? रूस तो वैसे भी तात्कालिक हितों के मद्देनजर चीन के निकट आया था अन्यथा कुछ द्वीपों पर स्वामित्व को लेकर तो चीन और रूस के बीच भी जंग हो चुकी है.