राजेश बादल का ब्लॉग: तालिबान समझौते के बाद भी राह आसान नहीं  

By राजेश बादल | Published: March 3, 2020 05:49 AM2020-03-03T05:49:11+5:302020-03-03T05:49:11+5:30

दरअसल तालिबान-अमेरिकी करार से अनेक संशय भरे सवाल उभरते हैं. अव्वल तो यह कि अब तक जंग लड़ रहे तालिबान और अफगानिस्तान की सरकार के रिश्ते आने वाले दिनों में कैसे होंगे?

Rajesh Badal's blog: The path is not easy even after the Taliban agreement | राजेश बादल का ब्लॉग: तालिबान समझौते के बाद भी राह आसान नहीं  

तालिबान समझौता

तालिबान के साथ अमेरिका का समझौता दरअसल दुनिया के सबसे बड़े चौधरी की कूटनीतिक पराजय है. सैनिकों की वापसी का सम्मानजनक सा दिखने वाला यह रास्ता इस उपमहाद्वीप के लिए बेहद खतरनाक संकेत है. भले ही डोनाल्ड ट्रम्प ने दूसरी सियासी पारी के मद्देनजर यह दांव खेला हो, लेकिन नहीं कहा जा सकता कि अफगानिस्तान में अब अमन-चैन बहाल हो ही जाएगा.

अठारह साल के दरम्यान इस मुल्क ने जो भुगता है, उसने इसे एक बेजान देह में तब्दील कर दिया है. उसमें प्राण फूंकना कोई आसान काम नहीं है. उसका कारण यह है कि समझौता अफगानिस्तान में खुशहाली के लिए नहीं, बल्कि किसी तरह अमेरिकी सैनिकों का वहां से पिंड छुड़ाने के लिए निकाला गया मजबूरी भरा रास्ता है. जानकार मान रहे हैं कि जैसे ही अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव संपन्न होंगे, अफगानिस्तान में अस्थिरता का एक नया दौर शुरू होने की आशंका है.

दरअसल तालिबान-अमेरिकी करार से अनेक संशय भरे सवाल उभरते हैं. अव्वल तो यह कि अब तक जंग लड़ रहे तालिबान और अफगानिस्तान की सरकार के रिश्ते आने वाले दिनों में कैसे होंगे? तालिबान ने यह समझौता कोई क्रिकेट खेलने के लिए नहीं किया है. वे हर हाल में सत्ता में भागीदारी चाहेंगे. 

अमेरिकी बैसाखियां हट जाने के बाद अफगानिस्तान की अमेरिकी कठपुतली सरकार उन्हें कैसे रोकेगी? अपने दम पर अगर वह तालिबान को रोकने में सक्षम होती तो फिर नाटो फौज की जरूरत ही क्या थी? अफगानी जनता शांति चाहती है और तालिबान के सत्ता में आने की कल्पना ही उन्हें डरा देती है. यह सच है कि एक वर्ग तालिबान का भी समर्थक है और वह देश में किसी भी तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है. 

तालिबान के डर से अशरफ गनी और डॉक्टर अब्दुल्ला किसी तरह साथ हैं अन्यथा उनके आपसी रिश्ते जगजाहिर हैं. अमेरिकी रौब नहीं रहने पर तालिबान उनकी दुर्गति नहीं करेंगे-यह भी नहीं कहा जा सकता. यानी देश में एक नए गृह युद्ध की आशंका खड़ी हो गई है.

यह छिपा तथ्य नहीं है कि तालिबान के पीछे पाकिस्तान का हाथ है. पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक ढंग से ऐसी कोई सरकार बनी रहे, जिसकी सहानुभूति भारत से हो. वर्तमान में भारत ने अफगानिस्तान में चुनाव आयोग को भरपूर संरक्षण-प्रशिक्षण दिया है. यह सच्चाई पाकिस्तान को रास नहीं आ रही है. इसलिए वह तालिबान को हरसंभव मदद करेगा, जिससे वह सत्ता पर काबिज हो और भारत का प्रभाव घटाया जा सके. जब तक तालिबान के हाथों में हुकूमत नहीं आएगी, पाकिस्तान चैन से नहीं बैठेगा. 

तालिबान के सरकार में आने के बाद पाकिस्तानी सेना की पौ बारह हो जाएगी. बीते सत्तर साल में वह पहली बार कंगाली की इतनी मार ङोल रही है. उसके अपने खर्चो पर रोक लग गई है और अनेक धंधे बंद हो गए हैं. अफीम का गैरकानूनी कारोबार तालिबान और पाक फौज की कमाई का बड़ा स्रोत रहा है. इससे दोनों खुश होंगे. इसके अलावा पिछले दिनों सख्ती से अफगान सीमा पर कश्मीरी आतंकियों के प्रशिक्षण शिविर भी बंद करने पड़े थे. तालिबान के आने से एक बार फिर कश्मीर में नए सिरे से आतंकवादियों की घुसपैठ कराई जा सकेगी.

तालिबान के जरिए अमेरिका चीन को भी चिकोटी काटने के लिए आजाद हो जाएगा. सर्वविदित है कि चीन के शिनजियांग तथा आसपास के इलाके में आतंकवादी शिविर चलते रहे हैं. चीन इनके लिए तालिबान तथा उसके समर्थक अन्य आतंकवादी गुटों पर आरोप लगाता रहा है. अब इस समझौते के बाद अमेरिका तालिबान का उपयोग चीन के खिलाफ भी कर सकेगा. तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते की अनेक शर्ते गुप्त रखी गई हैं. इन शर्तो की भनक पाकिस्तान तक को नहीं है इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि अमेरिका अब इस उपमहाद्वीप में अपने रिश्तों के नए समीकरण बना रहा है. देखा जाए तो इस करार ने चीन की चिंताएं भी बढ़ाई हैं.  

भारत के लिए भी अफगानिस्तान में तालिबान का आना शुभ संकेत नहीं है. अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारतीय पूंजी निवेश घाटे का सौदा बन सकता है. इसके अलावा ईरान के चाबहार बंदरगाह से भी अफगानिस्तान के लिए माल ढुलाई कठिनाई में पड़ सकती है. चूंकि पाकिस्तान ने भारत पर सड़क के रास्ते माल भेजने पर पहले ही रोक लगा दी थी, इसलिए भारत ने ईरान के चाबहार से अफगानिस्तान सीमा तक सड़क निर्माण किया था. इस सड़क निर्माण के दौरान तालिबान आतंकवादियों ने अनेक भारतीय मजदूरों की हत्या कर दी थी क्योंकि पाकिस्तान इसे पसंद नहीं कर रहा था.  

इरादा यही था कि इस बंदरगाह से ईरान और अफगानिस्तान के लिए निर्यात बढ़ाया जा सकेगा. यह बंदरगाह एक तरह से पाकिस्तान में चीन की ओर से बनाए गए ग्वादर बंदरगाह के जवाब में बनाया गया, जो भारतीय नौसेना की क्षमता में इजाफा करता है. तालिबान के आने के बाद से क्या चाबहार के जरिए भारत अपना माल अफगानिस्तान भेज सकेगा - यह भी एक जटिल मुद्दा है. कुल मिलाकर अब अगर तालिबान और पाकिस्तान की अफगानिस्तान में भूमिका बढ़ती है तो हिंदुस्तान को अपने हित संरक्षण के लिए नए सिरे से कदम उठाने पड़ेंगे. यह आसान काम नहीं है.

Web Title: Rajesh Badal's blog: The path is not easy even after the Taliban agreement

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