रहीस सिंह का ब्लॉगः मालदीव ने रचा नया इतिहास
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 12, 2019 16:16 IST2019-04-12T16:14:12+5:302019-04-12T16:16:19+5:30
क्या हम यह मान लें कि मालदीव में मोहम्मद नशीद की यह विजय असल में भारत की विजय है? या फिर यह मोहम्मद नशीद की राजनीतिक योग्यता का परिणाम है ?

मालदीव ने रचा नया इतिहास
रहीस सिंह
हिंद महासागर में स्थित भारत के पड़ोसी द्वीपीय देश मालदीव में फिर से एक नया इतिहास लिखा जाता हुआ दिख रहा है। दरअसल जिन मोहम्मद नशीद को षडयंत्रों के जरिए सत्ता से बेदखल किया गया था अब उनकी पार्टी संसदीय चुनाव में संसद (मजलिस) की 87 सीटों में से 67 पर जीत दर्ज कर प्रचंड बहुमत हासिल कर चुकी है। ध्यान रहे कि संसदीय चुनावों में इस ऐतिहासिक जीत से पहले ही एमडीपी के उम्मीदवार राष्ट्रपति सालिह प्राग्रेसिव पार्टी के तानाशाह अब्दुल्ला यमीन को हरा चुके हैं।
अब सवाल यह उठता है कि इन दोनों जीतों को किस तरह से देखा जाए? क्या हम यह मान लें कि मालदीव में मोहम्मद नशीद की यह विजय असल में भारत की विजय है? या फिर यह मोहम्मद नशीद की राजनीतिक योग्यता का परिणाम है ? चूंकि नशीद और सालिह भारत समर्थक हैं, इसलिए हम वाया नशीद यह मान सकते हैं कि यह भारत की कूटनीतिक विजय है सीधे तौर पर ऐसा मानना थोड़ा मुश्किल लग रहा है। हां इस गेम में चीन की पराजय अवश्य हुयी है क्योंकि चीन का अरबों डाॅलर मालदीव में लगा हुआ था और मालदीव चीन की ‘स्ट्रिंग आॅफ पल्र्स’ स्ट्रैटेजी की एम महत्वपूर्ण कड़ी भी था?
एक सवाल यह भी है कि क्या मालदीव का यह नव-राजनीतिक अध्याय बिना किसी अवरोध के पूरा होगा या फिर अभी इसके सामने ऐसी चुनौतियां भी आ सकती हैं जिनका सामना करना मालदीव के लिए मुश्किल होगा? मोटे तौर पर मालदीव में मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत भारत के लिए खुशी और चीन के लिए दुःखद है। ऐसा इसलिए कि हिन्द महासागर के इस द्वीप में भारत और चीन के बीच कूटनीतिक और रणनीतिक प्रतिस्पर्धी चलती रहती है। दोनों देश एक दूसरे से आगे निकलने और एक दूसरे के हितों को काउंटर करने के उद्देश्य ‘कैट एण्ड माइस’ गेम मुक्त अथवा छद्म रूप से खेलते रहते हैं।
इस स्थिति में वहां पहले मोहम्मद नशीद की पार्टी के उम्मीदवार इब्राहिम सालिह का राष्ट्रपति बनना और फिर संसद की लगभग तीन-चैथाई सीटों पर कब्जा जमा लेना, वास्तव में अब्दुला यामीन और उनकी प्रोग्रेसिव पार्टी की नहीं बल्कि चीन की ही हार है। हम इसे चीन की हार क्यों कह रहे हैं? क्योंकि इसके पीछे चीन का एक जटिल सामरिक अर्थशास्त्र छुपा है जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है। मोहम्मद नशीद को जब सत्ता से हटाया गया था तब उन्होंने आरोप लगाया था कि उनसे बंदूक की नोक पर इस्तीफा लिया गया था। किसके इशारे पर? उनके मुताबिक चीन के।
उन्होंने हिन्द महासागर की सुरक्षा और स्थिरता का सवाल भी उठाया था। जिसका एक पक्ष यह था कि मालदीव की उन लोकतांत्रिक संस्थाओं, जिनका कुछ कट्टरपंथी ताकतें, सेना और पूर्व तानाशाह मोमैन अब्दुल गयूम के सिपहसालार पहले से ही अपहरण किये हुए थे, के चीनी नियंत्रण में चले जाने की संभावनाएं थीं। यह सच है कि उस समय मालदीव की कट्टरपंथी ताकतें और अब्दुल गयूम के साथ-साथ सेना भी मोहम्मद नशीद को राष्ट्रपति बनते देखना नहीं चाहती थीं। इसी षडयंत्र का परिणाम कि गयूम के सौतेले भाई अब्दुल्ला यमीन सत्ता में आ गये थे।
दूसरा पक्ष यह है कि नशीद ने उस समय यह स्वीकार किया था उन पर चीन के साथ रक्षा समझौता करने का दबाव था, जिससे वेे इनकार कर रहे थे। उनके अनुसार उनके पद छोड़ने से तीन महीने पहले मालदीवियन नेशनल डिफेंस फोर्स ने उनकेे पास समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कागजात भेजे थे, लेकिन नशीद ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद ही नशीद का तख्तापलट हुआ जिसमें मालदीव की सेना ने अहम भूमिका निभाई थी। यानि नशीद को हटाने की पटकथा चीन में लिखी गयी थी, जिसे मालदीव की सेना व्यवहारिक धरातल पर उतारने का काम किया था।
इसका परिणाम यह हुआ कि नशीद के बाद अब्दुल्ला यमीन राष्ट्रपति बने और उन्होंने चीन को मालदीव में निवेश की खुली छूट दे दी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की माले की यात्रा सम्पन्न हुयी और इसके अब्दुल्ला यामीन की पेइचिंग यात्रा। इन यात्राओं के ने मालदीव में ‘मेरीटाइम सिल्क रूट’ का मार्ग प्रशस्त किया और चीन को मालदीव में निवेश की खुली छूट मिल गयी। इसे देखते हुए नशीद ने तो यहां तक आरोप लगाया था कि चीन मालदीव को खरीद रहा है। उनके अनुसार अब्दुल्ला यमीन सरकार ने प्रक्रिया की पारदर्शिता का ख्याल रखे बिना ही चीनी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। फलतः चीनी कर्ज के दलदल में फंस गया, जो लगभग 3 अरब डॉलर तक हो सकता है।
कॉमनवेल्थ समर्थित न्यायिक आयोग की रिपोर्ट कमोबेश नशीद के आरोपों का समर्थन करती है। रिपोर्ट का कहना है कि चीन ने माले को अपने पाले में करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चरल डिवेलपमेंट के लिए जमकर कर्ज दिया और राजधानी माले को एयरपोर्ट से जोड़ने वाले सी ब्रिज, एयरपोर्ट के विस्तार और कुछ रेजिडेंशियल टावर ब्लॉक बनाने का कार्य किया। इसके अलावा चीन ने मालदीव की कुछ सरकारी कंपनियों को विभिन्न इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स के लिए 90 करोड़ डॉलर का कामर्शियल ऋण दिया।
यही नहीं, यामीन ने चीन को मारओ बंदरगाह देने के पश्चात उसके साथ ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ साइन किया। इस एग्रीमेंट के तहत जुलाई 2015 को मालदीव की संसद ने एक बिल पास किया जो विदेशी निवेशकों को जमीन पर अधिकार प्रदान करता है। यह सब चीन के लिए किया गया था क्योंकि इसी कानून के आधार पर चीन सामरिक महत्व वाले 16 द्वीपों को ठेके (लीज) पर प्राप्त कर चुका है। इसके दो परिणाम निकलने थे। एक- इन द्वीपों पर चीन की लाल सेना के अड्डे बनने के रास्ता साफ। दो- मालदीव के चीन के आर्थिक उपनिवेश बनने की प्रक्रिया की शुरूआत।
अब ये स्थितियां उलटेंगी। उल्लेखनीय है कि चुनाव से पहले राष्ट्रपति साहिल ने पिछली सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच चीन के साथ पूर्व सरकार के समझौतों की जांच कराने का वादा किया था। उन्होंने कहा था नई संसद के समर्थन से भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जाएगी और इसके लिए अलग से कमीशन बनाया जाएगा। इसकी शुरूआत सालिह पहले ही कर चुके हैं। उन्होंने सत्ता में आते ही चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते को रद कर दिया था। लेकिन चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में मालदीव पर अरबों डाॅलर का बम फोड़ दिया। मोहम्मद नशीद ने दावा किया था कि मालदीव पर चीन का कर्ज 3.2 अरब डॉलर (करीब 22,611 करोड़ रुपये) है। हालांकि चीन इस मात्रा से इन्कार कर रहा था, फिर चीन कर्ज से निकल पाना मालदीव के लिए आसान नहीं होगा। उससे मदद की जरूरत होगी। क्या भारत इतनी बड़ी मदद कर पाएगा?
भारत मालदीव को लो इण्ट्रेस्ट लोन देने की पेशकश की है। लेकिन चीन का ग्लोबल टाइम्स इसे भारत की ओल्ड ट्रिक बता रहा है। हालांकि भारत ने इसके साथ दो शर्तें भी जोड़ी हैं। पहली चीन से दूरी और दूसरी मालदीव में भारतीय सेना की नियमित तैनाती। कारण यह है कि जहां-जहां चीन होगा वहां-वहां भारत मज़बूत नहीं रह सकता है।
फिलहाल भारत ने मालदीव के साथ स्ट्रैटेजिक बाॅण्ड निर्मित करने के लिए 1.4 अरब डाॅलर की वित्तीय सहायता देकर एक शुरूआत की है जिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रपति इब्राहीम सालिह ने ‘इंडिया फस्र्ट पॉलिसी’ की वकालत की। लेकिन भारत चीन के मुकाबले बहुत छोटी अर्थव्यवस्था है इसलिए वह चीनी कर्ज की प्रतिपूर्ति नहीं कर पाएगी। फिर तो हमें अपने दिमाग में इनती बात भली-भांति बिठा लेनी चाहिए कि मालदीव में चीनी गेम अभी ओवर नहीं हुआ है। अभी तो केवल रेफरी बदला है।