नेपाल में सेना की भूमिका पर उठते सवाल

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 11, 2025 07:25 IST2025-09-11T07:24:36+5:302025-09-11T07:25:54+5:30

यह अलग बात है कि ओली या प्रचंड के जमाने में इस रिश्ते को नेपाल की सरकार ने तार-तार करने की कोशिश की लेकिन भारत ने हमेशा संयम से काम लिया है. ओली जब चीन की गोद में बैठकर भारत पर भौंक रहे थे तब भी भारत ने शांति से काम लिया.

Questions arising on the role of army in Nepal | नेपाल में सेना की भूमिका पर उठते सवाल

नेपाल में सेना की भूमिका पर उठते सवाल

नेपाल में अचानक इतना बड़ा उपद्रव कैसे हो गया, यह किसी के भी पल्ले नहीं पड़ रहा है. बस कयास लगाए जा रहे हैं लेकिन इसके साथ ही कई गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं. प्रदर्शनकारियों ने नेपाली संसद, 122 साल पुराने महल और सबसे बड़े प्रशासनिक भवन सिंह दरबार, राष्ट्रपति भवन से लेकर प्रधानमंत्री आवास और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक को आग लगा दी. सबसे गंभीर सवाल है कि ये सभी स्थान नेपाली सेना के सुरक्षा घेरे में थे तो प्रदर्शनकारी वहां तक पहुंचे कैसे?

सर्वोच्च न्यायालय तो सेना मुख्यालय के बिल्कुल पास है, फिर उसे भी कैसे जला दिया? क्या युवाओं की उग्र भीड़ के आगे सेना नतमस्तक हो गई? यदि हां तो यह सबसे गंभीर मसला है. सरकारी संपत्तियों को कोई भीड़ आग के हवाले करती रहे और सेना चुप्पी साध ले तो उसकी नीयत पर सवाल खड़े होंगे ही. नेपाल के सेनाध्यक्ष जनरल अशोक राज सिंगडेल ने तत्काल स्थिति को क्यों नहीं संभाला?

जिस तरह से प्रमुख संस्थानों को निशाना बनाया गया है, उससे यह सवाल भी पैदा हो रहा है कि प्रदर्शनकारियों का उद्देश्य तो सत्ता का तख्तापलट होना चाहिए था, संस्थानों को आग के हवाले क्यों किया? बदली हुई परिस्थितियों में जो भी सरकार आएगी, उसे भी तो इन संस्थानों की जरूरत पड़ेगी!

बिना संसद के क्या काम चलेगा? इसीलिए यह सवाल भी पैदा हो रहा है कि नेपाल को वर्षों पीछे धकेलने के लिए कहीं कोई अदृश्य शक्ति तो काम नहीं कर रही है? अब चूंकि कोई प्रमाण अभी उपलब्ध नहीं है इसलिए केवल शंका व्यक्त की जा सकती है, किसी का नाम नहीं लिया जा सकता लेकिन उन अदृश्य ताकतों को हमने बांग्लादेश और श्रीलंका में तख्तापलट करते देखा है. नेपाल के तख्तापलट में क्या उन्हीं अदृश्य ताकतों की भूमिका है?

नेपाल को लेकर कुछ ताकतें तो स्पष्ट रूप से सामने रही हैं और कुछ ताकतें पर्दे के पीछे से भूमिका निभाती रही है. यहां तक कि नेपाल की धरती से दुनिया भर के अंडरवर्ल्ड ऑपरेट भी करते रहे हैं. नेपाल से इतने फैक्टर जुड़े हैं कि इस बात का विश्लेषण करना अभी वाकई कठिन है कि वहां ये परिस्थितियां किसने पैदा कीं. सामान्य तौर पर दिखाई यही दे रहा है कि वहां के युवा सोशल मीडिया पर प्रतिबंध से नाराज हो गए और प्रदर्शन शुरू हो गया. फिर यह भी कहा गया कि ओली के जमाने में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया था. नेताओं के बच्चे विदेशों में ऐश कर रहे थे और सामान्य युवा दो जून की रोटी के लिए भी तरसने लगे थे.

यह बात समझ में आती है कि युवा नाराज थे लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि बगैर किसी नेतृत्व के इतने सारे लोग प्रदर्शन के लिए एकत्रित कैसे हो गए? उन्हें किसने संदेश दिया कि अमुक जगह पर इकट्ठा होना है? यह संदेश दिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने. अब सवाल उठता है कि क्या किसी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को मैनेज किया? तो किसने किया? ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म विदेशी धरती से संचालित होते हैं और एक तरह का मैसेज सबके स्क्रीन पर फ्लैश करने लगे तो शंका पैदा होना स्वाभाविक है. बहरहाल, नेपाल में जो कुछ भी चल रहा है, उससे भारत को भी चिंतित होना चाहिए या नहीं?

इस सवाल का जवाब तो यही है कि जब आपके पड़ोस में आग लगी हो तो फिर आप चैन से कैसे बैठ सकते हैं? नेपाल और भारत के बीच रोटी-बेटी का संबंध है. हमारे ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं. यह अलग बात है कि ओली या प्रचंड के जमाने में इस रिश्ते को नेपाल की सरकार ने तार-तार करने की कोशिश की लेकिन भारत ने हमेशा संयम से काम लिया है. ओली जब चीन की गोद में बैठकर भारत पर भौंक रहे थे तब भी भारत ने शांति से काम लिया.

भारत के लिए निश्चय ही नेपाल में लोकतंत्र का फलना-फूलना अच्छी बात होती लेकिन हालात देखिए कि 17 साल के लोकतंत्र में 14 सरकारें बदल चुकी हैं. नेपाल के लिए तो यह बुरा है ही, हमारे लिए भी चिंता की बात है. नेपाल में राजनीतिक स्थिरता बहुत जरूरी है. भारत को सजग रह कर कदम उठाने होंगे. अदृश्य ताकतों से सावधान भी रहना होगा कि वे भारतीय हितों को चोट पहुंचाने में किसी भी सूरत में कामयाब न हों.

Web Title: Questions arising on the role of army in Nepal

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