अस्सी साल के प्रेम में नई उलझनें?, क्या है उलझनों से आशय
By विकास मिश्रा | Updated: January 29, 2025 05:49 IST2025-01-29T05:49:18+5:302025-01-29T05:49:18+5:30
इजराइल और अरब देशों के बीच सात युद्ध हुए, 1973 का भीषण अरब तेल संकट पैदा हुआ लेकिन अमेरिका और सऊदी अरब के प्रेम में कोई कमी नहीं आई!

सांकेतिक फोटो
आपको यह शीर्षक पढ़कर थोड़ी हैरानी हो रही होगी कि ये 80 साल के प्रेम का मामला क्या है? और उलझनों से आशय क्या है? इसके लिए हमें इतिहास में लौटना होगा. तारीख थी 14 फरवरी 1945, जिस दिन दुनिया वैलेंटाइन डे मनाती है. स्वेज नहर में अमेरिकी नेवी का एक जहाज तैर रहा था और उसमें सवार थे दो अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट और सऊदी अरब के संस्थापक किंग अब्दुल अजीज इब्न सऊद. उसी दिन मधुर रिश्ते की गांठ बंधी. किंग ने कहा तेल सस्ते में देंगे और रूजवेल्ट ने भरोसा दिया कि सऊदी अरब को बाहरी दुश्मनों से बचाएंगे. तब से लेकर कई झंझावात आए, इजराइल और अरब देशों के बीच सात युद्ध हुए, 1973 का भीषण अरब तेल संकट पैदा हुआ लेकिन अमेरिका और सऊदी अरब के प्रेम में कोई कमी नहीं आई!
यहां तक कि जब अमेरिका पर 9/11 हमला हुआ और यह बात उजागर हुई कि मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन सहित विमानों के 19 में से 15 अपहरणकर्ता सऊदी अरब के थे, फिर भी दोनों देशों में मोहब्बत बनी रही. अमेरिका को पता था कि अलकायदा को सऊदी सरकार से मदद मिलती थी, फिर भी सऊदी इस मामले में बेदाग बना रहा! अमेरिका में अब भी यही माना जाता है कि उसे बचाया गया!
इसके पीछे शायद यही कारण था कि तेल के लिए काफी हद तक अमेरिका सऊदी अरब पर निर्भर था. उस वक्त वह सऊदी अरब से प्रतिदिन 13 लाख बैरल तेल खरीद रहा था. अब यदि पिछले साल का आंकड़ा देखें तो यह औसतन प्रतिदिन 2 लाख 77 हजार बैरल तक नीचे आ गया है. अमेरिका ने रणनीति के तहत सऊदी अरब पर अपनी निर्भरता कम की है.
सबसे बड़ी बात है कि सऊदी अरब ने भी अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करने की हर संभव कोशिश की है. वह चीन के साथ लगातार कारोबार बढ़ा रहा है. संयुक्त अरब अमीरात के रिश्ते भी चीन से काफी गहरे हुए हैं. इन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि चीन ने 10 लाख से ज्यादा वीगर मुसलमानों को वैचारिक सुधार के नाम पर डिटेंशन सेंटर में कैद कर रखा है.
बहरहाल, पहले कार्यकाल में ट्रम्प ने सऊदी अरब के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ करने की हर संभव कोशिश की थी. कम से कम दुनिया यही मान रही थी क्योंकि अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों के विपरीत पहले दौरे के लिए उन्होंने कनाडा या मैक्सिको को नहीं बल्कि सऊदी अरब को चुना था. लेकिन वे वहां क्यों गए थे, इसका राज अब ट्रम्प ने खुद ही खोला है.
एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या वे पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को चुन रहे हैं? ट्रम्प ने बिल्कुल व्यापारिक जवाब दिया कि 2017 में उसने 450 अरब डॉलर का अमेरिकी सामान खरीदा था इसलिए डील करने गया था. यदि अब भी वह 450 से 500 अरब डॉलर की डील करने को तैयार हो तो पहली यात्रा पर सऊदी अरब जाने से उन्हें कोई परहेज नहीं है.
फिलहाल सऊदी अरब की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. वैसे यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि ट्रम्प के इस दूसरे कार्यकाल में उनके दामाद जैरेड कशनर की क्या भूमिका होती है क्योंकि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान उनके करीबी मित्र माने जाते हैं.
जब पत्रकार जमाल खशोगी की तुर्की के इस्तांबुल शहर में हत्या कर दी गई थी तो सीधे तौर पर इसके पीछे क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का हाथ बताया जा रहा था. उस समय जैरेड कशनर ने बड़ी भूमिका निभाई थी ताकि अमेरिका और सऊदी के रिश्ते न बिगड़ें. ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में एक बात तय है कि ट्रम्प ने स्पष्ट रूप से संकेत दे दिया है कि अमेरिका को वे बिल्कुल अपने टशन और अपने व्यापारिक नजरिये से ही चलाने वाले हैं. सत्ता संभालते ही उन्होंने माइक हकबी नाम के ऐसे व्यक्ति को इजराइल में अमेरिका का राजदूत बनाया है जो फिलिस्तीन के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करता है.
यदि ट्रम्प का नजरिया भी यही है तो सऊदी अरब और इजराइल के संबंध कभी सुधर नहीं सकते. ट्रम्प इस स्थिति में भी अब नहीं हैं कि वे सऊदी को आंख दिखा सकें. ईरान से पहले ही ठनी हुई है. यदि सऊदी भी नाराज हो गया तो मध्य पूर्व में अपना सिक्का चला पाना अमेरिका के लिए आसान नहीं रह जाएगा.
सऊदी अरब का स्पष्ट कहना है कि पहले फिलिस्तीन को एक संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता मिले. और भी कई शर्तें हैं. जाहिर है कि इसके लिए न ट्रम्प तैयार होंगे और न ही इजराइल तैयार होगा. इसलिए 80 साल के प्रेमपूर्ण रिश्ते में नई उलझनों का बोलबाला होगा. यदि आप ध्यान दें तो पता चलता है कि सऊदी अरब हो या मध्य पूर्व के देश हों, सभी ने अमेरिका पर निर्भरता को लगातार कम किया है.
वे केवल अमेरिका से चिपके रहना नहीं चाहते हैं. उन्हें अंदाजा है कि दुनिया बदल रही है और चीन के उभरने, रूस के अलग राह चलने और भारत की सबके साथ रिश्तों की नीति के कारण दुनिया अब बहुध्रुवीय हो चुकी है. यूनाइटेड अरब अमीरात और सऊदी अरब ब्रिक्स के सदस्य भी बन चुके हैं.
इतना ही नहीं, सऊदी अरब शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन का डायलॉग पार्टनर भी है. लेकिन सऊदी अरब यह बात भी समझता है कि अमेरिका से ज्यादा खतरनाक चीन साबित हो सकता है इसलिए रिश्तों में उलझनों के बावजूद वह अमेरिका से तकरार शायद कभी नहीं चाहेगा. अस्सी साल के रिश्ते क्या रंग लेते हैं, यह वक्त ही बताएगा.