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नेपाल की नई सत्ता बढ़ाएगी भारत की चुनौतियां, पाकिस्तान और चीन के बाद अब...

By राजेश बादल | Updated: December 27, 2022 08:08 IST

सवाल यह है कि आने वाले दिन हिमालय की तलहटी से हिंदुस्तान के लिए किस तरह के संदेश लेकर आएंगे? भारत की सीमाओं की व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण करें तो लगता है कि चीन एक बार फिर भारत की घेराबंदी की व्यूह रचना नए सिरे से कर रहा है। जानकारों का अनुमान है कि पाकिस्तान और चीन के बाद अब नेपाल भी भारत के लिए स्थायी सिरदर्द बन सकता है।

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नेपाल को आखिर नई सरकार मिल ही गई। यह लोकतंत्र का एक विकृत संस्करण है। जो दल चुनाव के मैदान में एक दूसरे के खिलाफ लड़ते हैं, वे परिणाम आने के बाद गलबहियां डाले सरकार बनाते दिखाई देते हैं। सबसे बड़ा दल ठगा सा रह जाता है। मतदाता भी कोई विजेता की मुद्रा में नहीं होते। दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें स्थान पर रही फिसड्डी राजनीतिक पार्टियां मत के अधिकार का मखौल उड़ाती नजर आती हैं। भारत के इस खूबसूरत पड़ोसी मुल्क ने ऐसा ही कुछ नजारा पेश किया है। नेपाली कांग्रेस और उसके नेता शेर बहादुर देउबा शानदार जीत के बाद भी बहुमत नहीं होने के कारण विपक्ष की बेंचों पर बैठेंगे। पर छोटे-छोटे दलों से मिलकर बनी प्रचंड की यह खिचड़ी सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगी, इसमें संदेह है। यानी नेपाल अभी भी अस्थिर सियासत की सुरंग से बाहर नहीं निकला है।

यह राजनीतिक अस्थिरता हिंदुस्तान के लिए कोई बहुत राहत देने वाली नहीं है। प्रचंड और ओली की जोड़ी निश्चित रूप से चीन के लिए कुछ अच्छे संकेत लाई है। जानकारों के मुताबिक नेपाल में चीन के दूतावास ने इस मामले में पर्दे के पीछे से बड़ी भूमिका निभाई है। भारतीय दूतावास नेपाली कांग्रेस के लिए वह काम नहीं कर पाया। इसे भारत की वैदेशिक मामलों में कूटनीतिक शिकस्त भी माना जा सकता है। चिंता की बात यह भी हो सकती है कि नेपाल के साथ एक बार फिर सीमा विवाद को प्रचंड तथा ओली हवा दे सकते हैं। जब के.पी. शर्मा ओली प्रधानमंत्री थे तो नेपाल में चीनी राजदूत हाओ यांकी ने ही एक नक्शा तैयार कराया था। नक्शे में नेपाल ने भारत सीमा के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपना हिस्सा बताया था। फिर उन्होंने भारत को चेतावनी दे डाली थी कि एक-एक इंच भूमि लड़कर लेंगे। आजादी के बाद से ही ये इलाके उत्तराखंड के हिस्से रहे हैं और उनका प्रशासन भी भारत ही करता रहा है। जिस देश की सेना को भारत में प्रशिक्षण मिलता रहा हो और जो धर्म और संस्कृति के आधार पर समान हो, उस देश की यह भाषा निश्चित रूप से सबूत थी कि वह चीन के प्रभाव में है। इसके बाद उनकी सरकार गिरी तो ओली ने उसके पीछे भारत का हाथ बताया था।  

सवाल यह है कि आने वाले दिन हिमालय की तलहटी से हिंदुस्तान के लिए किस तरह के संदेश लेकर आएंगे? भारत की सीमाओं की व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण करें तो लगता है कि चीन एक बार फिर भारत की घेराबंदी की व्यूह रचना नए सिरे से कर रहा है। जानकारों का अनुमान है कि पाकिस्तान और चीन के बाद अब नेपाल भी भारत के लिए स्थायी सिरदर्द बन सकता है। तीनों राष्ट्रों के साथ हिंदुस्तान की कुल 8491 किमी सीमा लगती है। इसके बाद 2342 किमी सीमा है, जो भूटान और म्यांमार के साथ सटी हुई है और म्यांमार भी इन दिनों चीन के साथ पींगें बढ़ा रहा है। उसके फौजी शासक भारत की बनिस्बत चीन के ज्यादा निकट हैं। अनेक बार भारत ने वहां चीन की सहायता से चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को नेस्तनाबूद किया है, मगर तब उसकी विदेश नीति में भारत को प्राथमिकता दी जाती थी।  उसकी तरफ से लगी 1643 किमी की सीमा भी निरापद नहीं कही जा सकती। बाकी डोकलाम में भारत और चीन के बीच हिंसक झड़पों के बाद भूटान के साथ की कुल 699 किमी सीमा भी कितनी सुरक्षित है, कुछ कहा नहीं जा सकता। भूटान डोकलाम विवाद के बाद से भारत के साथ रिश्तों में वह गर्मजोशी नहीं दिखा रहा है।

बांग्लादेश के साथ 4156 किमी सीमा लगती है। सिर्फ यही देश भारत को चिंता से तनिक राहत दे सकता है। हालांकि वहां भी जब तब भारत विरोधी स्वर उठते रहते हैं। अफगानिस्तान के साथ केवल 106 किमी की सीमा सटी हुई है। अगर हम उसे भी भारत के नजरिये से सुरक्षित मान लें तो भी भारत की कुल थल सीमा समूची 15095 किमी थल सीमा में से 10833 किमी लंबी सीमा पर भारत के पड़ोसियों ने ही उसकी चिंता बढ़ाई है। एक जमाने में चीन एक ऐसा देश था, जिसका अपने अधिकतर पड़ोसियों से सीमा विवाद चलता रहता था। रूस के साथ तो उसकी लंबी जंग हुई थी, जिसमें रूस को अपनी काफी जमीन खोनी पड़ी थी। भारत के साथ चीन की इस तरह सीमाओं पर अप्रत्यक्ष घेराबंदी चिंताएं बढ़ाने वाली है।

भारत की जल सीमाएं देखें तो वे भी चीन को अधिक सुविधा प्रदान करती हैं। सात देशों के साथ करीब 7516 किमी की सीमा है। ये हैं श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, थाईलैंड और इंडोनेशिया। इनमें से चार देश तो यकीनन समंदर के जरिये भारत की परेशानी बढ़ाने वाले हैं। श्रीलंका को कर्ज के जाल में फंसाकर चीन ने उसका हंबनटोटा बंदरगाह हड़प ही लिया है। बंदरगाह पर पूरी तरह चीनी नियंत्रण है। यह भारत के कन्याकुमारी से सिर्फ 540 किमी दूर है। इसके अलावा इस छोटे से द्वीप की कोई छह सौ एकड़ जमीन पर भी चीन का नियंत्रण है। वहां चीन की नियमित फौजी गतिविधियां जारी हैं। इस कड़ी में पाकिस्तान की सरकार ने ग्वादर का बंदरगाह चालीस साल के लिए चीन को लीज पर दे दिया है। यह बंदरगाह हिंदुस्तान से केवल 700 किमी दूर है। जानकारों की मानें तो पाकिस्तान भी चीन का कर्ज कभी अदा नहीं कर पाएगा। इस तरह चीन के कब्जे में हमेशा के लिए ग्वादर बना रहेगा। अब चीनी फौज ने ग्वादर को अपने कब्जे में ले लिया है। मालदीव भी भारत से करीब 700 किमी दूर जल सीमा पर है। वहां के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन को चीन सहायता दे रहा है और वहां इंडिया आउट का आंदोलन चलता रहा है। इंडोनेशिया के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। मजहबी आधार पर उसने हमेशा ही भारत से दूरी बनाकर रखी है।

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