कामू की फुटबॉल और महान दोस्ती का साहित्यिक अंत
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: August 26, 2025 06:01 IST2025-08-26T06:01:22+5:302025-08-26T06:01:22+5:30
1936 में तीन मित्रों के साथ मिलकर स्पेन के खनिकों के विद्रोह पर आधारित नाटक ने जीवन की निरर्थकता और असंगति के दर्शन की उस समझ को पुख्ता किया, जिसे उन्होंने फुटबॉल के मार्फत जीवन दर्शन में समझा था.

सांकेतिक फोटो
सुनील सोनी
बीमारी से बिस्तर पकड़े पिकासो ने 1941 में जब नाटक लिखा, ‘डिजायर कॉट बाई दि टेल’ तो अल्बैर कामू, ज्यां पॉल सार्त्र, सिमोन दि बोउआ समेत उनके दोस्त भी नहीं जानते थे. तब पेरिस पर जर्मन कब्जा था और सार्वजनिक मंचन संभव न था. कामू तब तक फ्रांसीसी क्रांतिकारियों के अखबार ‘कॉम्बैट’ के संपादक हो गए थे. जूझने का जो जज्बा उनके भीतर फुटबॉल ने भरा था, उसका नतीजा उस नाटक का मंचन भी था. 1944 में कामू के निर्देशन में मिशेल और लुईस लीरिस के फ्लैट पर मित्र जुटे. वैलेंटाइन ह्यूगो, रेमंड क्यूनो भी. पिकासो समेत सभी ने उसके किरदारों को पढ़ा.
फिर तो यह ‘थिएटर ऑफ एब्सर्ड’ का सिलसिला बन गया. समालोचकों ने यहां तक कह दिया कि वह ‘वेटिंग फॉर गोदो’ के सैमुअल बैकेट से आगे निकल गए हैं. खुद कामू ने भी लिखने की शुरुआत नाटक से ही की थी. 1936 में तीन मित्रों के साथ मिलकर स्पेन के खनिकों के विद्रोह पर आधारित नाटक ने जीवन की निरर्थकता और असंगति के दर्शन की उस समझ को पुख्ता किया, जिसे उन्होंने फुटबॉल के मार्फत जीवन दर्शन में समझा था. पिकासो के नाटक ने यही पुष्टि कला की अतार्किता और असंगति के लिए की.
यही समझ उनके और सार्त्र के बीच व्यापक वैचारिक बहस का कारण बनी, जिसकी परिणति अंतत: मित्रता के अंत के रूप में किसी दर्शनधारा के टूट की तरह हुई. 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक, दार्शनिक बहस के दस्तावेज के तौर पर यह दुनिया की नेमत है. यह कितना अजब है कि पश्चिम में बीसवीं सदी तक पहुंचीं ये बहसें उन सवालों से उपजी थीं जो युद्ध, मानवीय पीड़ा और उसके कारणों, सुख की परिभाषा और खोज के मार्फत समाज की सूझबूझ की दिशा तय करती हैं.
लेकिन, यह दर्शन किसी आध्यात्मिक या धार्मिक राह पर नहीं ले जाता है, जैसा कि उस समय के भारतीय समाज में घटकर अब तक जारी है. ‘यक्ष प्रश्न’, ‘बेताल पच्चीसी’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ जैसी लोक में व्याप्त सवाल पूछने और जवाब जानने की जिज्ञासा को भारतीय समाज ने क्यों और कैसे छोड़ा और सामाजिक-राजनीतिक यथास्थिति से बंधे समाज को 19वीं सदी में ले जाने को क्यों बेताब है;
यह रहस्य कामू की चेतावनी में है. फुटबॉल को लेकर कामू का प्रेम, दर्शन में तब बदला, जब टीबी से गल गए उनके फेफड़ों ने उन्हें मैदान के बजाय दर्शकदीर्घा में रहने पर मजबूर कर दिया. 1957 में जब नोबल दिए जाने की घोषणा हुई, तब वे भोजन करते हुए फुटबॉल ही सोच रहे थे. हर बार वे कहते फुटबॉल और रंगमंच, दो विद्यालय हैं,
जिन्होंने उन्हें जीवन में आजादी, मानवीय चेतना में करुणा तथा संपूर्णता के असली मायने सिखाए. 1960 में जहां उनकी जान गई, उस दुुर्घटनास्थल पर उनके आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ‘पहला आदमी’ की कीचड़ में सनी अधूरी पांडुलिपि मिली. उसका नायक ज्यां उनके फुटबॉल प्रेम या दर्शन की अधूरी कहानी ही है.
‘द फॉल’ का नायक भी उनका ही अक्स है. कामू पत्रकार के तौर पर जब अपने अल्जीरियाई मूल की जड़ों में जाते हैं, तो काबिली इलाके का रिपोर्ताज भी लिखते हैं, जो कई दशकों बाद फ्रांस के मार्सिए में जन्मे मशहूर फ्रांसीसी फुटबॉल खिलाड़ी जिनेदिन जिदान के माता-पिता का आवास रहा था.
यह फुटबाल का खेल ही है, जो यह घोषित करवाता है कि जीने का एकमात्र तरीका निरर्थक के खिलाफ लगातार विद्रोह करते रहना है. जब वे अपनी महान कृृति ‘सिसिफस’ लिख रहे थे, तो उनकी धारणा थी कि फुटबॉल ही वह खेल है, जो दैवीय या भाग्यवादी असमंजस से छुटकारा दिलाकर पत्थर को कंधे पर उठवाता है.
दोस्तोयेव्स्की के ‘करमाजोव बंधु’ के इवान का फुटबॉल प्रेम उसे नाटक में तब्दील करवाता है. फुटबॉल के बहाने वहां अस्तित्व, नैतिकता, आस्था, संदेह, ईश्वर के बारे में गहरी दार्शनिक बहस है. ‘द प्लेग’ कुछ और नहीं करता, बल्कि नाजियों के इनसानी रूप में खत्म होने के बाद नाजीवाद और फासीवाद के रूप में जड़ें जमाते जाने के लिए चेतावनी देता है.
वे आगाह करते हैं कि मानवीय स्वभाव ही है कि वह फासीवादियों जैसी महामारियों को दोेबारा फैलने देता है. फिल्मी नायकों जैसे खूबसूरत कामू पर 2020 में बनी ‘दि लाइव्स ऑफ अल्बैर कामू’ और 1997 की ‘दि मैडनैस ऑफ सिंसएरिटी’ को दर्शन के आलोक में देखा जाए, तो अलग अहसास होगा.