पहले श्रीलंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल. तीनों ही राष्ट्रों में सरकार की नाकामी और जवान खून का गुस्सा सामने आया. इन मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों को अपना वतन छोड़कर भागना पड़ा. तीनों देशों में तख्तापलट करने वालों का आरोप है कि उनकी सरकारें आंतरिक समस्याओं से निपटने में विफल रही हैं. बेरोजगारी चरम पर है, भ्रष्टाचार नासूर बन गया है और विकराल महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है. क्या इसे सिर्फ संयोग माना जाए कि सरकारों के खिलाफ आक्रोश प्रकट करने का तरीका एक समान है.
लोकतंत्र होते हुए भी कोई लंबा आंदोलन नहीं, कोई सत्याग्रह नहीं, सरकार को कोई चेतावनी नहीं और उसे संभलने तक का अवसर नहीं दिया गया. अचानक एक झुंड प्रकट हुआ और सीधे सियासत के शिखर पुरुषों के आवास पर आक्रमण कर दिया गया. मेरा मन नहीं मानता कि यह सहज और स्वाभाविक नाराजगी थी.
इन दिनों विकसित, विकासशील और पिछड़े राष्ट्रों पर नजर डालें तो कौन सा देश है, जहां महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर संकट नहीं हो. परिस्थितिजन्य साक्ष्य कहते हैं कि इन मुल्कों की सरकार बदलने में यकीनन अंतरसंबंध है. एकबारगी मान लें कि सरकारों के बदलने में किन्ही बाहरी ताकतों का हाथ नहीं भी है तो भी इन एशियाई देशों में अचानक तख्तापलट के पीछे आधारभूत आंतरिक कारण समान दिखाई देते हैं. लेकिन तात्कालिक वजहें निश्चित रूप से चौंकाने वाली हैं. वे ऐसी नहीं नजर आतीं, जो किसी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का जरिया बन जाएं.
मैं कह सकता हूं कि पाकिस्तान में भी ऐसा ही हुआ था, जब इमरान खान की सरकार को उखाड़ फेंका गया था. लेकिन आज सिर्फ नेपाल की बात. कहानी शुरू होती है चार सितंबर से. उस दिन सरकार ने फेसबुक, एक्स ( पुराना ट्विटर), व्हाट्सएप और यूट्यूब सहित सोशल मीडिया के 26 अवतारों पर बंदिश लगा दी थी.
सरकारी प्रवक्ता ने कहा कि इन कंपनियों ने सूचना और संचार मंत्रालय में पंजीकरण नहीं कराया था. इसलिए यह कदम नियमों का पालन कराने के लिए उठाया गया है. फैसले का व्यापक विरोध हुआ. प्रतिपक्षी पार्टियों और नौजवान संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. उनका कहना था कि प्रतिबंध के बहाने ओली सरकार विरोध और असहमति की आवाज कुचलने का प्रयास कर रही है.
सरकार ने सभी सोशल मीडिया कंपनियों को सात दिन का समय दिया था कि वे नेपाल में पंजीकरण करा लें. इसकी अवधि चार सितंबर को समाप्त हो रही थी. इन कंपनियों को शिकायत निवारण अधिकारी भी नियुक्त करना था और संपर्क कार्यालय खोलना था. लेकिन फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, व्हाट्सएप, एक्स, रेडिट और लिंकडेन आदि कंपनियों ने तय सीमा में आवेदन नहीं किया.
ओली इससे भड़के हुए थे. लेकिन परदे के पीछे से आ रही कहानी एक कारण और बताती है. इसके अनुसार चीन के इशारे पर अभी तक नेपाल भारत के खिलाफ बेहद कड़वे और आक्रामक तेवर अपना रहा था. खासतौर पर लिपुलेख और कालापानी जैसे क्षेत्र पर नेपाल का रवैया अचानक कठोर हो गया था.
ओली ने तो यहां तक कहा था कि नेपाल अपनी एक इंच जमीन भी भारत को नहीं देगा चाहे जंग लड़ना पड़े. आपको याद होगा कि बीते दिनों नेपाली प्रधानमंत्री शंघाई शिखर सम्मेलन में गए थे. बैठक के दरम्यान उन्होंने चीनी राष्ट्रपति के समक्ष लिपुलेख सीमा विवाद का मसला उठाया था. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि यह नेपाल और भारत के बीच का मामला है.
दोनों देशों को आपस में सुलझाना चाहिए. नेपाली प्रधानमंत्री ओली के लिए यह बड़ा झटका था. वे चीन से खफा होकर लौटे. नेपाली मीडिया में उनकी काफी किरकिरी हुई. जिस चीन के लिए उन्होंने भारत की दोस्ती कुर्बान कर दी थी, वही उन्हें भारत से बात करने की सलाह दे रहा था. सारे अखबार और सोशल तथा डिजिटल मीडिया के प्लेटफॉर्म ओली की आलोचना से भरे - रंगे पड़े थे.
नेपाल की बहुसंख्यक आबादी भारतीय संस्कृति के करीब है. उसे भी अवसर मिल गया था कि वह ओली को कठघरे में खड़ा करे. दरअसल प्रधानमंत्री ओली वैश्विक परिस्थितियों को समझने में असफल रहे. वे अमेरिकी रवैये और रूस, चीन और भारत की एकजुटता भी नहीं भांप सके.
जब अमेरिका इन दिनों खुलकर भारत, चीन और रूस के विरोध में है तो ओली अनुमान नहीं लगा सके कि भारत और चीन के निकट आने का क्या अर्थ हो सकता है. जिस सम्मेलन में ओली गए थे, उसमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ भी थे. यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि शहबाज शरीफ अपने वतन बड़े रुआंसे लौटे थे.
चीन ने पाक-चीन इकोनॉमिक कॉरिडोर के लिए और मदद देने से इनकार कर दिया था. शहबाज के लिए भी यह बहुत बड़ा झटका था. इस तरह चीन ने भारत को साधने के लिए एक तीर से दो निशाने कर लिए. चूंकि पाकिस्तान अमेरिका की गोद में बैठा हुआ है, उसके सेनाध्यक्ष डोनाल्ड ट्रम्प के साथ दावत करते हैं, यह चीन को नागवार गुजरा है.
उसने शहबाज को खरी-खरी सुनाकर स्पष्ट संदेश दिया कि वह दो नावों पर पैर न रखे. दूसरी ओर उसने नेपाल से हाथ खींचकर भारत को भी प्रसन्न करने का प्रयास किया है. फिलहाल नेपाल में तख्तापलट के बाद चीनी दूतावास के सक्रिय होने की सूचना भी नहीं है. तख्तापलट से पहले चीनी दूतावास नेपाली सत्ता का दूसरा बड़ा केंद्र बन गया था.
लब्बोलुआब यह कि भारत में चीन को लेकर हमेशा ही अविश्वास और संदेह का वातावरण बना रहता है. पर अगर रूस, चीन और भारत के त्रिकोण को थोड़ा टिकाऊ मान लें तो नेपाल और पाकिस्तान के लिए यह चेतावनी हो सकती है. कहना मुश्किल है कि एशिया के बदले समीकरण कितने लंबे चलेंगे.