माजिद पारेखरमजान के महीने में मुसलमानों के द्वारा की जाने वाली नमाज सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण और दयालु समाज की स्थापना का आधार है. नमाज के माध्यम से, मुसलमान अपने जीवन को अल्लाह की इच्छा के अनुरूप ढालने की कोशिश करते हैं. हालांकि लाखों मुसलमान हर दिन पांच बार प्रार्थना करते हैं, फिर भी इस अभ्यास का परिणाम हमारे जीवन में, चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, नजर नहीं आता.
यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाता है: आखिर क्यों आज भी मुस्लिम समाज और पूरी दुनिया में अराजकता, अन्याय और दुख का सामना करना पड़ रहा है? इस सवाल का जवाब हमें अपने कार्यों और प्रार्थनाओं के बीच अंतर को समझने में मिलेगा.
नमाज को केवल एक रूटीन में तब्दील नहीं किया जा सकता. यदि इसे सच्चाई और आत्मनिरीक्षण के बिना किया जाए तो इसका असली मतलब खो जाता है. नमाज का उद्देश्य न सिर्फ आध्यात्मिक भलाई है, बल्कि एक ऐसा सामाजिक आदर्श स्थापित करना है जहां सभी लोग बराबरी के साथ एक-दूसरे के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करें.
प्रार्थना के दौरान झुकने का कार्य (रुकू) हमारे निर्माता की महानता को स्वीकारने और उसके आदेशों के सामने खुद को समर्पित करने का प्रतीक है. वहीं, सजदा हमें पूरी तरह से अल्लाह के आदेशों के सामने आत्मसमर्पण की भावना से भरता है.
नमाज का असली उद्देश्य केवल शारीरिक प्रार्थना नहीं है, बल्कि यह न्याय, ईमानदारी, दया और करुणा जैसे मूल्यों को अपने जीवन में उतारने का एक साधन है. कुरान हमें अपने कार्यों में न्यायपूर्ण रहने, माता-पिता का सम्मान करने, अच्छे कार्यों में प्रतिस्पर्धा करने और कठिन समय में भी दान देने की सलाह देता है. हमसे यह भी कहा गया है कि बुराई का जवाब अच्छाई से दिया जाए और जो हमें नुकसान पहुंचाएं, उन्हें भी माफ करें.
नमाज से हम अपने निर्माता से जुड़ते हैं और उनके अनगिनत आशीर्वादों के लिए कृतज्ञता और आभार व्यक्त करते हैं. यह जुड़ाव शांति और विनम्रता को बढ़ावा देता है, जो समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकता है. लेकिन जब नमाज का वास्तविक अर्थ खो जाता है, तो हम दुनिया में हिंसा और अशांति की घटनाओं को देखते हैं.
नमाज सिर्फ व्यक्तिगत पूजा का कृत्य नहीं है, बल्कि यह सामाजिक जिम्मेदारी का प्रतीक है. एक सच्चा मुसलमान नमाज के जज्बे में समाज की भलाई के लिए काम करता है, न्याय, शांति और करुणा के साथ. हाल की त्रासदियां हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि अगर हम नमाज के असली अर्थ को समझते, तो क्या हम ऐसी हिंसक और दुखद घटनाओं को होने देते?
अगर हम एक ऐसे समाज की स्थापना चाहते हैं जो शांति, न्याय और समानता पर आधारित हो, तो हमें नमाज में सिखाए गए मूल्यों को अपने जीवन में उतारना होगा. तभी हम एक ऐसी दुनिया की उम्मीद कर सकते हैं जहां हिंसा और घृणा की जगह करुणा हो.