गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: धर्मप्राण जनता को सदैव आकर्षित करती रही है अयोध्या
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 5, 2020 02:24 PM2020-08-05T14:24:57+5:302020-08-05T14:24:57+5:30
हम आज अयोध्या के इतिहास की बात करें तो जड़ें इक्ष्वाकु वंश के राजाओं से जुड़ती हैं पर अयोध्या और उसके रघुकुल नायक भगवान श्रीराम इतिहास से परे सतत जीवन में बसे हुए हैं।
सरयू नदी के पावन तट पर स्थित अवधपुरी, कोसलपुर या अयोध्या नाम से प्रसिद्ध नगरी का नाम भारत की मोक्षदायिनी सात नगरियों में सबसे पहले आता है : ‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका’. मोक्ष का अर्थ है मोह का क्षय और क्लेशों का निवारण. तभी जीवन मुक्त यानी जीवन जीते हुए मुक्त रहना संभव होता है.
अनुश्रुति, रामायण की साखी और जनमानस के अगाध विश्वास में भगवान श्रीराम को अत्यंत प्रिय यह स्थल युगों-युगों से सभी के लिए एक किस्म की उदार और पवित्न प्रेरणा का आश्रय बना हुआ है. गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में अयोध्या का मनोरम चित्न खींचा है. साधु-संतों और धर्मप्राण जनता को अयोध्या सदैव आकर्षित करती रही है. यहां पर स्नान, ध्यान, परिक्रमा और भजन-कीर्तन का क्रम सतत चलता रहता है.
इक्ष्वाकु वंश के राजाओं से जुड़ा इतिहास
इतिहास की कहें तो इसकी जड़ें इक्ष्वाकु वंश के राजाओं से जुड़ती हैं पर अयोध्या और उसके रघुकुल नायक भगवान श्रीराम इतिहास से परे सतत जीवन में बसे हैं, लोगों की सांसों में और समाज की स्मृति का अटूट हिस्सा हैं. ‘राम’ इस शब्द और ध्वनि का रिश्ता सबसे है. सभी प्राणी श्री राम से जुड़कर आनंद का अनुभव करते हैं. भारत का आम जन आज भी सुख, दु:ख, जन्म, मरण, हानि, लाभ, नियम, कानून, मर्यादा, भक्ति, शक्ति, प्रेम, विरह, अनुग्रह सभी भावों और अनुभवों से राम को जोड़ता चलता है.
सांस्कृतिक जीवन का अभ्यास ऐसा हो गया है कि अस्तित्व के सभी पक्षों से जुड़ा यह नाम आसरा और भरोसा पाने के लिए खुद-ब-खुद जुबान पर आ जाता है. राम का पूरा चरित ही दूसरों के लिए समर्पित चरित है. मानव रूप में ईश्वर की राममयी भूमिका का अभिप्राय सिर्फ और सिर्फ लोकहित का साधन करना है. बिना रुके ठहरे या किसी तरह के विश्रम के सभी जीव-जंतुओं का अहर्निश कल्याण करना ही रामत्व की चरितार्थता है. राम का अपना कुछ नहीं है, जो है उसका भी अतिक्रमण करते रहना है.
बाल्यावस्था से जो शुरुआत होती है तो पूरे जीवन भर राम एक के बाद एक परीक्षा ही देते दिखते हैं और परीक्षाओं का क्रम जटिल से जटिलतर होता जाता है. उनके जीवन की कथा सीधी रेखा में आगे नहीं बढ़ती है. उनके जीवन में आकस्मिक रूप से होनी वाली घटनाओं का क्रम नित्य घटता रहता है पर राजतिलक न होकर वन-गमन का आदेश होने पर कोई विषाद नहीं होता और उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती है.
उनको हर तरह के लोभ, मोह, ममता, प्रीति, स्नेह की कसौटी पर चढ़ाया जाता है और वे खरे उतरते हैं. शायद राम होने का अर्थ नि:स्व होना और तदाकार होना ही है.
राम मंदिर को लेकर सभी में उत्साह
ऐसे राम के भव्य मंदिर के आरंभ को लेकर सभी आनंदित हैं. बड़ी प्रतीक्षा के बाद इस चिर अभिलक्षित का आकार लेना स्वप्न के सत्य में रूपांतरित होना जैसा है. अनेक विघ्न-बाधाओं के बीच राम मंदिर के निर्माण का अवसर उपस्थित हो सका है. राम शब्द सत्य, धर्म, शौर्य, धैर्य, उत्साह, मैत्नी और करुणा के बल को रूपायित करता है. यह मंदिर इन्हीं सात्विक प्रवृत्तियों का प्रतीक है. यह हमें जीवन संघर्ष में अपनी भूमिका सहजता के साथ निभाने के लिए उत्साह के भी स्नेत का कार्य करता है.
सामाजिक-राजनीतिक जीवन में रामराज हर तरह के ताप अर्थात कष्ट से मुक्ति को रेखांकित करता है. इस रामराज की शर्त है स्वधर्म का पालन करना. अपने को निमित्त मान कर दी गई भूमिकाओं का नि:स्वार्थ भाव से पालन करने से ही रामराज आ सकेगा. ऐसा करने के लिए परहित और परोपकार की भावना करनी होगी क्योंकि वही सबसे बड़ा धर्म है : ‘परहित सरिस धर्म नहि भाई’. यही मनुष्यता का लक्षण है क्योंकि अपना हित और स्वार्थ तो पशु भी साधते हैं.
अत: राम की प्रीति लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है. वाल्मीकि ने तो राम को धर्म की साक्षात साकार मूर्ति घोषित किया है (रामो विग्रहवान धर्म:). इसलिए रामभक्त होने से यह बंधन भी स्वत: आ जाता है कि हम धर्मानुकूल आचरण करें.
हमारी कामना है कि राम मंदिर निर्माण के शुभ कार्य से देश के जीवन में व्याप्त हो रही विषमताओं, मिथ्याचारों, हिंसात्मक प्रवृत्तियों और भेदभाव की वृत्तियां का भी शमन हो और समता, समानता और न्याय के मार्ग पर चलने की
शक्ति मिले.