ब्लॉग: गणपति का स्वागत करें पर्यावरण-प्रेम से

By पंकज चतुर्वेदी | Published: September 15, 2023 09:53 AM2023-09-15T09:53:22+5:302023-09-15T10:00:21+5:30

सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसीलिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है।

Blog: Welcome Ganpati with love for the environment | ब्लॉग: गणपति का स्वागत करें पर्यावरण-प्रेम से

फाइल फोटो

Highlightsसनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य हैभारत में उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही माना जाता है, कुम्हार पावन गणेश की प्रतिमा गढ़ता हैगणेश पूजन के बाद ‘तेरा तुझको अर्पण’ की परंपरा के मुताबिक उन्हें जल में ही प्रवाहित किया जाता है

कुछ ही दिनों में बारिश के बादल अपने घरों को लौटने वाले हैं। सुबह सूरज कुछ देर से दिखेगा और जल्दी अंधेरा छाने लगेगा। असल में मौसम का यह बदलता मिजाज उमंगों, खुशहाली के स्वागत की तैयारी है। सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसीलिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है।

कुछ साल से प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ में अपील कर रहे हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस यानी पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाएं। तेलंगाना, महाराष्ट्र, राजस्थान की सरकारें भी ऐसे आदेश जारी कर चुकी हैं, लेकिन धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बिक रही हैं। ऐसा दृश्य देश के सभी बड़े-छोटे कस्बों में देखा जा सकता है।

पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस से बन रही हैं, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी दी, लेकिन बाजार रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है।

मानसून में नदियों के साथ ढेर सारी मिट्टी बह कर आती है। चिकनी मिट्टी, पीली, काली या लाल मिट्टी। परंपरा तो यही थी कि कुम्हार नदी-सरिताओं के तट से यह चिकनी महीन मिट्टी ले आता था और उससे प्रतिमा गढ़ता था। पूजा होती थी और -‘तेरा तुझको अर्पण’ की सनातन परंपरा के अनुसार उस मिट्टी को फिर से जल में ही प्रवाहित कर दिया जाता था।

प्रतिमा के साथ अन्न, फल विसर्जित होता था जो कि जल-चरों के लिए भोजन होता था। नदी में रहने वाले मछली-कछुए आदि ही तो जल को शुद्ध रखने में भूमिका निभाते हैं। उन्हें भी प्रसाद मिलना चाहिए लेकिन आज तो हम नदी में जहर बहा रहे हैं जो जल चरों का काल बना है।

पर्व आपसी सौहार्द्र बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी समाज की है।

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