राजेश बादल का ब्लॉग: भारत की विदेश नीति में परदेसी दिलचस्पी

By राजेश बादल | Updated: July 28, 2020 06:39 IST2020-07-28T06:39:36+5:302020-07-28T06:39:36+5:30

Rajesh Badal's blog: Foreigners interested in India's foreign policy | राजेश बादल का ब्लॉग: भारत की विदेश नीति में परदेसी दिलचस्पी

राजेश बादल का ब्लॉग: भारत की विदेश नीति में परदेसी दिलचस्पी

Highlightsहिंदुस्तानी विदेश मंत्री कह चुके हैं कि अब गुट निरपेक्षता का जमाना चला गया.भारतीय विदेश नीति में सिर्फ अमेरिका और चीन की दिलचस्पी ही नहीं है.

खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं. चीन और अमेरिका के बीच तनाव चल ही रहा था. कोविड महामारी काल में यह और गंभीर हो गया. भारत के साथ चीन हिंसा पर उतर आया. उसके बाद से कूटनीति और युद्ध नीति का मैदान फैलता जा रहा है. संसार के सरपंच और एशिया के स्वयंभू चौधरी आमने-सामने हैं. दोनों महाशक्तियों के बीच टकराव की स्थिति में कोई भी तीसरा देश शांति और मध्यस्थता की पहल नहीं कर रहा है. इसका अर्थ यह है कि मौजूदा विश्व परिदृश्य अब दो खेमों में बंटता दिखाई देने लगा है. भारत और रूस ही ऐसी स्थिति में कोई बीच-बचाव का रास्ता निकाल सकते थे, लेकिन चीन को लेकर दोनों देशों में कोई आम सद्भावना नहीं नजर आ रही है. चीन का भारत से छल-कपट का व्यवहार तथा रूस के साथ दोस्ती के नाम पर मुसलसल पैंतरेबाजी ने समीकरणों में निर्णायक उलट-पुलट के हालात बना दिए हैं. यानी अब करीब-करीब प्रत्येक देश को अपनी भूमिका का चुनाव करना ही पड़ेगा. आज के दौर में तटस्थता बनाए रखना बहुत आसान नहीं है.

इस सारे घटनाक्रम के मद्देनजर भारत के लिए अनेक मामलों में चुनौतियां नए अवतार के रूप में प्रस्तुत हैं. हिंदुस्तानी विदेश मंत्री कह चुके हैं कि अब गुट निरपेक्षता का जमाना चला गया. याने विदेश नीति में बदलाव वक्त की मांग है. अलबत्ता वे स्पष्ट कर चुके हैं कि हिंदुस्तान कभी किसी गुट का हिस्सा नहीं बनेगा. दूसरी ओर अमेरिका कह चुका है कि वह चीन के खिलाफगठबंधन बनाना चाहता है. जाहिर है भारत को इसमें शामिल किए बिना ऐसे किसी गठजोड़ का कोई अर्थ नहीं है. इस बयान को भारत के लिए न्यौता भी माना जा सकता है. विदेश मंत्री जयशंकर की प्रतिक्रिया भी इसी संदर्भ से जोड़कर देखी जा सकती है. इस तरह का कोई भी गठबंधन चीन के विरोध में जंग भरी कार्रवाई के लिए अपनी धरती का इस्तेमाल करने का लाइसेंस भी चाहेगा. यह भारत के लिए किसी भी सूरत में उचित नहीं होगा. शायद इस कारण भी चीन ने शत्रु देश होते हुए भी भारत को आगाह  किया है कि वह अपनी परंपरागत गुट निरपेक्ष नीति नहीं छोड़े. इसमें आप छिपी हुई धमकी भी देख सकते हैं. इसके पीछे चीन का अपना भय भी है. यदि अमेरिका ने चीन के चारों ओर छोटे-बड़े 400 सैनिक स्टेशन बनाए हुए हैं तो वे यकीनन चीन को किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिए प्रेरित करने वाले नहीं हैं. यदि भारत गठबंधन में शामिल हुआ तो चीन की मुश्किलें कम नहीं होंगी.

लेकिन क्या चीन को अब इस तरह हिंदुस्तान को सलाह देने का कोई नैतिक अधिकार रह गया है ? शायद नहीं. मान लीजिए कि चीन के विरुद्ध आकार ले रहे गठबंधन में यदि भारत शामिल हो गया तो स्थिति को यहां तक पहुंचाने के लिए भी वही जिम्मेदार है. क्या भारत के लिए भूलना संभव है कि चीन ने पाकिस्तान को अपने नागपाश में जबरदस्त तरीके से जकड़ रखा है. वह जब-तब भारत के खिलाफ उसका प्रयोग करता है. क्या भारत इस तथ्य की उपेक्षा कर सकता है कि चीन ने सदियों से भारत-नेपाल के रिश्तों की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया है. क्या भारत नजरअंदाज कर सकता है कि चीन ने भारत से निकले बौद्ध धर्म के उपासक श्रीलंका को अपने चक्र व्यूह में फांस लिया है. क्या भारत आंख मूंदकर बैठा रहे कि चीन म्यांमार, बांग्लादेश और भूटान के साथ पींगें बढ़ा रहा है और वह भी भारत के संबंधों की कीमत पर. अर्थात चीन यदि भारत की घेराबंदी करे तो वह जायज है और जब उसे लगे कि भारत उसके विरोध में शक्ल ले रहे किसी गठजोड़ का हिस्सा बन रहा है तो वह भारत को अपनी पुरानी विदेश नीति पर ही चलने की बिन मांगी सलाह देने पर उतर आए. यह तो किन्हीं भी दो सभ्य देशों के बीच स्वस्थ रिश्तों का आधार नहीं हो सकता.

भारतीय विदेश नीति में सिर्फ अमेरिका और चीन की दिलचस्पी ही नहीं है. ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, ईरान और तुर्की की रुचि भी कम नहीं है. भारत की तरह ब्रिटेन का कारोबार भी चीन के साथ बीते दिनों में परवान चढ़ा था. लेकिन बदलते हाल में उसने भी चीन के साथ अपने पैर खींचे हैं. हांगकांग के मसले पर भी वह चीन से खुश नहीं है. इसी तरह रूस ने अब चीन को एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की डिलिवरी रोक दी है. अभी तक वह भारत, तुर्की और चीन को यह सिस्टम दे रहा था. वह पुराने मित्र भारत को खफा नहीं करना चाहता.

इसके अलावा हिंदुस्तान की  आक्रामक विदेश नीति को देखते हुए उसने संतुलन दिखाने का प्रयास किया है. वैसे भी वह चीन से अतीत में कई चोटें खा चुका है. इसलिए भारत की चीन के प्रति नीति उसे परेशान नहीं करती. रूस का रक्षा उपकरणों पर भारत के साथ बड़ा कारोबारी अनुबंध है. फ्रांस ने राफेल की पहली खेप भेज दी है और आने वाले समय में यह व्यापार बढ़ने वाला है. सिर्फ ईरान ही अकेला मुल्क है, जो अनिच्छापूर्वक चीन के पाले में जाता दिखाई दे रहा है. मगर उसकी वजह भारत नहीं बल्कि अमेरिका है. जिस दिन भारत ने ईरान से तेल आयात शुरू कर दिया, संबंध सामान्य होने लगेंगे.

भारत यदि अमेरिका को ईरान के मसले पर नरम रवैया अख्तियार करने के लिए तैयार कर लेता है तो यह बड़ी कामयाबी होगी. आज अमेरिका के लिए ईरान के बजाय चीन से निपटना बड़ी प्राथमिकता है. ले-देकर तुर्की बचता है. इन दिनों तुर्की संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा का अध्यक्ष है. रविवार की रात संयुक्त राष्ट्र की इसी टीम को पाकिस्तान पहुंचना था, लेकिन अंतिम क्षणों में यह दौरा रद्द कर दिया गया. पाकिस्तान ने इस टीम के सामने कश्मीर का मसला जोर-शोर से उठाने की बड़ी तैयारी की थी. पर इस बदले घटनाक्रम पर तुर्की की भी नजर है. फिलवक्त वह पाकिस्तान के लिए बड़ी ताकतों से बिगाड़ नहीं करना चाहेगा.

Web Title: Rajesh Badal's blog: Foreigners interested in India's foreign policy

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