लाइव न्यूज़ :

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जातिगत सशक्तिकरण और राजनीतिक भ्रष्टाचार 

By अभय कुमार दुबे | Updated: July 24, 2019 07:00 IST

दलित और ओबीसी नेताओं को चाहिए था कि वे सत्ता में आने के लिए लड़े जाने वाले चुनावों का गैर-दलित और गैर-ओबीसी पार्टयिों के मुकाबले एक भिन्न मॉडल पेश करते, जो किफायती और गैर-जातिवादी होता. लेकिन, ऐसा न करके वे ऊंची जातियों द्वारा की जाने वाली राजनीति के मॉडल के ही अभ्यासकर्ता साबित हुए.

Open in App

अपने भाई के बेनामी प्लॉट की जब्ती के बाद बचाव में मायावती ने जो कहा है, उसकी तीन तरह की आलोचनाएं की जा सकती हैं. पहली, मायावती के राजनीतिक विरोधी (जैसे, भारतीय जनता पार्टी) उनकी इन बातों को यह कह कर दरकिनार कर देंगे कि यह भ्रष्टाचार में लिप्त एक राजनेता द्वारा अपनी जातिगत पहचान के पीछे छिपने की कोशिश है. दूसरी, सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक भ्रष्टाचार को आड़े हाथों लेने वाले लोग यह कहेंगे कि नेताओं द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार का एक और नमूना है. मोटे तौर पर ये दोनों आलोचनाएं सही हैं. लेकिन मेरी दिलचस्पी तीसरी तरह की आलोचना में है जो मेरे जैसे उन लोगों द्वारा की जानी चाहिए जिन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक न्याय की पैरोकारी में लगाया है.  

मेरे जैसे लोगों द्वारा पूछा जाना चाहिए कि मायावती भाजपा के खाते में जमा हजारों करोड़ रुपयों को अपने भाई के बेनामी प्लॉट से क्यों जोड़ रही हैं? ये दोनों तो अलग-अलग प्रकृति के मामले हैं. पार्टयिां चुनाव लड़ने और आजकल प्रचलित हो गई महंगी राजनीति करने के लिए कानूनी (जैसे, इलेक्टोरल बांड) और गैरकानूनी तरीकों से कालाधन जमा करती हैं. भाजपा जब से महाप्रबल दल बनी है, तब से उसने इस तरह की आíथक गोलबंदी के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. कॉर्पोरेट मनी उसी के पास आ रहा है और बाकी सभी पार्टयिां उससे बहुत पीछे चली गई हैं.

जाहिर है कि भाजपा से इस बात की जवाबतलबी की ही जानी चाहिए. लेकिन साथ में क्या यह ध्यान रखने की जरूरत नहीं है कि बसपा समेत दूसरी पार्टयिों की शिकायती मुद्रा खुद को भाजपा जितना धन जमा कर पाने का मौका न मिलने से जुड़ी है. राजनीतिक भ्रष्टाचार की दुनिया में इस तरह की आíथक गोलबंदी ‘पॉलिटिकल मनी’ की श्रेणी में आती है. यह पॉलिटिकल मनी कहीं कम और कहीं ज्यादा हर पार्टी के पास आता है. किसी भी पार्टी का आधिकारिक खाता देख लीजिए, यह धन सैकड़ों करोड़ रुपयों की शक्ल में दिखाई देगा. स्वयं बसपा और यहां तक मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में ऐसी विशाल रकमें जमा हैं. इस तरह के राजनीतिक कालेधन को खत्म करने के लिए चुनाव सुधारों की आवश्यकता है. 

दरअसल, मायावती के भाई का मामला पॉलिटिकल मनी का है ही नहीं. वह राजनीतिक भ्रष्टाचार की दूसरी श्रेणी यानी ‘पर्सनल मनी’ का है जिसके तहत सत्तारूढ़ या सत्ता में आने की संभावना वाले नेतागण अपनी हैसियत का दुरुपयोग करके निजी स्तर पर कालाधन जमा करते हैं. यह धन हवाला के जरिये या तो स्विस बैंकों में जाता है या फिर उससे बेनामी संपत्तियां खरीदी जाती हैं. दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश की जनता उन नेताओं को भ्रष्ट नहीं मानती जो कालाधन लेकर पार्टी के कोष में जमा कर देते हैं. जैन हवाला डायरी वाले मामले में तो आडवाणी और शरद यादव जैसे लोगों के नाम भी थे, पर हवाला की रकमें पार्टी कोष में देने के कारण उन्हें आज कोई भ्रष्ट कहने की जुर्रत नहीं कर सकता. पर उन लोगों को आज भी भ्रष्ट माना जाता है जो उन रकमों को खुद डकार गए.

मायावती को जवाब यह देना चाहिए कि कभी गाजियाबाद में हजार रुपए की मामूली नौकरी करने वाले उनके भाई के पास इतनी बड़ी रकम कहां से आई? आंबेडकर ने मंत्र दिया था : शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो. कालाधन कमाने का मंत्र उन्होंने नहीं दिया था. देश में आरक्षण से लाभ उठा कर एक बड़ा मध्यवर्ग बना है. दलितों में उद्यमशीलता पैदा करने के लिए उनका चेंबर्स ऑफ कॉमर्स अलग से गठित किया गया है. स्वयं बसपा जैसी पार्टी ने दलितों में वाजिब किस्म की राजनीतिक और लोकतांत्रिक महत्वाकांक्षाएं पैदा की हैं. ये हैं उनके सशक्तिकरण के साधन. मायावती और आनंद कुमार के रास्ते से दलितों का सशक्तिकरण नहीं हो सकता.

दलित और ओबीसी नेताओं को चाहिए था कि वे सत्ता में आने के लिए लड़े जाने वाले चुनावों का गैर-दलित और गैर-ओबीसी पार्टयिों के मुकाबले एक भिन्न मॉडल पेश करते, जो किफायती और गैर-जातिवादी होता. लेकिन, ऐसा न करके वे ऊंची जातियों द्वारा की जाने वाली राजनीति के मॉडल के ही अभ्यासकर्ता साबित हुए. स्वयं बहुजन समाज पार्टी और लोकसभा चुनाव में उसकी सहयोगी रही समाजवादी पार्टी का हश्र इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उनका आधार अपनों के बीच भी अब मजबूत नहीं है.अगर मायावती ने खुद को नहीं संभाला तो वह दिन दूर नहीं है जब उनकी अपनी बिरादरी (जाटव) के वोटर भी उनका समर्थन करने से हिचकिचाने लगेंगे. तब न तो  बेनामी संपत्तियां उनके काम आएंगी, और न ही पार्टी के खाते में जमा सैकड़ों करोड़ की रकम. अफसोस तो यह है कि उनके साथ सामाजिक न्याय का सिद्धांत और राजनीति भी फिसल रही है.

टॅग्स :बहुजन समाज पार्टी (बसपा)मायावती
Open in App

संबंधित खबरें

भारतबहुजन समाज में बसपा के घटते प्रभाव को थामने की तैयारी में मायावती, लखनऊ के बाद अब नोएडा में करेंगी शक्ति प्रदर्शन

भारतबिहार चुनाव परिणामः 188 सीट पर चुनाव लड़ 1 पर जीत?, बसपा प्रमुख मायावती और आकाश का जादू नहीं चला?, कई जगह नोटा से कम वोट

भारतराहुल गांधी के खिलाफ बयान देने वाले जयप्रकाश सिंह की बसपा में वापसी, पश्चिम बंगाल और ओडिशा की जिम्मेदारी

भारत25 सीटों पर जीत की उम्मीद?, 6 नवंबर को पहली चुनावी जनसभा करेंगीं मायावती, यूपी से सटे गोपालगंज, कैमूर, चंपारण, सिवान और बक्सर पर फोकस

भारतमायावती ने किया ऐलान, बसपा अकेले लड़ेगी 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव, आजम खान के पार्टी में शामिल होने की खबरों पर भी बोलीं

राजनीति अधिक खबरें

राजनीतिDUSU Election 2025: आर्यन मान को हरियाणा-दिल्ली की खाप पंचायतों ने दिया समर्थन

राजनीतिबिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी से मिलीं पाखी हेगड़े, भाजपा में शामिल होने की अटकलें

राजनीतिBihar voter revision: वोटरों की सही स्थिति का पता चलेगा, SIR को लेकर रूपेश पाण्डेय ने कहा

राजनीतिबिहार विधानसभा चुनावः बगहा सीट पर बीजेपी की हैट्रिक लगाएंगे रुपेश पाण्डेय?

राजनीतिगोवा विधानसभा बजट सत्रः 304 करोड़ की 'बिना टेंडर' परियोजनाओं पर बवाल, विपक्ष का हंगामा