तो क्या 2019 में भी मोदीजी हिंदू-मुस्लिम करके ही चलाएंगे काम?

By राहुल मिश्रा | Updated: May 25, 2018 14:06 IST2018-05-25T13:48:18+5:302018-05-25T14:06:27+5:30

हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा भले ही समाज में सांप्रदायिकता का भय खड़ा करता है लेकिन यह प्रद्स्त है कि चुनावों में यही कार्ड ट्रम्प कार्ड साबित होता है।

is modi going again to hindu muslim trumpcard in 2019 general elections? | तो क्या 2019 में भी मोदीजी हिंदू-मुस्लिम करके ही चलाएंगे काम?

Narendra Modi

सफ़र उस दौर से शुरू होता है जब गुजरात के वडनगर के साधारण से परिवार में जन्मे नरेंद्र दामोदरदास मोदी 1967 में 17 साल की उम्र में अहमदाबाद पहुंचे। ये उम्र किसी भी इंसान के लिए कितनी अहम होती है इसका अंदाजा हम सभी को है। यही उम्र होती है जब एक इंसान अपने करियर का निर्धारण करता है और साल 1967 नरेंद्र मोदी के लिए भी करियर के लिहाज़ से बेहद अहम था। इसी साल उन्होंने अहमदाबाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सदस्यता ग्रहण की थी।

80 के दशक में राजनीति में प्रवेश-
80 के दशक में मोदी गुजरात बीजेपी में शामिल हुए। साल 1988-89 में गुजरात बीजेपी के महासचिव बनाये जाने के बाद नरेंद्र मोदी का कद बढ़ता चला गया और एक समय वो आया जब 1990 में बीजेपी के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आडवाणी के सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा में उन्होंने अहम भूमिका अदा की। कहा जाता है कि इसके बाद उन्हें इनाम स्वरुप कई राज्यों का बीजेपी प्रभारी बनाया गया।

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2001 में मिली गुजरात की कमान-
राज्यों के प्रभारी बनाये जाने के बाद नरेंद्र मोदी को साल 1998 में बीजेपी का महासचिव नियुक्त किया गया। वहीं साल 2001 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के हाथों से सत्ता लेकर नरेंद्र मोदी को सोंपी गई, लेकिन मोदी के लिये गुजरात की कमान इतनी आसान नहीं रही। सत्ता संभालते ही गुजरात में भूकंप से 20 हजार से ज्यादा जिंदगियां काल के गाल में समा गईं। इसके लगभग 5 महीने बाद ही गोधरा रेल हादसा हुआ जिसमें कई हिंदू कारसेवक मारे गए। इसके ठीक बाद फरवरी 2002 में ही गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ़ दंगे भड़क उठे। विपक्ष ने इस मामले को बड़े ही जोर शोर से उठाया और सीधे तौर पर इन दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया। 

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यह वो समय था जब देश और दुनिया में नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे राजनेता के तौर पर उभरी जो मुसलमानों के खिलाफ था। हालांकि इसे भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष का तानाबाना ही करार दिया। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी हालात ऐसे बने कि मोदी को पद से हटाने की बात उठी लेकिन उन्हें तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से समर्थन मिला और वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहे। गुजरात में हुए दंगों के बाद वीजा और अन्य कारणों की वजह से नरेंद्र मोदी अमरीका की धरती पर कदम नहीं रख सके। मोदी के प्रति ब्रिटेन का रवैया भी कुछ अमेरिका जैसा ही रहा। 

हालांकि आरोपों पर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की ओर से हमेशा कहा जाता रहा कि उन्होंने अमेरिका और ब्रिटेन के लिए वीजा अप्लाई ही नहीं किया।

2014 लोकसभा चुनाव-
साल 2014 के लोकसभा चुनावों में इतिहास रचा गया और नरेंद्र मोदी ने केन्द्र में 'तिहरे शतक' के साथ सरकार बनाई। भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में लगभग 335 सीटों पर कब्जा कर कांग्रेस को अब तक की सबसे बुरी पराजय का मुंह दिखाते हुए स्पष्ट बहुमत हासिल किया. लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। ये वही नरेंद्र मोदी थे जिन्हें 2002 के गोधरा कांड के बाद मुसलमान विरोधी कहा जाने लगा था! क्या थी इसके पीछे की वजह कांग्रेस सरकार की नाकामी या नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए विकास के वादे, या नरेंद्र की हिंदूवादी नेता व मुस्लिम विरोधी छवि? आइए जानते हैं- 

अंदरूनी कलह और कमजोर नेतृत्व 
दशकों तक केंद्र सहित देश के विभिन्न राज्यों में हुकूमत चलाने वाली कांग्रेस देशभर में अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रही है। लोकसभा चुनाव के बाद विभिन्न राज्यों में हुए चुनाव में मात खा चुकी पार्टी कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में हाशिये पर चली गई है। इसकी प्रमुख वजह कांग्रेस की अंदरूनी कलह और कमजोर नेतृत्व को माना जा रहा है।

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आम लोगों से नहीं जुड़ पाए कांग्रेस के दिग्गज नेता-
कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं को 2014 के लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा। वजह साफ थी कि ये नेता आम जनता से सीधे कनेक्ट नहीं कर पाए। इनमें केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, अंबिका सोनी, कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, अजय माकन और पवन कुमार बंसल शामिल थे।

मनमोहन सिंह का 'मौन' जिम्मेदार -
2014 में मनमोहन की संवादहीनता और कम बोलना कांग्रेस की परेशानी की मूल वजह रही और उनका 'मौन' तो सबसे बुरा रहा। 

नरेंद्र मोदी की हिंदूवादी छवि-
प्रधानमंत्री मोदी के सामने साल 2002-2003 के हालात जटिल थे लेकिन उस वक्त पीएम मोदी ने अकेले दम पर बीजेपी को गुजरात विधानसभा में जीत दिलाई थी। ठीक उसी तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में भी मोदी जी को इस छवि का फायदा मिला। उस वक्त भी मोदी ने बीजेपी को दो तिहाई बहुमत दिलाया था. पार्टी को पचास फीसदी से कुछ ही कम वोट मिले थे। फिर भी मोदी एक बड़े तबके की नजर में विलेन ही बने रहे. एक दशक से लंबे वक़्त से मोदी के आलोचक गुजरात में 2002 के दंगे में उनकी भूमिका पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन मोदी के साथ हमेशा से ही इसका विपरीत फायदा मिलता रहा। उनकी छवि एक हिंदूवादी नेता के रूप में बढ़ती रही जिसका फायदा उन्हें 2014 लोकसभा चुनावों में मिला।

एक ही विकल्प-
12 सालों तक गुजरात में हुए समग्र विकास के आधार पर लोगों को देश में नेतृत्व के लिए नरेन्द्र मोदी ही एकमात्र विकल्प नज़र आये जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने प्रचार प्रसार के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया। गुजरात चुनावों में जीत के अलावा मोदी की विकासपसंद नेता की छवि ने भी उन्हें काफी फायदा पहुंचाया। गुजरात को देश में इन्वेस्टमेंट के लिए पसंदीदा राज्य बनाने के मकसद से कई ऐसे फैसले लिए गए, जिन्होंने राज्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। इनमें सबसे अहम था वाइब्रेंट गुजरात समिट।

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जोशीला लहजा, इमोशन में लिपटी हुई जुबान- 

जोशीला लहजा, भावनाओं में लिपटी हुए जुबान और आम जनता से संवाद करने का सीधा और सधा हुआ अंदाज। गंभीर मुद्दों को बेहद आसान शब्दों में जनता तक पहुंचाने की मोदी की ये महारत ही उन्हें दूसरे नेताओं से आगे लेकर गई। 2014 के चुनावी माहौल में मोदी की यही चोट सीधे वोट में तब्दील होती रही और नतीजन भारतीय जनता पार्टी बड़े अंतर से चुनाव जीत गई।

इस सबके अलावा गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री मोदी की कार्यशैली, निर्णय लेने की क्षमता, कुछ नया करने की इच्छाशक्ति और भविष्य को ध्यान में रखकर तकनीक का प्रयोग आदि वजहों ने भी वोटर्स पर ख़ासा प्रभाव दिखाया और लोगों के दिलोदिमाग पर एक ही छाप छोड़ी, अबकी बार मोदी सरकार। 

राष्ट्रवाद और हिन्दू-मुस्लिम कार्ड पर होंगे 2019 आम चुनाव-
हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा भले ही समाज में सांप्रदायिकता का भय खड़ा करता है लेकिन यह प्रद्स्त है कि चुनावों में यही कार्ड ट्रम्प कार्ड साबित होता है। भले ही व्यापक तौर पर चुनावों में सांप्रदायिक न होती हो, लेकिन हिंसा का भय लोगों में ठीक उसी कदर समा जाता है जैसा 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के रणनीतिकारों ने खड़ा किया था, जब चुनाव के विज्ञापनों-पोस्टरों में चाकू-छुरे, हथगोले, मगरमच्छ आदि दर्शाए गए थे। नतीजा वही हुआ राजीव गांधी ने तब जीत का कीर्तिमान बनाया और अब मोदी-शाह भी बना रहे हैं और शायद आगे भी बनाते रहेंगे।

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