राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्न के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा घातक है

By राजेश बादल | Updated: March 10, 2020 06:01 IST2020-03-10T06:01:01+5:302020-03-10T06:01:01+5:30

आमतौर पर एक वित्त वर्ष में सांसदों के वेतन और भत्तों पर चार सौ से पांच सौ करोड़ खर्च होते हैं. दोनों सदनों का व्यय एक हजार करोड़ रु. से भी अधिक बैठता है. भारत जैसे देश के लिए यह खर्च अगर एक तरह से अनुत्पादक कार्यो पर हो रहा है तो इसे विडंबना ही कहा जा सकता है.

Ignoring the Parliament of loktantra is fatal | राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्न के सर्वोच्च मंदिर की उपेक्षा घातक है

प्रतीकात्मक फोटो

Highlightsइंदिरा गांधी के जमाने में 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ.लंबे समय से इस पर बहस होती रही है कि साल भर में लोकसभा के लिए 120 और राज्यसभा के लिए 100 दिन जरूरी होने चाहिए.

संसद में बजट सत्न का दूसरा सप्ताह तकलीफदेह गुजरा. राज्यसभा में दस फीसदी से भी कम काम हुआ. साढ़े अठ्ठाईस घंटे में से बमुश्किल दो घंटे इस उच्च सदन ने देश के मसलों पर माथापच्ची की. राजधानी दिल्ली में बीते दिनों हिंसक घटनाओं पर प्रतिपक्ष चर्चा करना चाहता है और सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. पक्ष और प्रतिपक्ष के अपने-अपने हठ कमाल के हैं. 

ताज्जुब तो इस बात पर है कि दोनों पक्ष एक दूसरे की जिद का आदर नहीं करना चाहते. सदन दिन भर नहीं चलता और सांसद शाम को गर्व से इतराते हैं कि उन्होंने सदन की कार्रवाई नहीं चलने दी. अवाम की समझ से परे है कि जब दिल्ली के हाल पर कुछ भी छिपा नहीं है तो सरकार बच क्यों रही है और विपक्ष के पास ऐसा क्या कहने को है, जो संसद के बाहर अभी तक नहीं बोला गया हो. सिवाय इसके कि राज्यसभा के रिकॉर्ड में चर्चा दर्ज हो जाएगी. 

लोकतंत्न के इस मंदिर की यह उपेक्षा वैसे तो दशकों से हो रही है. विडंबना  यह है कि दलगत राजनीति के चलते संसद में अवरोध मतदाताओं का दिल दुखाता है पर संसद सदस्यों के लिए यह आनंद का विषय बन जाता है. बात यहीं समाप्त नहीं होती. करीब-करीब सारी पार्टियों के चुने गए जनप्रतिनिधि अवकाश के दिनों का इस्तेमाल भारत के गंभीर मुद्दों के लिए नहीं करना चाहते. 

फरवरी में कोई एक पखवाड़े का समय छुट्टी का था. इस दरम्यान स्थायी समितियों की बैठकों को संसद के कामकाज का जरूरी हिस्सा माना जाता है. लेकिन शर्मनाक है कि अधिकतर दलों के माननीयों ने स्थायी समितियों की बैठकों की उपेक्षा की. आंकड़ा चौंकाता है - तृणमूल कांग्रेस के 57 फीसदी, भाजपा के 36 फीसदी, कांग्रेस के 15 फीसदी और बाकी पार्टियों के 50 फीसदी सदस्यों ने किसी भी बैठक में भाग नहीं लिया. इसके बाद भी ये सांसद पूरे महीने का वेतन और भत्ता चाहते हैं. जितने दिन काम उतने ही दाम की बात करने पर वे भड़कने लगते हैं.

हालांकि सत्नहवीं संसद का गठन हुआ तो बड़ी उम्मीदें जगी थीं. शानदार बहुमत वाली सरकार ने अपनी शुरु आत भी चमत्कारिक की थी. पहले ही सत्न में दोनों सदनों ने सौ प्रतिशत से अधिक काम किया तो मतदाता हैरान हो गए थे. वे समझ नहीं पाए कि नई सरकार के आते ही हमारे राजनेताओं में इतनी जिम्मेदारी और परिपक्वता कहां से आ गई. इस पहले सत्न की कुल 37 बैठकें हुईं. इनमें 32 विधेयक लोकसभा में तथा 37 विधेयक राज्यसभा में चर्चा के बाद पास हो गए. 

करीब 50 दिन की बैठकों में एक दिन भी कार्रवाई में बाधा नहीं पहुंचाई गई. शून्यकाल में 1000 से अधिक मसलों पर चर्चा का नया रिकॉर्ड बना. इस सत्न में लोकसभा ने कोई 137 प्रतिशत का अद्भुत काम किया और राज्यसभा ने 103 फीसदी काम का रिकॉर्ड बनाया था. दो दशकों में उच्च सदन का यह सबसे कामयाब सत्न था. 

पिछले अड़सठ साल में पहली बार संसद का इतना जिम्मेदारी भरा रूप देखने को मिला था. लेकिन वर्तमान सत्न ने इस अच्छे और नायाब सत्न की छवि को धो दिया. ऐसा लगा कि संसदीय इतिहास में एक बिजली सी कौंधी और विलुप्त हो गई. एक बार फिर संसदीय तस्वीर और स्याह हो गई. आम अवाम के गुस्से और अवसाद की चिंता जब संसद में नजर नहीं आती तो जनप्रतिनिधियों की लोकतांत्रिक सोच पर प्रश्न उठने लगते हैं. 

बीते कुछ वर्षो में तो जैसे संसद ने कम काम करने का रिकॉर्ड बनाया है. सन 2018 का बजट सत्न दशक का सबसे खराब सत्न था. केवल 22 बैठकें हो सकीं. लोकसभा ने केवल 25 प्रतिशत काम किया और राज्यसभा ने पैंतीस फीसदी. इसी तरह 2017 में केवल 57 दिन और 2016 में मात्न 70 दिन काम हो पाया था. कुछ पुराने आंकड़े तो डर पैदा करते हैं. सन 2006 में 77, 2007 में 66 और 2008 में भी सौ से कम दिन काम हुआ. इस साल तो केवल दो सत्न हुए. इससे शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है.

असल में लंबे समय से इस पर बहस होती रही है कि साल भर में लोकसभा के लिए 120 और राज्यसभा के लिए 100 दिन जरूरी होने चाहिए. संसद की सामान्य कामकाज समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि साल में कम से कम तीन सत्न होने ही चाहिए. नेहरू मंत्रिमंडल ने इसे मंजूर किया था. प्रतिपक्ष ने इसे पूरा समर्थन दिया था. नतीजतन पहली संसद में ही लोकसभा की 677 बैठकें हुईं. राज्यसभा की बैठकों की संख्या 565 रही. कुल 3784 घंटे काम लोकसभा में हुआ. पहले पांच साल 135 दिन का औसत निकल कर आया. 

इंदिरा गांधी के जमाने में 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ. इंदिरा गांधी के जमाने में 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ.. आज सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में समस्याओं का अंबार लगा है. ऐसे में संसद सत्न सौ से बढ़ाकर दो सौ दिन करने की बात होनी चाहिए. 

चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है कि नए सांसद भी अपने बौद्धिक स्तर और संसदीय ज्ञान को बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. कितने सांसद हैं जिन्हें देश के आंतरिक मामलों और वैदेशिक मामलों की गहरी समझ है. चुनाव दर चुनाव यह संख्या घटती जा रही है. जैसे-जैसे देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की अज्ञानता का आकार भी विकराल रूप ले रहा है. 

आमतौर पर एक वित्त वर्ष में सांसदों के वेतन और भत्तों पर चार सौ से पांच सौ करोड़ खर्च होते हैं. दोनों सदनों का व्यय एक हजार करोड़ रु. से भी अधिक बैठता है. भारत जैसे देश के लिए यह खर्च अगर एक तरह से अनुत्पादक कार्यो पर हो रहा है तो इसे विडंबना ही कहा जा सकता है. संसद में सामाजिक - राष्ट्रीय सरोकार अगर इसी तरह सिकुड़ते रहे तो आने वाले दिन चेतावनी भरे हैं.

Web Title: Ignoring the Parliament of loktantra is fatal

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