विश्वनाथ सचदेव: जनतंत्र में युद्ध नहीं, महायज्ञ होता है चुनाव
By विश्वनाथ सचदेव | Published: May 10, 2019 05:39 PM2019-05-10T17:39:26+5:302019-05-10T17:39:26+5:30
वर्ष 2014 में देश की जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी. निश्चित रूप से मतदाता को यह उम्मीद थी कि नई सरकार देश की समस्याओं को सुलझाने की ईमानदार कोशिश करेगी. लेकिन अपनी उपलब्धियों का हवाला देने के बजाय वर्तमान सरकार पिछली सरकारों के पचास साल के क्रिया-कलापों की ही दुहाई देती रही. इन चुनावों में हम सब यही देख रहे हैं...
जनतंत्न में चुनाव युद्ध नहीं होता, जिसमें सबकुछ जायज मान लिया जाता है. जनतंत्न में चुनाव एक यज्ञ है जो तन-मन की पवित्नता के साथ किया जाता है. इन दो वाक्यों में ‘होता है’ और ‘जाता है’ शब्द शायद उचित नहीं है, कम से आज जिस तरह हमारे देश में चुनाव हो रहे हैं, उसे देखते हुए तो नहीं ही. इसलिए, कहा यह जाना चाहिए कि जनतंत्न में चुनाव एक महायज्ञ है, उसे युद्ध नहीं माना जाना चाहिए, यह महायज्ञ पूरी पवित्नता के साथ संपन्न किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं है कि पहले चुनावों में सबकुछ उचित ही होता था. विकार तो 1952 के पहले चुनावों में ही दिखने लगे थे, पर आज चुनाव में जितनी विकृतियां दिखाई देने लगी हैं, उन्हें देखकर तो डर-सा लगता है.
वैसे, चुनाव सही ढंग से संपन्न कराने के लिए हमने आदर्श आचार संहिता भी बना रखी है. उसके पालन का दिखावा भी होता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि राजनीति के हमारे खिलाड़ी येन-केन-प्रकारेण जीत में ही विश्वास करते हैं. वह सबकुछ उचित मान लिया गया है, जो चुनाव जीतने में मददगार हो सकता है. जाति, धर्म, वर्ण, भाषा आदि सब राजनीति के हथियार बन गए हैं. धन-बल भी हमारी राजनीति में जायज मान लिया गया है और बाहु-बल भी. विरोधी को मतदाता की दृष्टि में नीचा गिराने के लिए कुछ भी किया जा रहा है हमारी राजनीति में. चुनाव जीतने के लिए नेता और उनके समर्थक कुछ भी कर रहे हैं, कुछ भी कह रहे हैं.
हाल ही में स्वयं प्रधानमंत्री ने बोफोर्स मुद्दे को उछालकर इस ‘कुछ भी’ का एक उदाहरण ही पेश किया है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ चुनाव-क्षेत्न में एक चुनावी-सभा में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सीधे संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आपके पिता को उनके रागदरबारियों ने ‘मिस्टर क्लीन’ कहा था. पर उनके जीवन का अंत भ्रष्टाचारी नंबर एक के रूप में हुआ.’’
राहुल के पिता राजीव गांधी वर्ष 1984 से 1989 तक देश के प्रधानमंत्नी थे और 1991 में एक आतंकवादी हमले में उनकी मृत्यु हुई थी. और उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ रागदरबारियों ने नहीं, देश के मीडिया ने कहा था. हां, यह सही है कि उन पर बोफोर्स कांड में लिप्त होने का आरोप लगा था, लेकिन सही यह भी है कि बोफोर्स कांड में आज तक आरोप प्रमाणित नहीं हो पाए हैं. आरोप प्रमाणित न हो पाने का अर्थ यह नहीं होता कि अपराध हुआ ही नहीं था, पर बिना प्रमाणों के किसी को अपराधी घोषित करना भी तो उचित नहीं है.
सच तो यही है कि इन चुनावों में आरोपों-प्रत्यारोपों का जो घटिया स्तर दिखाई दे रहा है, और कुछ भी कहने की जो प्रवृत्ति उफान पर है, राजीव गांधी पर आरोप उसी का ताजा उदाहरण है. क्यों जरूरी है कि राजनेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालें? क्यों राजनेताओं को यह लगता है कि आरोपों की राजनीति से मतदाता को भरमाया जा सकता है?
वर्ष 2014 में देश की जनता ने तब की कांग्रेस सरकार की गलतियों-कमियों के मद्देनजर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को सत्ता सौंपी थी. निश्चित रूप से मतदाता को यह उम्मीद थी कि नई सरकार देश की समस्याओं को सुलझाने की ईमानदार कोशिश करेगी. पर पिछले पांच साल में हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि अपने कार्यकाल की उपलब्धियों का हवाला देने के बजाय सरकार पिछली सरकारों के पचास साल के क्रिया-कलापों की ही दुहाई देती रही. इन चुनावों में भी हमने यही सब देखा.
अब ‘मिस्टर क्लीन’ का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्नी ने फिर ऐसी ही एक कोशिश की है. चुनाव-प्रचार अपनी उपलब्धियों-संकल्पों के आधार पर होना चाहिए. विरोधी की कमियों-गलतियों को रेखांकित करना भी गलत नहीं है, पर यह काम मर्यादा में रह कर होना चाहिए. जनतंत्न में विरोधी दुश्मन नहीं होता. विरोध वैचारिक होता है, नीतियों का होता है. इस विरोध को गरिमाहीन बनाने का मतलब जनतंत्न को न समझना ही नहीं होता, जनतंत्न का अपमान करना भी होता है. दुर्भाग्य से हमारे बहुत से बड़े नेता भी जनतंत्न में विरोधी और दुश्मन के अंतर को नहीं समझना चाहते.
चुनाव महापर्व है जनतंत्न का. इसे एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के अवसर के रूप में देखना अपनी कमजोरी को ही सिद्ध करना होता है.
‘भ्रष्टाचारी नंबर एक’ वाले बयान में प्रधानमंत्नी ने यह भी कहा था कि राफेल के नाम पर राहुल गांधी ‘मोदी की पचास साल की तपस्या को धूल में नहीं मिला सकते’. कोई किसी तपस्या को निष्फल नहीं बना सकता. हां, यह जरूरी है कि तपस्या सच्ची हो, सच्चे मन से की गई हो. प्रधानमंत्नी जिस तपस्या की बात कर रहे हैं, उसका उनकी राजनीति से क्या रिश्ता है, वही जानें. जनतंत्न में राजनीति का मैदान घटिया बातों से ‘युद्ध’ जीतने के लिए नहीं होता. अपनी बड़ी लकीर खींचकर प्रतिस्पर्धी की लकीर छोटी करनी पड़ती है इस यज्ञ में. इस यज्ञ में, जो जितना बड़ा है, उससे उतना ही विनम्र होने की अपेक्षा की जाती है-फलों से लदी टहनी की तरह. हमारे राजनेता इस बात को कब समझेंगे?