राहुल गांधी की कैलाश मानसरोवर यात्र के इर्दगिर्द चल रहे जवाब-सवाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा अमेरिका की धरती पर किए गए हिंदू एकता के आग्रह ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र के उन आयामों को मंचस्थ कर दिया है जिन्हें अब बेझिझक ‘हिंदू आयाम’ करार दिया जा सकता है। दरअसल, सारी बहस ही हिंदू होने और उसके लोकतंत्र से ताल्लुक के बारे में हो रही है। इस लिहाज से यह एक ऐसा समय है जिसकी आहटें नब्बे के दशक के उस दौर में भी नहीं सुनाई पड़ी थीं जब राम जन्मभूमि आंदोलन पूरे आवेग से चल रहा था। उस समय लोकतंत्र और हिंदू अस्मिता का रिश्ता केवल संघ परिवार की तरफ से ही व्यक्त होता था, और दूसरा पक्ष उस आग्रह का निषेध करता नजर आता था। आज संघ परिवार के अलावा और भी कई राजनीतिक शक्तियों के पास एक ब्रश है जिसके जरिये वे लोकतंत्र को हिंदू रंगों में रंग देना चाहती हैं। उन सभी का दावा है कि लोकतंत्र को बेहतर ढंग से हिंदू बनाने का सबसे अच्छा फामरूला उन्हीं के पास है।
सार्वजनिक जीवन में चल रहे इस वाद-विवाद पर व्यावहारिक राजनीति का पानी चढ़ाने का काम अगड़ी जातियों के भारत बंद ने कर दिया है। अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के कुछ प्रावधानों के विरुद्ध खड़े किए गए इस आक्रामक आंदोलन ने लोकतंत्र के हिंदूकरण में निहित राजनीतिक होड़ के तीखेपन को रेखांकित कर दिया है। इससे पहले इसी मुद्दे पर दूसरे पक्ष से अनुसूचित जातियां सड़कों पर उतर चुकी हैं। यानी एक तरफ तो देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां लोकतंत्र पर हिंदू मुहर लगाने की पूरी चेष्टा कर रही हैं, और दूसरी तरफ हिंदू समाज सीधे-सीधे दो फांकों में बंटा नजर आ रहा है। जाहिर है कि लोकतंत्र को हिंदू बनाना इतना आसान नहीं है। उसमें अनपेक्षित खतरे निहित हैं। सोचने की बात है कि अगर नेपथ्य में चल रही बहस से ‘हिंदू-हिंदू’ की आवाज न आ रही होती, तो अगड़ों और दलितों का यह विवाद कानून के औजारों से संसाधित किया जा सकता था। उस सूरत में यह एक निरापद सेक्युलर कार्रवाई होती। लेकिन नई परिस्थिति में इसका मतलब कुछ और हो गया है। अब इस सामाजिक टकराव के जरिए तय हो रहा है कि हिंदू एकता का भविष्य क्या होगा। सवाल पूछा जा रहा है कि क्या स्वयं को दलित कहने वाले समुदाय और खुद को द्विज मानने वाले समुदाय एक राजनीतिक झंडे के तले रह सकते हैं?
2014 के लोकसभा चुनाव के समय राजनीति की हिंदू जमीन पर एक ही टीम खेल रही थी। और, वह थी संघ परिवार के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की। बहुसंख्यकवाद के एकमात्र झंडाबरदार के रूप में उसके पास अपने विरोधियों पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की तोहमत लगाने की सुविधा प्राप्त थी। कोई आठ-दस महीने पहले तक स्थिति का रुझान कुछ ऐसा ही था। लेकिन, कांग्रेस ने अपनी रणनीति में सोचा-समझा परिवर्तन करके इस हंदू जमीन की समांतर दावेदारी शुरू कर दी है। कांग्रेस पर नजर रखने वाले प्रेक्षकों को साफ दिख रहा है कि इस पार्टी ने योजनाबद्ध ढंग से अपने नेता और पार्टी का हिंदू संस्कार करने की ठान ली है। इसीलिए अब उसके प्रवक्ता मीडिया मंचों पर तिलक लगा कर और संस्कृत के श्लोक बोलते हुए अवतरित होने लगे हैं। राहुल गांधी को शिव-भक्त घोषित कर दिया गया है। उधर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश विष्णुभक्त के रूप में सामने आ गए हैं। रामभक्त भाजपा, शिवभक्त कांग्रेस और विष्णुभक्त सपा के साथ जल्दी ही दूसरे भक्तगण भी जुड़ने वाले हैं।
भाजपा के लिए यह घटनाक्रम चौंकाने वाला है। वह जानती है कि हिंदू राजनीति का उसका मॉडल अल्पसंख्यक विरोधी है। उसे सपने में भी इमकान नहीं था कि हिंदू राजनीति का एक ऐसा मॉडल भी उसके मुकाबले खड़ा किया जा सकता है जिसकी तरफ अल्पसंख्यक (खासकर मुसलमान) दिलचस्पी और हमदर्दी की निगाह से देख रहे हों। यही कारण है कि राहुल की कैलाश मानसरोवर यात्र के खिलाफ भाजपा ने कई प्रेस सम्मेलन कर डाले हैं। चिढ़ कर एक केंद्रीय मंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल तक कर डाला है। लेकिन, जिस तरह हिंदू धर्म में किसी एक देवता की इजारेदारी नहीं चल सकती, उसी तरह ऐसा लग रहा है कि हिंदू राजनीति पर भी अब एक पार्टी की इजारेदारी नहीं चल पाएगी। आखिरकार लोकतंत्र का हिंदूकरण अगर होना ही है, तो क्यों न पूरी तरह हिंदू शैली में ही हो।