योग का मतलब है जीवन, यह सुख-दुख से उबार कर लाता है प्रसन्नता
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 21, 2018 05:11 AM2018-06-21T05:11:45+5:302018-06-21T05:11:45+5:30
आज शांति की तलाश में लोग अपनी-अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुसार देश-विदेश की खाक छान रहे हैं। परंतु बाहर की दुनिया की दौड़ नाकाफी साबित हो रही है। युद्ध अंतर्मन में लड़ा जा रहा है और उसके लिए अंतर्यात्ना की जरूरत है ताकि आत्म-साक्षात्कार द्वारा हम अपने स्वरूप को जान-पहचान सकें।
गिरीश्वर मिश्र
असीम सी लगती भौतिक प्रगति के सहारे आज का मनुष्य अपनी प्रत्येक सीमा को झुठलाने की कोशिश में लगा है। तकनीकी क्रांति उसे देश और काल दोनों के साथ खेलने के तमाम उपकरण भी मुहैया करा रही है। इन सब के बावजूद आज हर कोई अनिश्चय, असंतुष्टि और अज्ञात भय से बेचैन, बदहवास और बदहाल हो रहा है। उसे मानसिक सुख-शांति नहीं मिल पा रही है। सच तो यह है कि भौतिक संसाधनों को सतत बढ़ाने की चाह हमें मुक्त करने की जगह नए-नए बंधनों की श्रृंखला में बांधती चलती है और मानसिक जगत की उथल-पुथल और भी जटिल हो जाती है।
आज शांति की तलाश में लोग अपनी-अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुसार देश-विदेश की खाक छान रहे हैं। परंतु बाहर की दुनिया की दौड़ नाकाफी साबित हो रही है। युद्ध अंतर्मन में लड़ा जा रहा है और उसके लिए अंतर्यात्ना की जरूरत है ताकि आत्म-साक्षात्कार द्वारा हम अपने स्वरूप को जान-पहचान सकें। इस पथ पर योग का ज्ञान और प्रयोग मार्गदर्शक साबित होता है। शाब्दिक अर्थ को लें तो ‘योग’ यानी जुड़ना जीवन का पर्याय है और वियोग जीवन की हानि या अवसान का।
योग के क्षेत्न में पूर्व परंपरा से मिले ज्ञान को व्यवस्थित कर महर्षि पतंजलि ने प्रख्यात ग्रंथ ‘योग सूत्न’ में योग की वैज्ञानिक पद्धति का अद्भुत प्रतिपादन किया। योग जीवन को सोद्देश्य, उपयोगी और उत्तम बनाने के लिए एक सहज विधि है जिसे जीवन शैली कहना अधिक उपयुक्त होगा। यम, नियम, आसन, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार और समाधि के चरण पूरे जीवन की ‘मैनुअल’ प्रस्तुत करते हैं जिसमें शरीर और मन दोनों को आंतरिक और बाहरी दुनिया के साथ सहजता से जोड़ने का विधान किया गया है। ऊपर की बाहरी सफाई तो सरल है पर आज मन को मैला करने के इतने जुगाड़ हो गए हैं कि उसे स्वच्छ करना बड़ी चुनौती हो गई है। योग मन को शुद्ध कर हमारे अस्तित्व के सार तत्व जो चेतन द्रष्टा है उससे जोड़ने का उपाय उपलब्ध कराता है। मन के भटकाव से हट कर अस्तित्व की परिधि से केंद्र की ओर की यात्ना करने में सुविधा होती है।
मन के पास कल्पना, चिंतन, ध्यान, लक्ष्य, भावना और इच्छा की शक्ति होती है। चंचल होने पर भी वह अंदर और बाहर दोनों ही तरह की दुनिया को प्रतिबिंबित करता है। ज्ञानेंद्रियों के साथ सहयोग कर मन प्रत्यक्ष, अवलोकन, भावना और अनुभव कर पाता है। उसके अनुभव सुखद या दुखद दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। इनके प्रभाव से मन में व्याकुलता और अन्य प्रवृत्तियां पैदा होती हैं जिसके चलते वासनाएं एकत्न होती हैं। इनसे चेतना का उतार-चढ़ाव होता है। यदि मन अनुशासित और शुद्ध नहीं है तो यह अनुभूत विषयों में उलझ जाता है। फलत: सुख दु:ख उपजते हैं।
मन और पदार्थ (माइंड व मैटर) को ले कर भौतिकी, जीवविज्ञान और मनोविज्ञान सभी विषयों में गहन रुचि ली जा रही है। इस दृष्टि से योग सूत्न सारे विश्व के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। उस पर जाने कितनी टीकाएं पहले से ही हैं और अभी भी लिखी जा रही हैं। योग मनुष्य की स्थायी सुख और शांति की आकांक्षा के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
योग लक्ष्य भी है और लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम भी। वह प्रयोगों और नियमों का विज्ञान है जो हमें बाहर से आकर घर कर गए विकारों के आवरण को हटा कर अपने स्वरूप की पहचान करवाता है। इस तरह चैतन्य का विकास करने के लिए योग हमारे मन को प्रशिक्षित करता है. तभी पदार्थो की अनावश्यक जकड़ से मुक्ति मिल पाती है। योग निर्विषय मन की स्थिति प्राप्त करने में सहायक होता है, हालांकि मन का निग्रह मुश्किल काम है। योग उन लोगों का मित्न होता है जो इसे गंभीरता से लेते हैं। यह आलस्य हटा कर सक्रियता और गतिशीलता लाता है। योग में आगे बढ़ते हुए साधक द्रष्टा और दृश्य के बीच एकत्व का अनुभव करता है। यह सुख दु:ख से उबार कर जीवन में प्रसन्नता लाता है। तब व्यक्ति सारे दैनिक कृत्य करता है पर अनासक्त रह कर, यानी बिना उनमें शामिल हुए। गुणात्मक चेतना से उपजी कैवल्य की स्थिति में न केवल व्यक्ति बल्कि उसके आसपास के सभी लोग दिव्यता का अनुभव करते हैं। योग वासिष्ठ जीवन्मुक्त की संकल्पना देता है जिसके अनुसार जीवन जीते हुए व्यक्ति उन्मुक्त रहता है।
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