पिछले कुछ वर्षों में ‘सस्टेनेबिलिटी’ विश्व भर में एक मूलमंत्न के रूप में उभरा है. आज विश्व की बड़ी-बड़ी कंपनियां और कॉर्पोरेट ग्रुप ‘सस्टेनेबिलिटी’ के नाम पर हर वर्ष विभिन्न गतिविधियां संचालित कर रहे हैं.
इसके लिए करोड़ों-अरबों रुपयों का बजट भी आवंटित किया जा रहा है. आइए इसे कुछ उदाहरणों से समझते हैं. एच एंड एम (जो एक स्वीडिश बहुराष्ट्रीय फैशन परिधान रिटेल कंपनी है) ने साल 2019 में अपने गारमेंट कलेक्शन इनिशिएटिव के माध्यम से, वैश्विक स्तर पर करीब 29005 टन अप्रयुक्त तथा अवांछित कपड़े पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण के उद्देश्य से इकट्ठा किए.
दुनिया की सबसे बड़ी कॉफी श्रृंखला स्टारबक्स ने वर्ष 2018 में एक ऑफर के तहत यूएस/कनाडा के स्टोर्स में आने वाले उन ग्राहकों को डिस्काउंट दिया जो कॉफी पीने के लिए अपने मग या टम्बलर साथ लेकर आए थे. फलस्वरूप, सालभर में 42 मिलियन से ज्यादा प्लास्टिक डिस्पोजेबल कप की बचत हुई.
कोकाकोला ने अपने सस्टेनेबल एजेंडा ‘वल्र्ड विदाउट वेस्ट’ के अंतर्गत साल 2025 तक वैश्विक स्तर पर अपनी पैकेजिंग को पुनर्चक्रण योग्य बनाने और 2030 तक बेची हुई कोक की हर एक बोतल/ कैन को इकट्ठा तथा पुन: चक्रित करने का उद्देश्य रखा है. इसी प्रकार विभिन्न वैश्विक कंपनियां जैसे कि यूनीलीवर, टोयोटा, पेप्सिको, नेस्ले, निसान आदि अलग-अलग गतिविधियों (वॉटर रिसाइक्लिंग, सस्टेनेबल सोर्सिग, प्लास्टिक रिसाइक्लिंग और उपयोग में कमी इत्यादि) के माध्यम से सस्टेनेबिलिटी की दिशा में प्रयासरत हैं.
क्या हम भारतीय ये सभी या इनसे सम्बद्ध गतिविधियां कई सालों से नहीं करते आ रहे हैं? कैसे? आइए समझते हैं. मुझे आज भी याद है कि बचपन में पुराने कपड़ों शर्ट, पैंट, साड़ियां आदि के बदले में हमारी दादीजी और मम्मी नए बर्तन खरीद लिया करती थीं. ये पुराने कपड़े धुलकर और इस्त्नी होकर छोटे शहरों या गांवों के साप्ताहिक/ हाट बाजारों में फिर से किसी के उपयोग के लिए बिक जाते थे.
स्लेट और पेंसिल जबर्दस्त प्रचलन में थी. हर साल शैक्षणिक सत्न समाप्त होने पर हमारी सभी कापियों के खाली पन्नों को फाड़कर मम्मी सील देती थी जिसे हम गर्मी की छुट्टियों में पढ़ाई या ड्राइंग के काम में लेते थे. इसी प्रकार शादियों या अन्य सामाजिक समारोहों में होने वाला सामूहिक भोजन पत्तल दोने में ही होता था. गांव में तो सामूहिक भोजन के दौरान मेहमान गिलास और चम्मच खुद ही ले जाते थे.
तीज-त्योहार, पूजा इत्यादि के मौकों पर अशोक के पत्ताें और गेंदे के फूलों का बना हुआ पारंपरिक तोरण ही लगाया जाता था और मांडना सिर्फ फूलों या गेरू पांडू से ही बनाते थे. रोज बाजार जाते समय कपड़े का एक थैला हमेशा पापा का हमसफर रहता था. गेहूं के लिए जूट के बोरे, कुल्हड़ में दूध, चाय, दही, चेहरे के लिए उबटन, मुल्तानी मिट्टी का प्रयोग.
शायद आप में से भी कई लोगों के इस प्रकार के अनेक अनुभव रहे होंगे. उस समय तो यह सब मेरे लिए काफी सामान्य था और इन सबके पीछे का वास्तविक उद्देश्य नहीं समझ पाया. लेकिन यह छोटी-छोटी आदतें एवं गतिविधियां शायद हमारी पहले की पीढ़ियों का पर्यावरण के प्रति उनके दायित्व को निभाने का एक तरीका थीं या पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए कुछ प्रयास थे जिसे आप और हम आज ‘सस्टेनेबिलिटी’ के नाम से जान रहे हैं.
लेकिन अफसोस, पश्चिम की नकल करते हुए हम उपभोक्तावाद के चंगुल में इतना फंस चुके हैं कि इन सभी चीजों को या तो भूल गए हैं या इनसे जानबूझकर दूर होते जा रहे हैं. यह बेहद जरूरी है कि हम शीघ्र ही प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को न सिर्फ समझें अपितु वैश्विक स्तर पर इस दिशा में सार्थक कदम भी बढ़ाएं. ‘सस्टेनेबिलिटी’ आज के समय की मांग है और इसे सिर्फ कंपनियों के दायरे तक सीमित रखना उचित नहीं होगा. इसे एक व्यापक, वैश्विक जन अभियान बनाना नितांत आवश्यक है.
अथर्ववेद में उल्लेख भी आता है ‘माता भूमि: पुत्नोहं पृथिव्या:’ अर्थात् यह पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्न हूं. अत: हर व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व को न सिर्फ समझना होगा बल्कि उसे पूरी निष्ठा से निभाना होगा और उसे अपने दैनिक आचरण एवं व्यवहार में भी लाना होगा.