वैदिक युग से ही शक्ति की पर्याय रही नारी
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: March 7, 2025 06:47 IST2025-03-07T06:47:31+5:302025-03-07T06:47:46+5:30
8 मार्च, 2025 के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की ओर हम बढ़ रहे हैं, इसकी थीम एक्सीलरेट एक्शन हमें एक नए संकल्प की ओर बुलाती है.

वैदिक युग से ही शक्ति की पर्याय रही नारी
डॉ. अनन्या मिश्र
राजा जनक के भव्य दरबार में, जहां ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे मनीषी ब्रह्म के गूढ़ रहस्यों पर मंथन कर रहे थे, वहां एक स्त्री उठी. उसकी उपस्थिति मात्र से सभा में एक अद्भुत ऊर्जा व्याप्त हो गई. वह प्रश्न पूछने आई थी, उत्तर मांगने आई थी, सत्य की गहराइयों को टटोलने आई थी. वह थीं गार्गी वाचक्नवी एक अद्वितीय विदुषी, जिसने अपने समय के सबसे महान ऋषि को चुनौती देने का साहस किया. उनकी दृष्टि अडिग थी, उनकी वाणी में वेदों की गूंज थी. उन्होंने सीधे याज्ञवल्क्य की ओर देखा और गर्जना की भांति प्रश्न किया-
‘कस्मिन्नु खलु इमाः प्रतिष्ठिताः?’
‘यह समस्त ब्रह्मांड किस आधार पर स्थित है?’ (बृहदारण्यक उपनिषद 3.8.4)
यह कोई साधारण संवाद नहीं था, और वह कोई साधारण नारी नहीं थीं. वह ज्ञान की साधिका थीं, दार्शनिक थीं, विचारों की अनल बुझाने वाली प्रखर ज्वाला थीं. उनकी जिज्ञासा मात्र व्यक्तिगत नहीं थी, वह समूची मानवता के लिए उत्तर खोज रही थीं. उनका प्रश्न अस्तित्व की बुनियाद तक जा पहुंचा, जिससे स्वयं याज्ञवल्क्य को अविनाशी तत्व की व्याख्या के लिए विवश होना पड़ा.
यह संवाद महिलाओं की प्रज्ञा, उनकी आध्यात्मिक गहराई और ज्ञान में उनके अद्वितीय स्थान का जीवंत प्रमाण है. वैदिक युग से ही नारी शास्त्रों की ज्ञाता रही है, धर्म और दर्शन की निर्णायक रही है, सत्य की खोज में अग्रणी रही है और शक्ति की पर्याय रही है और सदा रहेगी. वैदिक ऋचाओं में नारी को गौण या निर्बल नहीं, अपितु ब्रह्म की साधिका, ज्ञान की आराधिका, और चेतना की जागृत स्वरूपा बताया गया है. वह ब्रह्मवादिनी थी-वह जो सत्य की खोज में चलती है, जो वेदों की ऋचाएं रचती है, जो स्वयं ज्ञान की अधिष्ठात्री है.
ऋग्वेद के देवी सूक्त में देवी कहती हैं-
‘अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः’ ‘मैं रुद्रों और वसुओं के साथ चलती हूं, मैं आदित्यों और सभी देवताओं के साथ विचरण करती हूं.’
(ऋग्वेद 10.125.3)
यह उद्घोष केवल शक्ति का नहीं, चेतना की व्यापकता का है. स्त्री केवल सृष्टि का एक अंश नहीं, बल्कि सृष्टि का सार है. वह आदि भी है और अनंत भी. समय बदला, शास्त्र बदले, युग बदले, लेकिन यह सत्य नहीं बदला. चाहे वह महाभारत की द्रौपदी हो, जिसने अन्याय को चुनौती देकर युद्ध की निर्णायक भूमिका निभाई, या उपनिषदों की मैत्रेयी, जिसने सांसारिक वैभव के ऊपर ज्ञान को वरीयता दी-महिलाएं हमेशा से इतिहास नहीं, बल्कि भविष्य गढ़ने वाली शक्ति रही हैं.
आज, 2025 के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की ओर बढ़ रहे हैं, इसकी थीम ‘Accelerate Action’ हमें एक नए संकल्प की ओर बुलाती है. यह वैदिक विरासत की वही निरंतरता है, जो स्त्री को हमेशा से संपूर्ण, सक्षम और स्वतंत्र मानती आई है. स्त्री किसी की छाया नहीं, स्वयं पूर्ण चंद्रिका है; किसी की अनुगामिनी नहीं, स्वयं नेतृत्व की ध्वजवाहक है; किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रही, क्योंकि वह स्वयं शक्ति है, जो काल के प्रवाह को अपनी दिशा में मोड़ने की क्षमता रखती है.
भारतीय महिलाएं वैदिक काल की अपनी गौरवशाली विरासत को पुनः स्थापित कर रही हैं. महिला साक्षरता दर 70 प्रतिशत पार कर चुकी है, जो एक दशक की तुलना में अभूतपूर्व वृद्धि दर्शाती है. यह न केवल उनकी आकांक्षाओं का प्रमाण है, बल्कि समाज के सतत विकास में उनके अटूट योगदान का संकेत भी है. पेशेवर जगत में भी महिलाओं का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ रहा है.
आज, कॉर्पोरेट नेतृत्व में लगभग 18 प्रतिशत वरिष्ठ प्रबंधन पदों पर महिलाएं आसीन हैं, और यह प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है - जो पारंपरिक बाधाओं को तोड़ने और नेतृत्व के प्रति उनके अद्वितीय दृष्टिकोण को स्थापित करने का प्रमाण है. भारत में 20% सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) महिलाओं के नेतृत्व में हैं, जो उनकी उद्यमशीलता की प्राचीन परंपरा को आधुनिक आयाम दे रहे हैं.
राजनीतिक परिदृश्य में भी महिलाओं की उपस्थिति सशक्त हो रही है. हाल के चुनावों में रिकॉर्ड संख्या में महिला उम्मीदवारों ने भाग लिया. यह बदलाव समावेशी शासन प्रणाली की ओर बढ़ते कदमों को दर्शाता है, जो वैदिक युग की उस परंपरा की ओर लौटने जैसा है, जहां अपाला, लोपामुद्रा और गार्गी जैसी विदुषियां समाज का मार्गदर्शन करती थीं.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीय महिलाएं अपनी मेधा और समर्पण से इतिहास रच रही हैं.
भारत के मंगलयान मिशन में महिला वैज्ञानिकों की अग्रणी भूमिका इस बात का प्रमाण है कि जब अवसर और प्रतिभा एक साथ आते हैं, तो आकाश भी कोई सीमा नहीं रह जाता. यह उन्नति कोई आधुनिक चमत्कार नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति की उसी चेतना का पुनर्जागरण है, जो स्त्री को केवल सहायक नहीं, बल्कि शक्ति का शाश्वत स्रोत मानती है.
यह युग नारी का नहीं-नारी स्वयं युग है.समय की धारा में अनगिनत कहानियां दर्ज हैं, जिन्होंने केवल इतिहास को आकार ही नहीं दिया, बल्कि उसका मार्ग भी प्रशस्त किया. ये कहानियां उन महिलाओं की हैं, जो केवल परिवर्तन की साक्षी नहीं, बल्कि स्वयं परिवर्तन की स्रोत रही हैं. वे न तो किसी अनुकंपा की प्रतीक्षा करती हैं, न ही सत्ता की निष्क्रिय प्राप्तकर्ता हैं-वे सदा से ही शक्ति रही हैं, सृजन की केंद्रबिंदु, और समस्त युगों की आधारशिला.
वेदों ने उद्घोष किया है-
‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’ (यजुर्वेद 32.3) ‘उसकी कोई प्रतिमा नहीं है.’
परंतु यदि उस निराकार शक्ति को कोई रूप लेना हो, तो क्या वह एक मां की अटूट सहनशीलता, एक विदुषी की गहन प्रज्ञा, एक पालनकर्ता की असीम करुणा और एक नेतृत्वकर्ता की निडरता के रूप में प्रकट नहीं होगी? महिलाओं को शक्ति प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है, वे तो स्वयं ही दुनिया को शक्ति देने वाली हैं. उन्हें अपवाद के रूप में नहीं, बल्कि नियम के रूप में आगे आना चाहिए, उस विरासत को पुनः प्राप्त करना चाहिए जो हमेशा से उनकी रही है. स्त्री न कभी सीमाओं में बंधी थी, न बंध सकती है.