निडर न्यायपालिका से ही होगी कानून की रक्षा
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 17, 2018 07:20 AM2018-07-17T07:20:58+5:302018-07-17T07:20:58+5:30
एक स्वतंत्र और निडर न्यायपालिका महत्वपूर्ण है जो संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करती है। इसके बिना संविधान निर्जीव दस्तावेज की तरह हो जाएगा, बिना आत्मा के शरीर जैसा। कानून के अनुसार न्याय देने में, अदालत का कार्य कार्यपालिका के अतिरेक की निगरानी कर विधायी गलतियों को खारिज करना होता है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में इसकी सतर्क और सक्रिय भूमिका उन लोगों के लिए चेतावनी है जो संविधानप्रदत्त मूल्यों को कम करना चाहते हैं।
लेखक- कपिल सिब्बल
एक स्वतंत्र और निडर न्यायपालिका महत्वपूर्ण है जो संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करती है। इसके बिना संविधान निर्जीव दस्तावेज की तरह हो जाएगा, बिना आत्मा के शरीर जैसा। कानून के अनुसार न्याय देने में, अदालत का कार्य कार्यपालिका के अतिरेक की निगरानी कर विधायी गलतियों को खारिज करना होता है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में इसकी सतर्क और सक्रिय भूमिका उन लोगों के लिए चेतावनी है जो संविधानप्रदत्त मूल्यों को कम करना चाहते हैं। बिना ऐसी सतर्कता के देश अपनी लोकतांत्रिक जीवन-शक्ति को खो देगा। इसलिए न केवल न्यायाधीशों को अदालत की स्वतंत्रता और अखंडता को भीतर से उत्साहपूर्वक सुरक्षित रखना होगा, बल्कि हम सभी को इसे बाहर से भी सुरक्षा प्रदान करनी होगी। ये बातें उस न्यायाधीश के संबोधन के संदर्भ में हैं जिसने भारतीय लोकतंत्र की उस दुर्दशा के बारे में अपने विजन और अपनी समझ को मुखर तरीके से व्यक्त किया है, जिसकी चुनौतियों का सामना आज हमारे राष्ट्र को करना पड़ रहा है।
न्यायाधीश, जिनके बारे में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने ठीक ही कहा है, ‘‘अपने निर्णय की अंतिमता से संतुष्ट होने के बजाय अचूकता लाने का प्रयास करें।’’ लेकिन अचूकता एक आदर्श है। हालांकि हम सभी दोषपूर्ण हैं, फिर भी यह आदर्श अनुसरण करने लायक है। न्याय एक अवधारणा के रूप में लोकतंत्र में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का सम्मिलन है। निष्पक्षता किसी भी समाज की बुनियादी जरूरत है। राज्य को सुनिश्चित करना चाहिए कि यह आदर्श लोगों के दैनिक जीवन में कार्यरूप में तब्दील हो। हम जिन दो अलग-अलग भारत में रहते हैं, वे एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। पहला भारत उन क्रीमीलेयर लोगों का है जो अपनी अलग दुनिया में रहते हैं। जबकि दूसरा भारत उपेक्षित पड़ा हुआ गरीबी में जीवन जीता है। उसे जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं होतीं, न बुनियादी मानवीय गरिमा ही हासिल होती है। आदर्श रूप में न्याय को इस खाई को पाटने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति गोगोई ने ठीक ही कहा है कि भारत को शोरगुल भरी नहीं बल्कि स्वतंत्र पत्रकारिता चाहिए। यदि पत्रकारिता को नैतिकता से दूर हटा दिया जाए और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने वाला हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सरकारी और गैरसरकारी तत्वों के साथ शोरगुल मचाने में सहयोगी बन जाए तो लोकतंत्र सही मायने में खतरे में है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि राजनीतिक लोकतंत्र अब तक लाखों लोगों को न्याय देने में नाकाम रहा है। हमारा देश ऐसे मुद्दों के पीछे पागल है जिनका सामाजिक समानता की अवधारणाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। धर्म पर बहस, समुदायों का ध्रुवीकरण, एक निश्चित व्यवसाय करने वालों के खिलाफ हिंसा, जब राजनीतिक वर्ग के बोलने की जरूरत हो तब चुप्पी साध लेना ऐसी बातें हैं जो विकास के बुनियादी मुद्दों से बहुत दूर ले जाती हैं। अतीत में न्यायपालिका ने बेजुबानों की आवाज को स्थान दिया है और जब सरकार काम नहीं करती है तो जनहित याचिकाओं के जरिए शिकायतों के निवारण के साहसिक प्रयास किए जाते रहे हैं। लेकिन जनहित याचिकाओं की प्रकृति अब बदल गई है। हाशिए पर के लोगों को न्याय दिलाने के इस माध्यम का उपयोग कई बार पक्षपातपूर्ण तरीके से उन लोगों को सुरक्षा देने में किया जाता है, जिन्होंने अन्याय किया है।
एक और पहलू है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है, जो लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर न्यायपालिका को एक अनूठी संस्था बनाता है। सरकार की प्रक्रियाएं गैर-पारदर्शी हैं। सत्ता के गलियारों में क्या होता है, सूचना के अधिकार अधिनियम, 2000 के बावजूद निर्णय के पीछे की मंशा की थाह नहीं पाई जा सकती। विधायी कार्य कभी-कभी राजनैतिक उद्देश्यों को हासिल करने की मनोदशा के परिणाम होते हैं। जबकि अदालत की कार्यवाही खुली और पारदर्शी होती है। यह वरदान और खतरा दोनों है। वरदान इसलिए है क्योंकि जो अदालत में और उसके बाहर होते हैं वे तथ्यों के खुलासे से अवगत होते हैं और अचूकता के आधार पर दिए गए न्यायिक फैसले का समादर कर सकते हैं। इससे न्याय प्रदान करने की पवित्रता को बनाए रखने में मदद मिलती है। लेकिन खतरा यह है कि जनता को पता चल जाता है कि कब अंतिमता के संवैधानिक आधार को अचूकता पर प्राथमिकता दी जानी है। इसलिए न्यायाधीश जब एक पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से न्याय प्रदान करते हैं तो लाखों लोगों की निगाहें उन पर लगी रहती हैं। इसीलिए जब अन्याय को महसूस किया जाता है तो वह अपने पीछे एक दाग छोड़ जाता है। न्यायिक बिरादरी को इस बारे में संवेदनशील होने की आवश्यकता है।
न्यायमूर्ति गोगोई ने ऑरवेल के 1984 का ठीक ही उद्धरण दिया है कि ‘‘स्वतंत्रता यह कहने की आजादी है कि दो और दो चार होते हैं।’’ कभी-कभी हमें डर लगता है कि दो और दो मिलकर चार नहीं बनाते हैं। यही चिंता का कारण है।