सोशल मीडिया पर पुणे की एक लड़की की टिप्पणी के बाद सरकार पर उसकी गिरफ्तारी को लेकर मुंबई उच्च न्यायालय की अवकाशकालीन पीठ के न्यायमूर्ति गौरी गोडसे और न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरसन ने जो तीखी टिप्पणी की है, वह मौजूदा वक्त का सच बन चुका है. लड़की ने एक आलोचनात्मक टिप्पणी की और धमकी मिलने तथा गलती का एहसास होते ही उसने उसे सोशल साइट से हटा भी दिया लेकिन प्रशासन ने कट्टरता की हदें पार करते हुए उसे गिरफ्तार कर लिया.
उस लड़की को प्रशासन ने अपराधी मान लिया. न्यायालय ने तत्काल उसे रिहा करने के आदेश दिए. टिप्पणी के बाद एफआईआर दर्ज करने और गिरफ्तारी का यह पहला मामला नहीं है. पूरे देश में इस तरह का रवैया सा बन गया है. अभी इंदौर में एक कार्टूनिस्ट के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुई. निश्चित रूप से यदि कोई किसी को अपमानित करने वाली पोस्ट डालता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन सवाल यह उठता है कि अपमानित करने और आलोचना के बीच में फर्क भी तो किया जाना चाहिए.
किसी बात की आलोचना करना एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक का अधिकार है लेकिन देखने में यह आ रहा है कि किसी भी आलोचना को सरकार या प्रशासन का अपमान मान लेने का चलन हो चुका है. कोई भी व्यक्ति उठता है और किसी टिप्पणी या किसी कार्टून को लेकर एफआईआर दर्ज करा देता है कि इससे वह आहत हुआ है. क्या सचमुच निजी रूप से आहत हुआ है या अपनी विचारधारा का लेकर वह इतना कट्टर हो चुका है कि उसके खिलाफ वह कोई टिप्पणी बर्दाश्त नहीं कर पाता है?
इस तरह यदि आलोचना को मानहानि के रूप में देखा जाने लगा तो फिर हमारे लोकतंत्र का क्या होगा? लोकतंत्र को तो भारत ने ही जन्म दिया है और हम ही उसे कमजोर करेंगे तो क्या होगा? 15वीं शताब्दी में भारतीय संत और कवि कबीर दास ने लिखा था-‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय.’ इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति आपकी निंदा करता है या आपके भीतर कमियां तलाशता है उसे अपने पास रखिए क्योंकि वही है जो बिना साबुन या बिना पानी के आपके स्वभाव को निर्मल बना सकता है. लेकिन आज निंदक तो बहुत दूर की बात है आलोचक को भी दुश्मन की नजर से देखा जाने लगा है. इस तरह की असहिष्णुता हर तरफ दिखाई दे रही है तो सोशल साइट्स इससे अछूते कैसे रह सकते हैं?
लेकिन असली सवाल यह है कि जो लोग वास्तव में सोशल साइट्स पर गंदगी परोस रहे हैं, उनके खिलाफ सख्ती के साथ कार्रवाई क्यों नहीं होती? कहने को तो यह कहा जाता है कि सरकार ने इतने साइट्स पर प्रतिबंध लगा दिए और वास्तव में ऐसा होता भी है लेकिन सोशल साइट्स पर न जाने कितने हैंडल हैं जो सेक्स से लेकर फर्जीवाड़े तक का जाल बिछाते हैं और लोगों को ठगते भी हैं.
आज असहिष्णुता और कट्टरता उन अपराधी तत्वों के खिलाफ दर्शाने की जरूरत है जिन्होंने उधम मचा रखा है. कई बार तो ऐसे पोस्ट भी सामने आते हैं और उन पर ऐसी टिप्पणियां भी होती हैं जो हमारे समाज के ताने-बाने को तोड़ने के लिए डाली जाती हैं. इनमें से कई साइट्स ऐसी हैं जो सीधे तौर पर सरकार की भी नहीं सुनती हैं. वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देती हैं.
निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि सामाजिक ताना-बाना तोड़ने वाले उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करें. इस विषय पर सरकार को सोचना होगा और समाज को भी!