डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: वो क्यों नहीं जाते सरकारी अस्पताल?
By विजय दर्डा | Updated: October 9, 2023 07:28 IST2023-10-09T07:26:57+5:302023-10-09T07:28:17+5:30
उसके बारे में कभी चर्चा नहीं होती. खबर सबसे पहले मराठवाड़ा के नांदेड़ में लोकनेता, देश के पूर्व गृह मंत्री, पूर्व वित्त मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शंकरराव चव्हाण के नाम पर स्थापित सरकारी अस्पताल से मौतों की आई जिनमें बच्चे भी शामिल थे.

प्रतीकात्मक तस्वीर
वो उफ्फ भी करते हैं तो हलचल मच जाती है...इनकी जान भी चली जाए तो कोई खता नहीं होती..! महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों में मौतों के मामले में ये पंक्तियां मुझे बड़ी मौजूं लगती हैं क्योंकि कोई बड़ा आदमी, कोई नेता या कोई बड़ा अधिकारी बीमार हो जाए तो चर्चा होने लगती है कि उसे कहां भर्ती कराया गया. एक आम आदमी अस्पताल के किसी अनजान बेड पर मर भी जाए तो उसकी गिनती महज एक लाश की होती है.
उसके बारे में कभी चर्चा नहीं होती. खबर सबसे पहले मराठवाड़ा के नांदेड़ में लोकनेता, देश के पूर्व गृह मंत्री, पूर्व वित्त मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शंकरराव चव्हाण के नाम पर स्थापित सरकारी अस्पताल से मौतों की आई जिनमें बच्चे भी शामिल थे. उसके बाद छत्रपति संभाजी नगर (औरंगाबाद) और फिर नागपुर से औसत से ज्यादा मौतों की खबरें आईं.
थोड़ी-बहुत चर्चा हुई लेकिन कहीं वह हलचल दिखाई नहीं दी जो दिखनी चाहिए थी. यह कोई पहली घटना नहीं है. राज्य के सरकारी अस्पतालों में एक साथ कई मरीजों की मौत की घटनाएं हर साल सामने आती रहती हैं. कई बार तो हृदय विदारक घटनाएं भी हुई हैं. जनवरी 2021 में भंडारा के सरकारी अस्पताल में भर्ती 10 बच्चों की जल कर मौत हो गई थी.
ऐसी घटनाओं को लेकर लोकमत ने हमेशा ही निष्पक्ष पड़ताल की है ताकि आम आदमी को न्याय मिल सके. सवाल है कि इस तरह की लापरवाही भरी घटनाएं क्यों होती हैं? मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि लोकप्रतिनिधि या शासनकर्ता संवेदनशील नहीं होते हैं. मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अत्यंत संवेदनशील राजनेता हैं.
इन्होंने गरीबों के उपचार के लिए अलग प्रकोष्ठ ही स्थापित कर दिया है. शिंदे ने इसी साल 15 अगस्त से राज्य के 2,418 अस्पतालों और चिकित्सा केंद्रों पर आम आदमी के इलाज की मुफ्त सुविधा भी उपलब्ध कराई है. तो सवाल पैदा होता है कि इतनी संवेदनशीलता के बावजूद सरकारी अस्पतालों में ज्यादा मौतों का कारण क्या है?
अपने इस कॉलम में मैंने पहले भी लिखा है कि आबादी और जरूरत के लिहाज से सरकारी अस्पतालों की संख्या पर्याप्त नहीं है. जो हैं उनमें से भी ज्यादातर खुद बीमार हैं. पर्याप्त संख्या में बेड नहीं हैं, डॉक्टर्स और नर्सें नहीं हैं.
बहुत बड़ी विडंबना है कि निजी अस्पताल फलते-फूलते जा रहे हैं. इसने इंडस्ट्री का रूप ले लिया है. एक जमाना था जब दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों में जनकल्याण के लिए उस वक्त के धन्ना सेठों ने बड़े चैरिटेबल अस्पताल बनवाए लेकिन अब पुट्टपर्थी में सत्य सांई बाबा या कुछ अन्य देवस्थान ही ऐसे हैं जो चैरिटेबल अस्पताल चला रहे हैं.
नागपुर में देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में स्टेट ऑफ द आर्ट कैंसर हॉस्पिटल बना है जहां आम आदमी के लिए भी पांच सितारा सुविधाएं हैं. इसी तरह छत्रपति संभाजी नगर में हेडगेवार अस्पताल है. लेकिन हर जगह तो ऐसी स्थिति नहीं है. आम आदमी निजी अस्पतालों में जाने को बाध्य है.
मरीज पहुंचता है तो वहां डॉक्टर यह नहीं पूछते कि बीमारी क्या है बल्कि यह पूछते हैं कि बजट क्या है या फिर बीमा कितने का है? ये निजी अस्पताल बीमार को भर्ती तो कर लेते हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर को जब लगता है कि मरीज गंभीर हो रहा है तो उसे सरकारी अस्पताल में रेफर कर देते हैं.
यानी मरीज मरे तो ठीकरा सरकारी अस्पताल पर फूटे. इधर सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले बहुत से डॉक्टर्स निजी क्लीनिक और अस्पताल धड़ल्ले से चला रहे हैं. सरकारी अस्पतालों की मशीनें बंद पड़ी रहने या कोई और कारण बताकर मरीजों को अपने निजी अस्पताल भेज देते हैं. उन्हें कोई रोकने वाला नहीं है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि निजी क्षेत्र में अच्छे अस्पताल और सेवाभावी डॉक्टर्स नहीं हैं.
बिल्कुल हैं लेकिन सामान्य तौर पर जो हालात हैं, उनकी चर्चा कर रहा हूं. मैं किसी को दोष नहीं दे रहा हूं बल्कि मैं उस व्यवस्था को दोष दे रहा हूं जिसका निर्माण हमने किया है. मैं भी उस व्यवस्था का अंग रहा हूं. मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल दर्डा भी राज्य के स्वास्थ्य मंत्री थे. उनके कार्यकाल में कई मेडिकल कॉलेज स्थापित हुए. गांव में कई अस्पताल खुले.
सवाल किसी व्यक्ति का नहीं है, सवाल पूरी व्यवस्था का है. अब आप डॉक्टर्स की उपलब्धता का ही मसला लीजिए. मैंने पहले भी इस कॉलम में लिखा है कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सीटें कम होने के कारण विद्यार्थियों को निजी मेडिकल कॉलेज में जाना पड़ता है जिनकी फीस करोड़ों में है. अस्पताल बनाने का खर्चा बहुत है. मशीनें करोड़ों की आती हैं.
ऐसी स्थिति में पढ़कर जो डॉक्टर बाहर आएंगे और अस्पताल खोलेंगे वे सबसे पहले लोन चुकाने और मुनाफा कमाने पर ध्यान देंगे. मैं भी उन्हें कैसे दोष दूं लेकिन कुछ प्रोफेशन ऐसे होते हैं जिनमें संवेदनशीलता की जरूरत होती है जिसकी कमी कहीं-कहीं नजर आती है. लोग जब अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और सरकार बनती है तो लोगों की अपेक्षा यही होती है कि उन्हें भरपेट भोजन मिलने के लायक कामकाज की व्यवस्था हो, शिक्षा मिले, रहने को छत मिले और स्वास्थ्य की सुविधाएं मिले. इसमें स्वास्थ्य सबसे महत्पूर्ण है. इसलिए माकूल व्यवस्थाएं बहुत जरूरी हैं.
स्वास्थ्य का पर्याप्त बजट होना चाहिए. इस साल की बात छोड़ दें तो केंद्र के स्तर पर पिछले सालों में स्वास्थ्य का बजट 2 प्रतिशत भी नहीं रहा है. हालांकि इसमें अब पिछले साल के मुकाबले करीब 13 प्रतिशत की वृद्धि की गई है जो स्वागत योग्य है लेकिन यह कुल बजट का 20 प्रतिशत होना चाहिए. इस राशि का नियोजन और सदुपयोग होना चाहिए. महाराष्ट्र में स्वास्थ्य बजट 4.5 प्रतिशत के आसपास है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.
विशेषज्ञों का कहना है कि कुल बजट में स्वास्थ्य का हिस्सा कम से कम 20 प्रतिशत तो होना ही चाहिए. जिस तरह से राजस्थान ने पूरे राज्य को स्वास्थ्य का अधिकार दिया है, उसी तरह का अधिकार महाराष्ट्र में भी होना चाहिए. बात केवल महाराष्ट्र की नहीं है. दूसरे राज्यों में भी हालात दर्दनाक हैं. किसी राज्य में कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की लाश साइकिल पर तो किसी राज्य में बेटी की लाश कंधे पर ढोने के लिए क्यों अभिशप्त है?
दरअसल पूरे देश में ये जो स्वास्थ्य का ढांचा है, उसे खत्म करके नए सिरे से ढांचा तैयार करने की जरूरत है. सारे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और भारत सरकार को मिलकर काम करना होगा, तभी कोई सुफल सामने आएगा. फिलहाल तो जो अस्पताल हैं या फिर स्वास्थ्य केंद्र हैं वहां पर्याप्त डॉक्टर रहने चाहिए, चाहे वह स्वास्थ्य केंद्र शहर में हो या गांव में हो! एंबुलेंस से लेकर उपचार के सारे साधन उपलब्ध होने चाहिए और दवाइयां भी मिलनी चाहिए.
सफाई के लिए तो बहुत पैसा नहीं लगता! केवल इच्छा शक्ति चाहिए. वह भी सरकारी अस्पतालों में क्यों नहीं होती? सबसे पहले शानदार सफाई होनी चाहिए. और हां, मैंने संसद में कई बार कहा कि जिस तरह से लोकप्रतिनिधियों के लिए अपनी संपत्ति का हिसाब देना या अपना आपराधिक रिकॉर्ड बताना जरूरी है उसी तरह से सरकारी अस्पताल में ही उनके उपचार की व्यवस्था होनी चाहिए.
ग्रामपंचायत से लेकर राष्ट्रपति तक का उपचार सरकारी अस्पताल में ही होना चाहिए. मैं माफी चाहूंगा यदि मेरे शब्द कड़वे हुए हों लेकिन मन जब वेदना से भरा हो तो बात कहनी भी जरूरी है.