शत-प्रतिशत के करीब क्यों नहीं होता मतदान?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 20, 2019 07:17 AM2019-04-20T07:17:21+5:302019-04-20T07:17:21+5:30

सत्रहवीं लोकसभा के गठन के लिए जारी चुनाव प्रक्रिया के अंतर्गत दूसरे चरण का मतदान 18 अप्रैल को संपन्न हुआ

Why does not voting close to hundred percent? | शत-प्रतिशत के करीब क्यों नहीं होता मतदान?

शत-प्रतिशत के करीब क्यों नहीं होता मतदान?

सत्रहवीं लोकसभा के गठन के लिए जारी चुनाव प्रक्रिया के अंतर्गत दूसरे चरण का मतदान 18 अप्रैल को संपन्न हुआ. 11 अप्रैल के पहले चरण के मतदान की ही तरह दूसरे चरण में भी मतदान का औसत 65-66 प्रतिशत के आसपास ही रहा. कहीं इससे दो-चार प्रतिशत ज्यादा वोट पड़े तो कहीं दो-चार प्रतिशत कम. अगर पहले के चुनावों के मतदान औसत से तुलना करें तो इसे खराब भी नहीं कहा जा सकता, बल्कि औसत मतदान कह कर खुद को दिलासा दी जा सकती है. सवाल यह है कि शत-प्रतिशत न सही, 90-95 प्रतिशत मतदान का लक्ष्य हम क्यों नहीं हासिल कर पाते?

इसके लिए मतदाताओं की उदासीनता जिम्मेदार है या और कोई कारण है? सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों में चुनावों को लेकर होने वाले शोरगुल को देखें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि लोगों में जागरूकता का अभाव है. लेकिन यह जागरूकता मतदान प्रतिशत में बदलती क्यों नहीं दिखाई देती? एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते चुनाव हमारे लिए सवरेपरि होने चाहिए, क्योंकि इसमें प्रत्येक नागरिक की हिस्सेदारी महत्वपूर्ण है. फिर क्यों हम आजादी के 70 साल बाद भी ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाए हैं कि शत-प्रतिशत मतदान के लक्ष्य के करीब पहुंचा जा सके?

1952 में प्रथम लोकसभा के लिए हुए चुनाव में देश में औसत मतदान 45 प्रतिशत के करीब था, जबकि 1957 में दूसरी लोकसभा के चुनाव में यह बढ़कर 47 प्रतिशत के ऊपर हो गया. इसके बाद के चुनावों में मतदान प्रतिशत 50 के ऊपर ही रहा. इस दृष्टि से देखा जाए तो पिछले 60-70 वर्षो में हम मतदान प्रतिशत को बढ़ाने में कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाए हैं. मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ने का एक कारण यह भी गिनाया जा रहा था कि राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को देखकर लोग इसके प्रति उदासीन हो गए हैं और उन्हें लगता है कि सारे राजनीतिक दल लगभग एक जैसे ही हैं,

इसलिए वोट दें भी तो किसे? इसलिए नोटा (नन ऑफ द अबव) का प्रावधान लाया गया ताकि जिसे कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो वह नोटा का बटन दबा सके ताकि यह न माना जाए कि वह मतदान के प्रति उदासीन है. पिछले दिनों हुए चुनावों में बड़ी संख्या में लोगों ने नोटा का बटन दबाया भी है और इसने उम्मीदवारों की चुनावी संभावनाओं पर काफी असर भी डाला है.

लेकिन दिक्कत यह है कि यह अपने आप में प्रभावी नहीं है अर्थात नोटा को ज्यादा वोट मिलने के बाद भी चुनाव रद्द कराने की क्षमता इसमें नहीं है. इसके अलावा मतदाता सूची में फर्जी नाम होने की शिकायतें भी सामने आती हैं और कई बार तो किसी मतदाता के दो या ज्यादा जगहों पर भी सूची में नाम होते हैं. अगर आधार नंबर से वोटिंग कार्ड को लिंक कर दिया जाए तो इस तरह की दिक्कत से बचा जा सकता है. जो भी हो, सरकार को इस दिशा में गंभीर प्रयास करने होंगे, तभी लोकतंत्र सही मायने में सार्थक हो सकेगा.

Web Title: Why does not voting close to hundred percent?

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