पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अज़हर पर चीन ने क्यों बदला अपना रुख?
By रहीस सिंह | Published: May 2, 2019 03:29 PM2019-05-02T15:29:57+5:302019-05-02T15:33:17+5:30
संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद ने बुधवार को पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया। इससे पहले चार बार चीन तकनीकी आधार पर मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने की प्रक्रिया पर रोड़ा अटका चुका था।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के आतंकवादी मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने सम्बंधी प्रस्ताव पर चार बार ’टेक्निकल होल्ड’ लगाने के बाद अंततः चीन ने भी मान लिया कि वह आतंकवादी है। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा सर्वसम्मति से मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर दिया गया।
इससे पहले चीन यह तर्क देता रहा है कि वह वस्तुनिष्ट और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्ध करने पर ध्यान देगा जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गयी है। लेकिन अब चीन यह कहता दिखा कि हमें प्रासंगिक संयुक्त राष्ट्र के निकायों के नियमों और प्रक्रियाओं को बरकरार रखना होगा, परस्पर सम्मान के सिद्धांत का पालन करना होगा, बातचीत के ज़रिए आपसी मतभेदों को सुलझाते हुए आम सहमति बनानी होगी और तकनीकी मुद्दों के राजनीतिकरण को रोकना होगा।
सवाल यह उठता है कि अब उसे वस्तुनिष्ठता सम्बंधी तकनीकी कमी क्यों नहीं दिखी और वह इस मुद्दे पर यू-टर्न क्यों ले गया? दूसरा सवाल यह है कि इससे उसके ‘आॅल व्हेदर फ्रेंड’ पाकिस्तान पर क्या प्रभाव पड़ेगा और क्या उन दोनों के रिश्तों में किसी प्रकार का परिवर्तन आएगा या वे यथावत जारी रहेंगे? तीसरा सवाल यह है कि क्या भारत आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में इसे स्थायी विजय मानकर खुशियां मनाए या फिर अभी इस बात की प्रतीक्षा करे कि पाकिस्तान मसूद अजहर पर किस प्रकार की कार्रवाई करेगा और दुनिया उस पर किस तरह का दबाव बनाने की कोशिश करेगी?
मसूद अज़हर पर भारतीय राजदूत सैयद अकबरुद्दीन का ट्वीट
पाकिस्तानी आतंकवादी मौलाना मसूद अज़हर को ’अंतरराष्ट्रीय आतंकी’ घोषित किए जाने की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुद्दीन जैसे ही ट्वीट करके दी, वैसे ही भारत की चुनावी राजनीति का एक हिस्सा बन गया, जैसे अन्य मुद्दे चुनाव के अहम विषय बने हुए हैं। जबकि होना यह था कि इस पर गम्भीरता से विचार किया जाए कि यह प्रस्ताव भारत द्वारा नहीं बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा लाया गया है। भारत वर्ष 2009 से इस दिशा में प्रयास कर रहा था, लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने में 10 वर्ष लग गये, आखिर क्यों?
आखिर ये देश पहले भारत के साथ खुलकर क्यों नहीं आए? वह चीन जो अब तक इस मौलाना के मुद्दे पर अडिग रहा, आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि अकस्मात वह नरम पड़ गया ? चीन के निर्णय में आए परिवर्तन के बाद भी उसका यह कहना कि पाकिस्तान ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में बड़ा योगदान दिया है जिसको अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मान्यता देनी चाहिए, क्या संदेश देता है?
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का चार्टर
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय 7 के तहत ऐसे प्रस्ताव पास करने का अधिकार है जिसका अनुपालन सभी सदस्य देशों को करना होता है। इस अध्याय के तहत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कुछ प्रस्तावों को पारित किया है जो आतंकवादियों और आतंकी संगठनों को एक सूची में शामिल करने का प्रावधान करते हैं। इनमें एक सूची या प्रस्ताव 1267 है जिसके तहत 1267 अलकायदा सैंग्शन्स कमेटी ऑफ द काउंसिल के सामने इस प्रकार का प्रस्ताव लाया जाता है और काउंसिल उस पर निर्णय लेती है।
15 अक्टूबर 1999 को सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव 1267 के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रस्ताव भी हैं जो आतंकवाद और आतंकी गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए बनाए गये हैं, जैसे-प्रस्ताव 1189, प्रस्ताव 1193 और प्रस्ताव 1214, प्रस्ताव 1333 और प्रस्ताव 1363......आदि। चीन इन प्रस्तावों पर अपना विरोधाभासी रवैया प्रकट करता रहा है। उसका इस तरह का रवैया केवल मसूद अजहर के मामले में ही नहीं बल्कि 26/11 के मास्टरमाइंड जकीउर रहमान लखवी के मामले में भी था। उस समय भी चीन ने कहा था कि भारत ने पर्याप्त सबूत नहीं दिए हैं। जबकि प्रत्येक देश की सुरक्षा एजेंसी को मालूम था कि जकीउर रहमान लखवी लश्कर-ए-तैयबा का ऑपरेशन कमांडर रहा है। मसूद अजहर के विषय में सुरक्षा परिषद पहले यह स्वीकार कर चुकी कि वह पाकिस्तान में अरबों डाॅलर का निवेश कर रहा है और उसे अब अपने निवेश, अपनी कम्पनियों और अपने लोगों के लिए सुरक्षा चाहिए, विशेषकर सीपेक (चाइना-पाकिस्तान इकोनाॅमिक काॅरिडोर) को।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 1980 में अज़हर ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेनाओं से लड़कर अपने जीवन की शुरुआत की थी। बाद में जैश-ए-मुहम्मद की स्थापना की। वह दौर पाकिस्तान में इस्लामीकरण का था और अफगानिस्तान पूंजीवाद व समाजवाद के द्वंद्व शिकार था। चीन ने अवसर का फायदा उठाते हुए मुजाहिदीन से सम्बंध स्थापित किया ताकि शिनजियांग प्रांत के उइगर मुसलमानों का विद्रोह रोका जा सके जहां 1980, 1981, 1985 , 1987 और 1990 में चीनी सत्ता विरोधी आंदोलन सम्पन्न हो चुके थेे। हालांकि उस समय सोवियत संघ चीन के विरुद्ध दिखायी दिया था क्योंकि उसने अफगानिस्तान से उइगर मुजाहिदीनों को रिहा कर दिया था कि शिनजियांग प्रांत में ये आंदोलन का ताकत प्रदान कर सकें। लेकिन चीन ने तालिबान से सम्पर्क साध कर इसका निदान तलाशा। तभी यह चीन-चरमपंथी (पाकिस्तानी) समीकरण बना हुआ है। एक अन्य पक्ष यह है कि अरब सागर में चीन की पहुंच और मध्य एशिया से चीन का संपर्क तथा हिन्द महासागर में ‘स्ट्रिंग आॅफ पल्र्स ट्रैप’ बिना पाकिस्तान के सहयोग के संभव नहीं है।
चीन ने क्यों बदला अपना रुख?
अब सवाल यह उठता है कि चीन में यह बदलाव आया क्यों? और पाकिस्तान के साथ उसके सम्बंधों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? ध्यान रहे कि 19 अप्रैल को चीन ने इच्छा जाहिर की थी कि द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर करने के लिए वह भारत के साथ फिर से वुहान बैठक (अनौपचारिक) शिखर वार्ता करना चाहता है। यही नहीं उसने यह भी स्पष्ट किया था कि दूसरे ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ (25 से 27 अप्रैल) में भारत के हिस्सा नहीं लेने से द्विपक्षीय संबंध प्रभावित नहीं होंगे।
उल्लेखनीय है कि भारत ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को लेकर इस फोरम का बहिष्कार किया है क्योंकि सीपीईसी भारत की सम्प्रभुता का उल्लंघन करता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन के इस निर्णय से कुछ दिन पहले यानि 11 अप्रैल को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) ने अमेरिकी संसद (कांग्रेस) से कहा था कि चीन अरबों डॉलर की बेल्ट ऐंड रोड पहल (बीआरआई) उसकी राष्ट्रीय शक्ति के कूटनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सामाजिक तत्वों का मिश्रण है। इसके जरिए चीन अपनी वैश्विक निर्णायक नौसेना बनाने की कोशिश कर रहा है। उसने यह चेतावनी भी दी है कि बीजिंग के ’प्रतिकूल समझौते’ किसी देश की संप्रभुत्ता को उस तरह अपनी लपेट में ले रहे हैं, जैसे कि एनाकोंडा अपने शिकार को घेरकर खाता है।
यूरोप के देशों के तरफ से भी ऐसी आवाजें सुनाई दे रही हैं। इसलिए अब चीन चाहता है कि भारत भले ही उसके बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव का हिस्सा न बने लेकिन वह अमेरिका व पश्चिमी देशों द्वारा इसके विरुद्ध छेड़ी जा रही मुहिम का हिस्सा भी न बने। अजहर मामले में उसका यह बदलाव इस नयी रणनीति के लिए पेशगी भी हो सकती है। रही बात पाकिस्तान की तो एक तो फाइनेंसियल टास्क फोर्स उसे ‘ग्रे लिस्ट’ में डाल चुका है और ब्लैक लिस्ट में जाना का खतरा बना हुआ है। दूसरे पाकिस्तान की वित्तीय व चालू खाता घाटा बढ़ता जा रहा है और उसे चीन के अलावा अभी कहीं से मदद मिलती नहीं दिख रही। ऐसी स्थिति में वह चीन से दूर नहीं जा सकता।
फिलहाल अजहर लिस्ट सम्बंधी टास्क पूरा हो चुका है। अब उसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का कोई भी सदस्य देश अपने यहां शरण नहीं दे सकेगा। उसके अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देन पर भी प्रतिबंध लग जाएगा। लेकिन देखना यह है कि पाकिस्तान उस पर किस तरह की कार्रवाई करता है और कार्रवाई न करने पर दुनिया उसके साथ सम्बंधों में किस तरह के बदलाव लाती है।