एन. के. सिंह का ब्लॉग: निर्दोषों के जेल में पड़े रहने का जिम्मेदार कौन?
By एनके सिंह | Published: November 13, 2019 08:21 AM2019-11-13T08:21:50+5:302019-11-13T08:21:50+5:30
राज्य में अगर सात व्यक्ति जेल में हैं तो केवल एक ही सजायाफ्ता है बाकी छह विचाराधीन कैदी. इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि बिहार की पुलिस बेहद सक्षम है और अपराध करने वाले को करने के पहले ही (पुलिसिया जुबान में ‘योजना बनाते’) पकड़ लेती है।
हाल ही में हुए खुलासे के बाद व्हाट्सएप्प के जरिये फोन टैपिंग का मामला व्यक्तिगत आजादी और निजता का बड़ा उल्लंघन माना जा रहा है और संसद में भी इस पर विपक्ष हंगामा करने की योजना बना रहा है. परंतु क्या आपको मालूम है कि पिछले कई दशकों से या यूं कहें कि आजादी मिलने के बाद से ही भारत की जेलों में जो लोग बंद रहते हैं उनमें हर तीन में दो (68.7 प्रतिशत) विचाराधीन कैदी होते हैं, केवल एक ही सजायाफ्ता. क्या आपको यह भी मालूम है कि इनमें से अधिकांश ‘बेचारे’ विचाराधीन कैदी इसलिए जेल में ‘अपने हर अधिकार से वंचित’ सलाखों के पीछे केवल इसलिए हैं क्योंकि इनके पास वकील को देने के लिए पैसे नहीं होते? महीनों और वर्षो जेल में पड़े रहने वाले इन विचाराधीन कैदियों में दो-तिहाई अदालत से निदरेष करार दिए जाते हैं.
इनमें सबसे खराब स्थिति बिहार की है. इस राज्य में अगर सात व्यक्ति जेल में हैं तो केवल एक ही सजायाफ्ता है बाकी छह विचाराधीन कैदी. इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि बिहार की पुलिस बेहद सक्षम है और अपराध करने वाले को करने के पहले ही (पुलिसिया जुबान में ‘योजना बनाते’) पकड़ लेती है या अपराध के तत्काल बाद. लेकिन यही तत्परता चार्जशीट दाखिल करने में या अभियोजन की गुणवत्ता बेहतर करने में गायब हो जाती है.
इसका सबूत है उसी सरकारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट, जिसके अनुसार इस बदहाल राज्य में सजा की दर मात्न 9 प्रतिशत है यानी जो लोग पकड़े जाते हैं और महीनों जेल में विचाराधीन कैदी बन कर सड़ते हैं उनमें भी हर दस में से केवल एक ही अदालत द्वारा दोषी पाया जाता है. इसके ठीक उलट समुन्नत केरल में कोई भी शासन- कांग्रेस का हो कम्युनिस्ट का, बगैर किसी ‘सुशासन’ के दावे के मानवाधिकार और विकास के हर पैरामीटर पर अव्वल है. अगर केरल पुलिस ने दस लोगों को अभियुक्त या बंदी बनाया है तो उनमें से नौ को सजा मिलनी तय है क्योंकि ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वहां सजा की दर 89 प्रतिशत है.
यहां केवल पुलिस की आलोचना करना गलत होगा. वकील अधिकांश दिन कोई न कोई कारण बता कर तारीखों पर उपस्थित नहीं होते. जमानत के लिए गरीब पैसे के अभाव में वकील नहीं कर पाता और अदालतों में ऐसे मामले महीनों लंबित इसलिए रहते हैं क्योंकि देश में हर एक लाख की आबादी पर मात्न दो जज हैं जबकि कम से पांच जज अपेक्षित होते हैं. देश में प्रजातंत्न के अलमबरदारों को अपनी निजता के साथ इन गरीबों की त्नासदी पर भी उसी बुलंदी से आवाज उठानी चाहिए जिससे वे संभ्रांत वर्ग के मानवाधिकार हनन या व्हाट्सएप्प खुलासे को लेकर उठा
रहे हैं.