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पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: जलवायु परिवर्तन के चलते तपते महानगर बढ़ा रहे चिंता

By पंकज चतुर्वेदी | Updated: May 5, 2022 15:51 IST

यदि शहर में गर्मी की मार से बचना है तो अधिक से अधिक पारंपरिक पेड़ों को रोपना जरूरी है, साथ ही शहर के बीच बहने वाली नदियां, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल व अविरल रहेंगे तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे।

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अभी मई की शुरुआत है और जून पूरा बकाया है, लेकिन इस बार तो मनमोहक कहे जाने वाले वसंत के मौसम में ही गर्मी ने जेठ की तपन का अहसास करवा दिया। देश के अनेक शहरों में अप्रैल के आखिरी दिनों में अधिकतम तापमान 44 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक दर्ज किया गया। यह सर्वविदित है कि भारत में भीषण गर्मी पड़ती है लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि इस प्रचंड गर्मी ने देश में पिछले 50 साल में 17,000 से ज्यादा लोगों की जान ली है। 

1971 से 2019 के बीच लू चलने की 706 घटनाएं हुई हैं लेकिन गत पांच सालों में चरम तापमान लू की घटनाएं न केवल समय के पहले हो रही हैं, बल्कि लंबे समय तक इनकी मार रहती है, खासकर शहरीकरण ने इस मौसमी आग में ईंधन का काम किया है, शहर अब जितने दिन में तपते हैं, रात उससे भी अधिक गरम हवा वाली होती है। जान लें कि आबादी से उफनते महानगरों में बढ़ता तापमान अकेला संकट नहीं होता, उसके साथ बढ़ती बिजली और पानी की मांग, दूषित होता पर्यावरण भी नया संकट खड़ा करता है।

अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शीर्ष वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती आबादी और गर्मी के कारण देश के चार बड़े शहर नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। पूरी दुनिया में बांग्लादेश की राजधानी ढाका इस मामले में पहले पायदान पर है। कोलकाता में बढ़ते जोखिम के पीछे 52 फीसदी गर्मी तथा 48 फीसदी आबादी जिम्मेदार है।

पिछली जनगणना के मुताबिक भारत की कोई 31.1 प्रतिशत आबादी, जो कि 37.7 करोड़ होती है, शहरों में बसती है और अनुमान है कि सन 2050 तक और 40 करोड़ लोग शहर का रुख करेंगे, ऐसे में शहरों का बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी, असमानता और संकट का कारक भी बनेगा। 

गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित करती, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, पानी और बिजली की मांग बढ़ती है, उत्पादन लागत भी बढ़ती है। शिकागो विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि वर्ष 2100 तक दुनिया में गर्मी का प्रकोप इतना ज्यादा होगा कि महामारी, बीमारी, संक्रमण से भी ज्यादा लोग भीषण गर्मी, लू और प्रदूषण से मरने लगेंगे। 

अगर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर जल्द ही लगाम नहीं लगाई गई तो आज से 70-80 साल बाद की दुनिया हमारे रहने लायक नहीं रह जाएगी। वर्ष 2100 आते-आते दुनिया में प्रति एक लाख व्यक्तियों में से 73 लोगों की मौत गर्मी और लू की वजह से होगी। इस तरह की प्राकृतिक आपदा का असर शहरों में ही ज्यादा होगा। यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि यह संख्या एचआईवी, मलेरिया और यलो फीवर से होने वाली संयुक्त मौतों के बराबर है।

शहरों में बढ़ते तापमान के कई कारण हैं- सबसे बड़ा तो शहरों के विस्तार में हरियाली का होम होना है। महानगरों में लगने वाले अधिकांश पेड़ पारंपरिक ऊंचे वृक्ष की जगह जल्दी उगने वाले पौधे हैं, जो कि धरती के बढ़ते तापमान की विभीषिका से निबटने में अक्षम हैं। बड़े वृक्षों के कारण वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन होता है जो कि धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करता है।

महानगरों की गगनचुंबी इमारतें भी इसे गरमा रही हैं, ये भवन सूर्य की तपन से गर्मी को प्रतिबिंबित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावा, एक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैं, इससे शीतलन अवरुद्ध होता है। शहरों की सड़कें उसका तापमान बढ़ने में बड़ा कारक हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक तापमान में जितनी वृद्धि होगी बीमारियां उतनी ही बढ़ेंगी और लोग मौत के मुंह में समा जाएंगे।

यदि शहर में गर्मी की मार से बचना है तो अधिक से अधिक पारंपरिक पेड़ों को रोपना जरूरी है, साथ ही शहर के बीच बहने वाली नदियां, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल व अविरल रहेंगे तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे। 

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