विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सरकार की नीति और नीयत पर उठते सवाल
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 27, 2019 07:37 IST2019-12-27T07:37:41+5:302019-12-27T07:37:41+5:30
आज देश की आधी से अधिक आबादी उस वर्ग की है, जिसे युवा कहा जाता है. इस युवा वर्ग की आशाओं-अपेक्षाओं की अनदेखी करके जनतंत्र में आस्था की दुहाई नहीं दी जा सकती. जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि जन-मत का सम्मान हो, नेता जनता के प्रति उत्तरदायी हों. ‘दंगाइयों’ का हवाला देकर जिस तरह हमारी पुलिस विश्वविद्यालयों के छात्रों के साथ व्यवहार कर रही है, उसे उचित नहीं कहा सकता.

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सरकार की नीति और नीयत पर उठते सवाल
विश्वनाथ सचदेव
जनतांत्रिक रीति-नीति का तकाजा तो यह है कि जनता द्वारा सड़क पर उठाए गए मुद्दों को संसद गंभीरता से ले और उन पर पूरी ईमानदारी के साथ विचार किया जाए, पर आज देश में जनता विवश होकर उन मुद्दों को सड़क पर ला रही है, जिन्हें संसद में उठाया जाना चाहिए था. नागरिकता संशोधन कानून पारित हो चुका है.
कहने को तो इस विषय पर संसद के दोनों सदनों में बहस भी हुई थी, पर कानून पारित होने के बाद देशभर में जो हो रहा है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस संदर्भ में संसद में जो कुछ हुआ देश की जनता उससे संतुष्ट नहीं है और इसीलिए सड़क पर नारे गूंज रहे हैं. सरकार ने जनता के इस रुख पर ध्यान दिया है और अलग-अलग तरीकों से आश्वासन दिया जा रहा है कि देश के नागरिकों को, जिनमें सब धर्मों के लोग शामिल हैं, किसी प्रकार के भय की आवश्यकता नहीं है.
सरकार भले ही इस जन-असंतोष को कुछ राजनीतिक दलों, कुछ ‘अर्बन-नक्सलियों’ की साजिश कहे और यह भी मान ले कि ऐसे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है, लेकिन वास्तविकता कुछ और है. एक असंतोष पल रहा है देश में. जिस तरह से देश के युवा सड़कों पर आए हैं, और जिस तरह यह गुस्सा शांत नहीं हो रहा है, उसे देखते हुए सत्तारूढ़ दल भाजपा को इस सारे मुद्दे पर अपने दृष्टिकोण पर विचार करने की आवश्यकता है.
बात सिर्फ नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर तक ही सीमित नहीं है और यह समझना भी सही नहीं होगा कि एक वर्ग विशेष या कुछ तबके ही इस ‘असंतोष’ से जुड़े हैं. सवाल सरकार की नीति और नीयत दोनों पर उठ रहे हैं.
पिछले आम चुनाव में भाजपा को शानदार बहुमत मिला था और संसद में ही नहीं, राज्यों में भी भाजपा का झंडा इस कदर फहरा था कि देश के सत्तर प्रतिशत भूभाग पर भाजपा का शासन हो गया था. अब झारखंड की पराजय के बाद भाजपा का शासन सिमट कर एक तिहाई भूभाग पर ही रह गया है. आज सड़क पर जो हो रहा है, और एक के बाद दूसरा चुनाव-परिणाम जो कुछ बता रहा है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि असंतोष व्यापक है, सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून ही उसका कारण नहीं है.
सच तो यह है कि नागरिकता संशोधन कानून जैसे तरीकों से सरकार जनता का ध्यान बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी आदि गंभीर मुद्दों से हटाकर भावनात्मक दोहन की नीति अपना रही है. या तो वह स्थिति की गंभीरता से परिचित नहीं है या फिर गंभीरता समझ नहीं रही है.
भावनात्मक मुद्दों के त्वरित परिणाम दिखाई देते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, पर बुनियादी मुद्दों की अनदेखी नुकसान पहुंचाती ही है. जिस तरह एक के बाद दूसरा राज्य भाजपा के हाथों से फिसलता जा रहा है, वह इस बात का प्रमाण है कि जन-असंतोष बढ़ रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा खतरे की इस घंटी की आवाज को सुन-समझ रही होगी.
प्रधानमंत्री का पद बहुत बड़ा है, इसीलिए उनसे अपेक्षाएं भी बहुत बड़ी होती हैं. उनसे किसी दल-विशेष के नेता की नहीं, देश के नेता की तरह व्यवहार की अपेक्षा होती है. इसलिए, जब प्रधानमंत्री कुछ ऐसा करते-बोलते नजर आएं जो ज्ञात तथ्यों के विपरीत हो तो जनता का निराश होना स्वाभाविक है.
कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री ने राजधानी दिल्ली की एक विशाल रैली में नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर कहा था ‘यह झूठ है, झूठ है, झूठ है’ कि एनआरसी के बारे में सरकार कुछ कर रही है.
उन्होंने स्पष्ट कहा कि अभी सरकार इस बारे में सोच भी नहीं रही, संसद में या मंत्रिमंडल में एनआरसी शब्द भी नहीं उचारा गया. इसे सुनकर तो यही लगा कि शायद प्रधानमंत्री को पता ही नहीं है कि उनके गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और गृह राज्यमंत्री ने एनआरसी के बारे में पिछले एक अर्से में क्या कहा है. संसद में, और सड़क पर, दोनों जगह देश के गृह मंत्री ने बार-बार घोषणा की है कि नागरिकता कानून के बाद देश भर में एनआरसी होकर रहेगा. इस तरह के विरोधाभासी बयान ही जनता में अविश्वास पैदा करते हैं.
देश के विश्वविद्यालयों के छात्र आज जिस असंतोष को अभिव्यक्ति दे रहे हैं, वह नीति और नीयत दोनों पर सवालिया निशान लगाने वाला है. इस असंतोष को हल्के में लेना, अथवा इसे ‘पर्दे के पीछे की ताकतों’ का कारनामा बताना हकीकत को न समझना या फिर हकीकत से आंख चुराना ही होगा. ये दोनों ही बातें खतरनाक हैं.
आज देश की आधी से अधिक आबादी उस वर्ग की है, जिसे युवा कहा जाता है. इस युवा वर्ग की आशाओं-अपेक्षाओं की अनदेखी करके जनतंत्र में आस्था की दुहाई नहीं दी जा सकती. जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि जन-मत का सम्मान हो, नेता जनता के प्रति उत्तरदायी हों. ‘दंगाइयों’ का हवाला देकर जिस तरह हमारी पुलिस विश्वविद्यालयों के छात्रों के साथ व्यवहार कर रही है, उसे उचित नहीं कहा सकता.
पुस्तकालयों में अश्रु गैस के गोले फेंकना देश के युवा मानस को आतंकित करने की कार्रवाई ही कहा जाएगा. इसे एक घटना नहीं, एक प्रतीक के रूप में लेना चाहिए. युवाओं की आंखों में आंसू नहीं, भविष्य के सपने तैरने चाहिए. तभी जनतंत्र बचेगा.